सोमवार, 26 अगस्त 2019

हिन्दी सिनेमा में बरसात


बिजुरी की तलवार नहीं बून्दों के बान चलाओ

 


हिन्दी सिनेमा की एक लम्बी परिपाटी समसामयिक परिस्थितियों, आवश्यकताओं, अभावों और संघर्ष के विषयों का अहम बिन्दु रही है। समय-समय पर ऐसी अनेक फिल्में बनी हैं जिनमें मानवीय जीवन के सुखदुख, रिश्ते नाते, खुशियाँ, तकलीफें, रीति-रिवाजों की व्याख्याएँ दर्शकों के मन मस्तिष्क में अपनी ऐसी जगह बना गयी हैं कि आज भी उनकी छाप स्मृतियों में है। गर्मी का मौसम है, बरसात की आमद होने को है। हिन्दी फिल्मों में गर्मी का मौसम, पानी की कठिनाई और बरसात के आव्हान को लेकर कितनी ही बातें कही गयी हैं। न जाने कितने गीत हम गुनगुनाते हैं, कितनी ही फिल्मों के यादगार प्रसंगों को याद करते हैं। आज के सिनेमा में समय सापेक्षता के कितने तत्व मौजूद हैं, ये तो जमाना जानता है मगर हमें पहले का सिनेमा जरूर अपनी कई खूबियों और विशिष्टताओं के साथ-साथ दर्शकों से अपने अनूठे रिश्ते बना लेने के कारण अक्सर याद आता है। इस लेख के माध्यम से ऐसी ही कुछ फिल्मों की चर्चा की जा रही है जिसमें जल के साथ इन्सानी जद्दोजहद को बखूबी पेश किया गया है।

1953 में प्रख्यात फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय ने एक अविस्मरणीय फिल्म बनायी थी, ‘दो बीघा ज़मीन’। ‘धरती कहे पुकार के, गीत गा ले प्यार के, मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए’, मन्नाडे का गाया यह गीत आज भी सुनो तो फिल्म के सशक्त कथ्य और उसमें अन्तर्निहित यथार्थ की तस्वीर आँखों के सामने उभर आती है। ग्रामीण परिवेश में प्रकृति और पूंजीपति से संघर्ष करता किसान कितना विवश और असहाय है, यह फिल्म में देखा जा सकता है। सूखे और अवर्षा की स्थिति में जब पूरे गाँव के लोग पानी का आव्हान करते हुए ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’ गाते हैं तो एक-एक आदमी और औरत के चेहरे पर आसमान से बरसने वाले पानी के लिए स्वागतातुर ललक उम्मीदों से भरी नज़र आती है। गाना खत्म होते होते जब पानी बरसता है तो लोग जमकर नहाते हैं। 

1956 में राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ में पानी के लिए प्यासा नायक जब एक घर में जा घुसता है तो उसे अपने जगत के बेनकाब होते चेहरे दिखायी पड़ते हैं। उसकी प्यास तब और चरम पर जा पहुँचती है जब वो उन चेहरों पर मानवीयता को नेस्तनाबूत कर दिए जाने के षडयत्रों को अट्टहास करते हुए देखता है। उसका गला खुष्क हो जाता है। उसके सामने आम आदमी के विरोध में जैसे एक पूरी दुनिया ही खड़ी दिखायी देती है। वह चोर साबित होता है। बेतहाशा भागकर जब पस्त हो जाता है तो फिल्म के अन्त में उसके चुल्लू में नरगिस पानी डालती है और वह व्याकुल आत्मा के साथ पानी पीकर तृप्त होने की कोशिश करता है। यह अन्त एक तरह का आशावाद ही माना जायेगा जिसका इन्तज़ार आज तक उस नायक जैसे इन्सान कर रहे हैं। 1965 में आयी विजय आनन्द की फिल्म ‘गाइड’ की एक अलग ही फिलॉसफी थी। उसके मूल में प्रेम था, जिसको सशक्त कथ्य और चरित्र के भीतर के अन्तर्द्वन्द्वों के बावजूद नैतिक ठहराने की एक बड़ी और आत्मविचलन से भरपूर जद्दोजहद दिखायी पड़ती थी। फिल्म का नायक अन्त में जब एक गाँव में जाकर लोगों की श्रद्धा का पात्र बन जाता है तब उसकी अपनी एक कठिन परीक्षा जो कि परिस्थितिजन्य होती है मगर उसकी ज़िन्दगी की कीमत पर उसे नायकत्व के शिखर पर स्थापित करती है। पानी को तरसते सूखे गाँव के लिए नायक का अन्न जल त्याग देना आखिर उस चरम को स्पर्श करता है जिसमें पानी का बरसना और नायक का मर जाना एक ही चरम बिन्दू पर घटित होता है। पानी के आव्हान से आत्मपरीक्षा का यह तारतम्य आज भी दर्शक भुला नहीं पाये हैं। 

