रविवार, 20 अक्तूबर 2019

वार : बचाने के लिए वार


हिृतिक रोशन को इससे भी बेहतर कहानी दी जानी चाहिए

 


अपने बड़े भाई बी आर चोपड़ा के साथ काम करते हुए यश चोपड़ा ने स्वयं अपनी निर्माण संस्था बनायी और निर्देशन करते हुए अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ नाम और दाम दोनों कमाया। बाद में यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा ने दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे एक सुपरहिट बनाकर लगभग रिटायरमेंट जैसी जिन्दगी ही अपना ली। उन्होंने दूसरे निर्देशकों को अपने बैनर पर मौका दिया। अपवाद स्वरूप रब ने बना दी जोड़ी या एक दो और कुछ बनाया होगा तो याद नहीं है। बहरहाल अपने पास उपलब्ध बजट से वे यशराज को बनाये हुए हैं लेकिन उनके कार्यकाल में दीवार, त्रिशूल, कभी-कभी, चांदनी, लम्हें या सिलसिला जैसे नाम नहीं हैं। नेपथ्य से वे युक्तिपूर्वक अर्जन में जीवन बिता रहे हैं। बहरहाल, उनकी निर्माण संस्था की नयी फिल्म वार देखने का अवसर जुटा पाया था तो लगा कि कुछ बातें लिख दूँ। मित्रों में फिल्म समीक्षा को लेकर जो जिज्ञासा या कौतुहल रहता है, उसका किसी हद तक अपनी समझ और प्रयासों से समाधान करने का प्रयत्न भी इसी बहाने है।

वार फिल्म को सिद्धार्थ आनंद ने निर्देशित किया है। इस साधारण सी कहानी को लिखने में उनके अलावा फिल्म के निर्माता आदित्य भी लगे तब जाकर यह भटकी सी कहानी फिल्म के लिए बन पायी। इसके संवाद उन्होंने अब्बास टायरवाला से लिखवाये हैं। देश को बाहरी मुल्कों से खतरा, आपसी शत्रुता, छल-षडयंत्र ये हमारे सिनेमा के बहुत आम विषय रहे हैं। बहुत कम फिल्मकार ऐसे विषय लेकर जिम्मेदारी या समझबूझ से कोई फिल्म बना पाते हैं। सिद्धार्थ आनंद ने जान-जोखिम में डालने वाले देश के सुरक्षा एजेण्टों की ओर से यह कहानी प्रस्तुत की है। हितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ के तेवर प्रदर्शन और प्रचार के साथ यह फिल्म शुरू होती है। दोनों नायक एक-एक करके जिस तरह से परदे पर आते हैं लगभग प्राकट्य भाव है। मुश्किल यह है कि हॉल में ताली नहीं बजती।

सारा झगड़ा आतंकी को पकड़ने का है। उसको मदद करने वाले, रुपयों और पैसों के लालच में आकर अपना ईमान बेचने वालों की एक पूरी श्रृंखला को बेनकाब करना है। कहानी आरम्भ में नायक को रहस्यमयी ढंग से नकारात्मक दर्शाती है। नायक का अधीनस्थ जो है उसी को इसका पता लगाने को कहा जाता है कि कैसे बहादुर हीरो की बन्दूक अपने ही लोगों पर तन गयी है। एक घण्टे सब कुछ बढ़िया चल रहा है, माल्टा, पुर्तगाल, ईराक और वहाँ के विभिन्न स्थानों, पहाड़, तराई, घाटी के हवाई फिल्मांकन, खासकर एक्शन दृश्य, मारधाड़, आधुनिक विमान, मोटर सायकिलों पर पीछा करने के जोखिम भरे दृश्य दर्शक को जगाये रखते हैं।

मध्यान्तर के बाद बिना सोचे समझे बाहृय संरचना करके फिर भीतर कुछ ईंट और कुछ रोड़े लगाने में निर्देशक की ऊर्जा नष्ट होती चली गयी है। नायकों को स्थापित करने, उनका अतिशय महिमा मण्डन करने में लगभग सिद्धहस्त हो चले युवा निर्देशक सबसे ज्यादा छल नायिकाओं के साथ करते हैं। बरसों से अच्छे अवसर की यशराज में प्रतीक्षा करती वाणी कपूर को इस फिल्म में भी कुछ मिनट का, अथाह देहप्रदर्शन का किरदार देकर छुट्टी पायी है। शेष सहायक भूमिका निभाने वाले आशुतोष राणा जैसे कलाकार बहुत बंधे हुए लगते हैं जैसे सचेत कर दिया हो कि बस इतना ही इससे ज्यादा नहीं जाना। दो-तीन गाना, नाचना भी है। लेकिन प्रचारित यह हो रहा है कि बॉक्स ऑफिस पर रुपयों की बरसात हो रही है और वार ने सभी आसपास की फिल्मों के साथ वार करके विजयश्री हासिल कर ली है।

कुल मिलाकर ऐसा है नहीं। प्रथम दृष्टया पूरी कहानी की आत्मा ही कल्पनाहीनता और तर्क के विपरीत है। ऐसा लगा है कि बहुत सी लीपापोती शूट करते चलने के बाद पूर्वदीप्ति (फ्लैश बैक) में करके अपनी बात के पक्ष में भर लिया गया है। विशेष रूप से वह दृश्य बहुत फालतू लगा है जिसमें टाइगर के छुटपन के किरदार को स्कूल में बच्चे बुरी तरह मारते हैं जिससे वह बाँयी ओर से आँखों से देखने की क्षमता खो बैठता है। एक दृश्य को व्यर्थ न बताने के लिए यह गुणाभाग। ऐसे ही हितिक का नायिका को दिया वचन और फिर उसके एक वाक्य से जुड़कर उसकी बच्ची का ध्यान रखने वाली चेष्टाएँ। यह इसलिए कि वह जिस आश्वस्ति के साथ नायिका को उसकी रक्षा का वचन देता है, उसी में विफल हो जाता है।

इन सबके बावजूद अपनी भूमिका के साथ हितिक बहुत अच्छे उपस्थित हैं। उनकी पूरी शख्सियत फिल्म को एक तरह का रक्षाकवच ही है। टाइगर श्रॉफ इसलिए इसमें ठीकठाक नजर आते हैं क्योंकि उनका कन्ट्रास्ट नायक के साथ है। इतने के बाद सिनेमेटोग्राफी (बेंजामिन जेस्पियर), एक्शन डायरेक्टरों का कमाल और लगभग दो तिहाई हिस्से का कसा हुआ सम्पादन (आरिफ शेख) इस फिल्म को देखने-सहने योग्य बनाता है।

हालाँकि यह फिल्म एक था टाइगर या टाइगर जिन्दा है परम्परा की ही आगे की कड़ी है। चेहरा बदलने वाली चिकित्सक और उसके अस्पताल की, मुँह का त्वचीय उपचार करती मशीने बहुत हास्यास्पद लगती हैं। असली टाइगर श्रॉफ आरम्भ में मर चुका है, एक खुफिया अधिकारी का चेहरा उस जैसा कर दिया गया है जो शत्रुओं के साथ है। नकारात्मकता और सहानुभूति के बीच यह किरदार और टाइगर दोनों ही अपना श्रेय इसीलिए नहीं पा सके हैं। विदेश आम भारतीय के सपनों का स्वर्ग होता है, मेरे लिए भी है और हम जैसे लोगों के लिए ढाई घण्टे में तीन-चार देश घूम आना बुरा नहीं है लेकिन फिल्म बहुत अच्छी बन जाती यदि कहानी ढंग की होती, उसका निर्वाह कायदे से किया जाता।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें