मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

दबंग के सकारात्‍मक पहलू

सिरे से खारिज करने के पहले



हाल ही में प्रदर्शित सलमान खान की नयी फिल्म दबंग तीन को लेकर मेरी टिप्पणी पर मित्रों की निरी असहमतियाँ प्राप्त हुई हैं। कुछेक मित्रों ने मेरे सिनेमा लेखन की समझ और अनुभव को भी आड़े हाथों लिया। मेरा विनम्र उत्तर यही था कि सीख रहे हैं, पारंगत हो गये हैं, यह अभिव्यक्त तो कभी रहा ही नहीं, बहरहाल। 

दबंग को सिने से नकार दिए जाने की कोई बहुत ठोस वजह देखने में नहीं आती। सलमान खान सहित उसके तीन बड़े निर्माता हैं जिन्होंने दक्षिण के एक बड़े सितारे, कोरियोग्राफर और निर्देशक प्रभुदेवा को इस फिल्म के निर्देशन के लिए अनुबन्धित किया। भरपूर धन लगाकर फिल्म बनायी गयी जो अपनी लागत का ठीकठाक अर्जित कर रही है। सितारा उपस्थिति है। बिल्कुल उबा दे, बैठना दूभर कर दे इतनी अप्रिय फिल्म नहीं है दबंग।

माना जा सकता है कि कहानी नहीं है कुछ। पहली दबंग से दूसरी और दूसरी को बनाने पर मिली खूब सफलता ने इस साहस के लिए प्रेरित किया होगा लेकिन यह भी तय मानिए कि इस दबंग पर आम राय बनने के बाद चौथी दबंग तो कम से कम नहीं बनेगी। दस साल की आवृत्ति में यह तीसरी दबंग ही सबसे बड़े अन्तराल के साथ आयी है। 

दबंग तीन आम मसाला और फार्मूला फिल्म है लेकिन उसमें दूसरी मसाला और फार्मूला फिल्मों की तरह बेतरह अनर्गल चीजें नहीं डाल दी गयी हैं। हर तरह के दर्शकों का ध्यान रखते हुए एक ऐसी फिल्म निर्माताओं के बनानी चाही है जो अपने नाम और सफलता के इतिहास के बचे-खुचे प्रभाव में कुछ खींचकर ला सके। बहुत उत्साहजनक ढंग से ये न भी कर पायी तो भी घाटे में फिल्म न रहेगी यह भी तय है।

फिल्म की अच्छाइयों में कई बातें ध्यान आकृष्ट करती हैं। इनमें से एक परिवार के साथ जिन्दगी और दुनिया की कल्पना जिसमें आपसी अनुकूलताएँ, दृश्य और संवाद प्रभावित करते हैं। दिशाहीन नायक का कुछ करने को उदृत होना, जिसे चाहता है उसकी पढ़ाई पूरी हो, अपनी ओर से धन देने की वचन बद्धता सकारात्मक सोच पैदा करते हैं। एक दृश्य वह दिलचस्प है जब वह धोखे से अपनी माँ को ही खुली मालगाड़ी पर पहले छोड़ आता है फिर सच पता चलने पर बचाकर लाता है। मनुष्य की आम बुराइयों को दिखाने में परहेज नहीं किया गया है। अच्छी सिनेमेटोग्राफी, एक्शन, कोरियोग्राफी के साथ संवादों में मर्यादा का प्रदर्शन उल्लेखनीय पक्ष हैं। सलमान खान अपनी लगभग सभी फिल्मों में अच्छी हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यहाँ भी की है, विशेषकर ऐसे समय में जब हिन्दी सिनेमा से हिन्दी समाप्त हो रही हो, इस नायक के इस प्रयत्न को नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। 

हिंसक दृश्यों, मारधाड़ के तीव्र प्रदर्शनकारी दृश्यों के बाद भी नायक के चेहरे पर उत्तेजना, आवेग और घृणा या नफरत दिखायी नहीं देती जो एक बैलेन्स और सन्तुलित कलाकार और किरदार को व्यक्त करती है। एक इन्सपेक्टर ऊपर की कमायी से वेल्फेयर सोसायटी भी चला रहा है, सामूहिक विवाह करा रहा है। उसने शादी ब्याह में लूटने वाले को मारपीट कर उसके पुराने व्यावसाय बैण्ड मास्टर के काम से लगा दिया है जो अब उसके साथ हो गया है और फिल्म के अन्त तक दीखता रहता है।

अच्छी सिनेमेटोग्राफी, एक्शन, कोरियोग्राफी के साथ संवादों में मर्यादा का प्रदर्शन, शिष्टता, सभ्यता, मानवीय संवेदना के पक्षों को एक बार फिर याद कर सकते हैं कि कैसे वह कम उम्र की लड़कियों को गलत जगह जाने से बचाता है, कैसे एक इन्स्पेक्टर होने के नाते पल भर में यह निर्णय लेकर लड़कियों से कहता है कि तुम लोग घर जाओ, तुमसे कोई पूछताछ नहीं की जायेगी।

मैं एक फिल्म समीक्षक होकर भी देखता हूँ और दर्शक होकर भी। किसी एक पक्ष का तराजू भारी नहीं हो यह ध्यान रहता है, अन्ततः सन्तुलन सबसे बड़ी चीज है जो सब्जी बनाते समय मसालों की मात्रा के चयन से लेकर जीवन मूल्यों और व्यवहार में भी मायने रखती है, हमारे पास हर बात का सन्तुलन होना चाहिए, व्यग्रता और आवेग ही सब कुछ नहीं, तुरन्त फैसला कर देना, मित्रगण ऐसे भी जिन्होंने बिना देखे ही यह राय कायम कर ली कि फिल्म अच्छी नहीं है, मेरी समझ में फिल्म बनाने वालों से लेकर उसमें छोटी-छोटी भूमिका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निबाहने वालों के परिश्रम के साथ भी न्याय न कहा जायेगा, बाकी कहने, लिखने की स्वतंत्रता सबकी अपनी है, कुछ भी कहा जा सकता है।    

एक सिनेमा से आप यदि एक भी सकारात्मक बात लेकर बाहर निकलते हैं सिनेमाघर से तो वह एक दर्शक, एक मनुष्य की उपलब्धि है, शेष जैसा आपको ठीक लगे, आपकी राय भी तो शिरोधार्य अर्थात सिरमाथे है.............   

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