पानी को लेकर संघर्ष की स्थितियों को अक्सर राजस्थान की पृष्ठभूमि और परिवेश में बनी फिल्मों में अक्सर व्यक्त किया गया है। रेत और रेगिस्तान में जहाँ दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान न हो वहाँ लोग क्या करेंगे? सिनेमा को मानवीय संघर्ष और सरोकारों के सशक्त माध्यम के रूप में बरतने वाले प्रख्यात फिल्मकार ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने 1971 में फिल्म ‘दो बून्द पानी’ में पानी और सपनों के यथार्थ को इन्सानी ज़िन्दगी और संवेदना के परिप्रेक्ष्य बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया था। ‘पीतल की मेरी गागरी, दिल्ली से मैंने मोल मंगायी रे। पाँवों में घुंघरू बांध के, अब पनिया भरन हम जाईं रे’ गीत की मधुर भावना और संगीत आज भी उतना ही प्रभावशाली है जितना उस वक्त था। कैफी आज़मी के लिखे इस गीत को जयदेव ने संगीत से सजाया था। राजस्थान गंगा सागर परियोजना इस फिल्म के मूल में थी जिसमें एक संवेदनशील कहानी को अब्बास ने सृजित किया था।

1981 में तमिल के प्रख्यात निर्देशक के. बालाचन्दर की फिल्म ‘थन्नीर थन्नीर’ में पानी की समस्या को राजनीति में इस्तेमाल करने और शोषण का प्रभावी चित्रण किया गया था। तमिलनाडु के एक गाँव अतिपत्तु में भयावह जलसंकट है। पानी को लेकर तरसते गाँव को जीवनयापन के लिए पानी चाहिए मगर दो प्रभावशाली राजनैतिक दलों में यह राजनीति प्रबल होती है कि पानी गाँव में आये या नहीं? बीस मील दूर से इस गाँव को पानी उपलब्ध कराने के नाम पर स्थानीय राजनीति अपने ढंग से जनता को भरमाती है। राजनेता, उनके अनुयायी और पुलिस सब मिलकर इस अत्यन्त सम्वेदनशील मुद्दे को राजनीति का हथियार बनाकर भोले-भाले ग्रामीणों की भावना, उम्मीदों और ज़िन्दगी से खिलवाड़ करते हैं। कालान्तर में यह एक ऐसे संघर्ष में तब्दील होता है जो अनियंत्रित और अराजक हो जाता है। परिणामस्वरूप झगड़ा होता है, जानें जाती हैं। 

1985 में जे. पी. दत्ता ने ‘गुलामी’ फिल्म का निर्माण किया था। ज़मींदारी-साहूकार शोषण, वर्ग भेद, ऊँच नीच का यथार्थ इस फिल्म के मूल में था। इस फिल्म में भी गाँव के स्कूल में ठाकुरों के बच्चों के पीने का पानी अलग रखा है और बाकी का पानी अलग रखा है। फिल्म का नायक मास्टर जी से सवाल भी करता है मगर मास्टर जी के पास जवाब नहीं है। गाँव के कुँए से मृत पशु के निकलने से पानी ज़हरीला हो जाता है तब नायक धर्मेन्द्र जमींदार के महल से पानी लेने के लिए गाँव वालों की अगुवाई करते हैं। इस पर भारी खून-खराबा होता है। इस फिल्म में भेदभाव और शोषण के बीच पानी की ज़रूरत, उसका मयस्सर होना कठिन होना और इन्सानी ज़िन्दगी के मोल को आँकने की प्रवृत्ति को सशक्त रूप में उभारा गया है। यह फिल्म बेहद प्रभावशाली है जिसके तीन प्रमुख नायक अन्त में एक-एक करके मरते हैं मगर वे यथासम्भव एक ऐसा मार्ग प्रशस्त कर जाते हैं जिसमें शायद ऐसी व्यवस्था कायम हो जिसमें गरीब और छोटी जाति के लोगों को किसी भी कुँए, पोखर, तालाब, नदी या बावड़ी से पानी पीने-लेने के एवज में जान न देना पड़े।

