पुनरावलोकन / ताल (1999)
सुभाष घई को राजकपूर के बाद फिल्म इण्डस्ट्री का दूसरा शोमैन माना जाता है। वे सिनेमा में हीरो बनने की चाहत लिए पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट गये थे। प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद दो-एक फिल्में मिलीं, एकाध में खलनायक भी बने लेकिन फिर लगा कि अपने को साबित करने के लिए कैमरे के पीछे जाना होगा। शत्रुघ्न सिन्हा दोस्त थे, साथी। उनको लेकर कालीचरण और विश्वनाथ फिल्में बनायीं और फिर एक निर्देशक के रूप में स्थापित हो गये। बाद में कर्ज, क्रोधी, विधाता, हीरो आदि अनेक फिल्में बनाते हुए उनकी पहचान इन मायनों में भी हुई कि दृश्यों को बांधने में इस फिल्मकार को जितनी महारथ हासिल है, ड्रामा रचने में भी उतनी ही दक्षता और संगीत की बहुत खास किस्म की समझ। वे किंगमेकर भी प्रसिद्ध हुए और जैकी श्रॉफ सहित माधुरी, मनीषा, महिमा आदि को अपनी फिल्मों में अच्छे अवसर देने के लिए भी।
ताल
उनकी क्लैसिक फ़िल्म है। इसको एक बहुत साधारण सी कहानी के साथ उन्होंने गढ़ा है लेकिन
संगीत को लेकर अपनी दृष्टि के साथ ए आर रहमान से मिलकर जो उन्होंने गीतों, संगीत,
पार्श्व संगीत के साथ
जो वातावरण खड़ा किया है वह अनूठा है। जिस समय यह फिल्म रिलीज हुई थी उस समय तत्काल
ही हिट हो गयी हो ऐसा नहीं है। सुभाष घई ने चार-पॉंच हफ्ते दर्श्कों को विश्वास
में लेकर इस फिल्म के अच्छे अच्छे विज्ञापन प्रसारित करके इसे लगभग दर्शकों के
सामने इस तरह ला दिया कि आपके जमाने का म्युजिक सेंस दरअसल ये है, रहमान ने इस फिल्म के गानों के संगीत को बैकग्राउण्ड
म्युजिक में इस तरह सदुपयोग किया कि पूरी फिल्म आपको जाग्रत करती हुई प्रतीत
होती है और जैसा कि शुरू में लिखा,
एक साधारण सी कहानी भी
प्रेम, आत्म सम्मान, स्वाभिमान,
समझौता, त्याग आदि के धरातलों पर मन को छूती हुई चली जाती है।
इस
फिल्म को आये बीस वर्ष करीब हो गया है लेकिन जिस तरह एक अच्छी किताब आप अपने
संग्रह से किसी वक्त विशेष पर निकाल कर फिर पढ़ने को होते हैं तो जिज्ञासा बनती
और बढ़ती है। छोटी सी कथा है। हिमाचल के एक गॉंव में एक संगीत शिक्षक अपनी आर्थिक
सीमाओं के साथ परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं। संगीत की पवित्रता और उसके प्रति
उनकी श्रद्धा है। शहर से रईस और व्यावसायी खानदान की टोली अपना कुछ बाजार खड़ा
करने गॉंव आ गयी है। शहरी चतुर चालाक हैं और गॉंव वाले भोलेभाले। दरअसल फिल्मी
कहानी में यह लाइन खूब चलती है। शिक्षक तारा बाबू की एक बेटी मानसी और रईस शहरी
जगमोहन का बेटा मानव कुछ छोटे-मोटे घटनाक्रमों के साथ एक-दूसरे के प्रेम में हैं।
शहरी रईस शिलान्यास करके चले जाते हैं बाद में तारा बाबू अपनी बेटी के साथ शहर
में जाकर जब इनसे मिलते हैं तो उनका बरताव अपमानजनक होता है और सहन न कर पाने पर
तारा बाबू भी अपना आपा खो बैठते हैं लिहाजा मानसी और मानस के बीच गरीब और अमीर, मान और अपमान की बड़ी खाई खड़ी हो जाती है।
बाद
की फिल्म ड्रामेटिक है। मानसी,
विक्रान्त जो कि शहर
में आंचलिक संगीत के रीमिक्स रचकर बड़ा आयकॉन बन गया है उसके साथ मानसी प्रसिद्धि
के रास्ते चल पड़ती है। मानव उसको भुला नहीं पाता। रईसों के घर अग्निकाण्ड
जिसमें कूदकर मानव वह मफलर निकालकर ले आता है जिसमें मानसी ने नाम लिख रखा है। रईस
जगमोहन करुणा से भर गया है अपने बेटे के इस दुस्साहस से। अब प्रेम चढ़ाव से उतार
की ओर बहता है। अन्त में विक्रान्त प्रेम का प्याला पीकर के भी प्यासा रह जाता
है और मानव तथा मानसी प्रेम के उस मर्म को पा लेते हैं जिसकी ताल दोनों की पहली
मुलाकात पर ही मोहब्बत रच देती है। अक्षय खन्ना, ऐश्वर्य, आलोकनाथ और अमरीश पुरी के साथ मीता वशिष्ठ और अनिल
कपूर फिल्म के प्रमुख पात्र हैं। ऐश्वर्या राय खूबसूरत गुड़िया की तरह हैं। द्वन्द्व के दृश्यों में क्लोज शॉट में प्रभावित करतीं हैं। फिल्म में इसलिए नहीं कि त्यागी हैं, अनिल कपूर बहुत तरीके से मध्यान्तर से पूरी फिल्म
अपने साथ लेकर चलते हैं। उनके सामने अक्षय खन्ना साधारण मजनू के ज्यादा कुछ नहीं
लगते। आलोकनाथ का किरदार बहुत ही विचित्र किस्म की भावुकता का शिकार दिखाया गया
है जिसे समझना कठिन है। अमरीश पुरी जरूर दृश्य में होते हैं तो उस दृश्य के
बादशाह ही लगते हैं। जलकर अस्पताल में इलाज करा रहे बेटे से उनका डायलॉग भावुक है
जब मानव मफलर छुपाता है और वे देख लेते हैं। उस समय वह बोलते हैं, बेटा मैं तुम्हारा बाप हूँ।
एक
चरित्र अभिनेता के रूप किसी भी फिल्म में अमरीश पुरी की उपस्थिति हमेशा एक वज्र
के रूप में लगती रही है। उनके बाद इस प्रकार का सशक्त कलाकार अब तक नहीं आया।
सुभाष घई अपनी फिल्म में भावनात्मक स्पर्श के कुछ एंगल बहुत सूझपरक ढंग से रखते
हैं। एक ये ताल और दूसरी फिल्म युवराज के सन्दर्भ में देखो तो अमीर-रईस चरित्र
आत्मिक दृष्टि से बहुत निर्मम होते हैं उनके। वे परिवार के कुटिल और दुष्ट रिश्तेदारों
के किरदार भी खूब खड़े करते हैं जो किसी भी सुखद अवधारणा में चतुर-चालाक
षडयंत्रकारी के रूप में परदे पर आते हैं। ताल में नायक के परिवार में इस तरह के
लोग हैं जो मानव और मानसी के प्रेम और आकांक्षा के बीच खुरदुरे पत्थर की तरह
चेहरे पर चाशनी चढ़ाये नजर आते हैं।
ताल
के गीत आनंद बख्शी ने अस्सी साल की उम्र में लिखे थे। इस उम्र में भी वे गुड़े
से मीठा और इमली से खट्ठा इश्क लिखकर अपने लिखे गानों को आज भी याद में बनाये हुए
हैं। ए आर रहमान का संगीत तो खैर इस फिल्म की नब्ज में बहता है। तबला, बॉंसुरी,
वायोलिन, गिटार आदि वाद्यों की स्वतंत्र माधुरी अनुभवों में
जान डाल देती है। सुखविंदर, उदित नारायण, आशा भोसले, अलका याज्ञनिक, कविता कृष्णमूर्ति की आवाजों की सराहना किए बिना ताल पर लिखना पूरा नहीं हो सकता। खूबसूरत दृश्यों में फिल्म बहुत रोमांटिक लगती है
लेकिन जब कहानी शहर आ जाती है तो उसका अंजाम लगभग पता ही होता है। फिर भी ताल से
दर्शकों को कन्वीन्स कराने में प्रदर्शन के समय सुभाष घई ने जो प्रचार-प्रसार का
तरीका अपनाया था वह कामयाब था। तीसरे-चौथे हफ्ते में फिल्म तक दर्शक पहुँचना शुरू
हो गये थे और आखिरकार दर्शकों की राय में ताल एक अच्छी फिल्म कहलायी भी।
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