1990 में आयी सईं परांजपे की फिल्म ‘दिशा’ एक अलग तरह की महत्वपूर्ण फिल्म है जिसमें रोज़ी रोटी की आस में घर परिवार गाँव में छोड़कर महानगर की भूलभुलैया में खो गये दो किरदारों की कहानी है। एक आखिर में शहर से गाँव लौटता है और गाँव में ही रहने का निर्णय लेता है और दूसरा इसलिए गाँव नहीं लौट पाता क्योंकि उसके शहर रहते, गाँव में उसके अपने लोग पराए हो गये, जिसमें उसकी पत्नी भी शामिल है जिसका गाँव के एक बीड़ी ठेकेदार से सम्बन्ध हो गया है। इस नायक का पिता यह बात जानता है मगर बीड़ी ठेकेदार ने उसे ऐसे ठाठ उपलब्ध कराए हैं कि वो भी सब कुछ नज़रअन्दाज़ कर आँख मूंदकर दूसरी तरफ करवट लेकर सो रहा है। इस फिल्म में एक दिलचस्प कैरेक्टर ओमपुरी का है जो शहर कमाने गये रघुवीर यादव का बड़ा भाई है। उसकी एक ही धुन है, वह गाँव में कुँआ खोदने में अकेला जुटा हुआ है। सब लोग उसे पागल सा समझते हैं मगर चौबीसों घण्टे वो अकेला ही गड्ढे को इस आस में गहरा किए जा रहा है कि उसमें से एक दिन पानी निकलेगा और पूरे गाँव की समस्या हल हो जाएगी। सईं परांजपे क्लाइमेक्स में इस किरदार को सफल होते दिखाती हैं। कुँए से स्रोत फूट पड़ता है। ओमपुरी का छोटा भाई बना रघुवीर यादव इसी खबर के बाद लौटने का निर्णय लेता है। कुल मिलाकर यह फिल्म एक आदमी के साहस और हौसले के साथ साथ अपनी जड़ों से विस्थापित होते इन्सान की विडम्बनाओं को भी प्रकट करती है। 

आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘लगान’ की पृष्ठभूमि में ग्रामीण परिवेश है। गाँव के लोगों को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में बरसात नहीं हो रही है। खेत का क्या होगा, फसल होगी कि नहीं, यही चिन्ताएँ भोले ग्रामीणों को एक जगह पर ले आती हैं। सब के सब आसमान की ओर निहारते हैं और अनन्त से अनन्त तक विस्तीर्ण नीली छतरी की मनुहार में ये मधुर गीत गा उठते हैं, घनन घनन घन घिर आए बदरा काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसाओ बिजली की तलवार नहीं बून्दों के बान चलाओ। यह खूबसूरत गीत जावेद अख़्तर ने लिखा है जिसे ए. आर. रहमान ने संगीतबद्ध किया है। बड़ा खूबसूरत दृश्य उपस्थित होता है जब काले मेघा सचमुच बून्दों के बान चला देते हैं और ग्रामीणों के चेहरे पर पानी की बून्दें, आँखों के आँसुओं के साथ मिलकर खुशी की एक अलग ही परिभाषा रचती हैं। 

हिन्दी सिनेमा में न जाने कितनी ही फिल्मों में पनघट, नदी, तालाब, पोखर और जलस्रोत के आसपास खूबसूरत दृश्य से लेकर हृदयविदारक हादसे भी रचे गये हैं। नायक-नायिका, सखियाँ, गगरी, मटकी, गीत से लेकर छेड़छाड़ तक पनघटों में एक अलग ही प्रभाव रचती है। अल्ला मेघ दे पानी दे पानी दे गुड़धानी दे, रामा मेघ दे, पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, मेघा रे मेघा रे मत परदेस जा रे, हरियाला सावन ढोल बजाता आया, उमड़ घुमड़कर छायी रे घटा का अपना अलग रंग और प्रभाव रहा है। हमारे जीवन में पानी का बहुत बड़ा मोल है। पानी हमारे लिए जीवन का विकल्प है। पानी से रिश्ते बनते भी हैं और बिगड़ते भी हैं। दिनों दिन नष्ट होते पर्यावरण और प्रकृति के सन्तुलन ने हमारी ज़रूरतों में से सबसे अहम पानी का जिस तरह संकट खड़ा किया है, वो अत्यन्त भयावह है। सईं परांजपे की फिल्म ‘दिशा’ का किरदार अकेला कुँआ खोदकर एक दिन पानी निकाल देने का अपना जुनून पूरा करता है मगर समाज में इसकी कोई सार्थक प्रेरणा कहाँ सम्प्रेषित हो पाती है? यथार्थ में तो हम कुँए पूरने का काम कर रहे हैं और धीरे-धीरे सारे जलस्रोतों को समाप्त करने में, अस्तित्वहीन करने में जाने-अनजाने अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। 



 
     

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