शनिवार, 25 जुलाई 2020

देखकर / दिल बेचारा

कास्टिंग छाबड़ा,

काश नकल की जगह मौलिक सिनेमा से शुरूआत करते...



दिल बेचारा देख ली है। फिल्‍म के निर्देशक मुकेश छाबड़ा को निर्माताओं और घरानों की फिल्‍मों के किरदारों के लिए कलाकार चुनने का तजुर्बा है। निर्देशन का स्‍वप्‍न उनके मन में रहा है जिसे उन्‍होंने अपनी कास्टिंग डायरेक्‍टर वाली बड़ी पहचान और ठसक के बाद दिल बेचारा से पूरा करने की कोशिश की है। जोखिम यही उठाया है कि एक विदेशी फिल्‍म अपने यहॉं बनाना चाहा है। वे एक मौलिक कहानी हासिल करके यह पहल करते तो शायद इससे बेहतर काम कर पाते। 2014 में बनी एक अंग्रेजी फिल्‍म द फाल्‍ट इन अवर स्‍टार्स को लेकर भारतीय दर्शकों के लिए किया यह प्रयोग उतना ग्राह्य शायद न हो।

फिल्‍म के नायक और नायिका दोनों ही जानलेवा बीमारियों से लड़ रहे हैं। नायक एक और दुर्घटना का शिकार हो चुका है और उसके एक पैर का नीचे का हिस्‍सा स्‍टील का है। इसके बाद भी वह जीवन को उत्‍साह, ऊर्जा और उत्‍तेजना में जी रहा है। उसका एक दिलचस्‍प साथी है जिसके साथ वह स्‍वयं हीरो रहकर एक क्षेत्रीय फिल्‍म बनाने में लगा हुआ है। नायक खुद रजनीकांत का फैन है। नायिका के मन में एक कलाकार के अधूरे लिखे गाने को लेकर खासा जिज्ञासु प्रश्‍न है कि वो पूरा क्‍यों नहीं किया। पेरिस में रह रहे इस भारतीय मूल के कलाकार से मिलने और इस प्रश्‍न को करने, इसका अच्‍छा सा उत्‍तर पाने की साध है। नायक (सुशांत सिंह) , नायिका (संजना सांघी) और उसकी मॉं (स्‍वस्तिका मुखर्जी) का पेरिस जाना प्रेम में एक नयी कशिश जोड़ता है जिसमें नायिका की मॉं को जरा सहृदय होते दिखाया गया है। लेकिन अहमक कलाकार से मिलना एक कड़वा तजुर्बा होता है। वापस लौटते हुए ही नायिका को नायक की जानलेवा बीमारी का पता चलता है उससे पहले वह उसे पैर के नकली होने तक ही जानती थी। यहॉं से फिल्‍म भारी होना शुरू होती है।

नायक और उसका दोस्‍त जेपी (साहिल वैद)  जिनकी केमेस्‍ट्री आपस में बहुत ही रोचक और बांधने वाली है, एक अजीब से शगल को साझा किया करते हैं दोनों जिसमें चर्च में होने वाली शोक सभा उपस्थित होना और गम्‍भीरता से इतर व्‍यवहार करना, भाग जाना। नायक का चर्च में अपनी ही शोकसभा का दृश्‍य भी ऐसा ही है जिसमें उसका मित्र सम्‍बोधित कर रहा है और नायिका भी। उधर नायिका कब्रिस्‍तान में जाकर दिवंगत के परिवारों से गले मिलकर उनके प्रति अपनी संवेदनाऍं प्रकट करती है। वह हर वक्‍त ऑक्‍सीजन सिलेण्‍डर के साथ चलती है और उसका मानना है कि जिन्‍दगी चन्‍द दिनों की है। दिल बेचारा में ऐसे लोग मिलकर जीवन का कौतुहल रचने की कोशिश करते हैं। नायिका के पिता (सास्‍वत चक्रवर्ती) का अपनी बेटी के साथ जुड़ाव भावनात्‍मक स्‍तर पर अनूठा है। जानलेवा बीमारियों के उतार-चढ़ाव और किस्‍तों में मिलती थोड़ी सी जिन्‍दगी, थोड़ी सी सॉंसे शेष लोगों को कितना मारती-बचाती हैं, यह अस्‍पताल, आईसीयू और तकनीकी उपकरणों के मॉनीटर से जुड़ती मनोवैज्ञानिकता की अजीब सी परीक्षा है। 

दर्शक के सामने यह एक श्रेष्‍ठ फिल्‍म हो सकती थी यदि निर्देशक मेहनत करते। वे मूल फिल्‍म और उसके दृश्‍यों से वाकिफ थे इसलिए जिस आत्‍मविश्‍वास को लिए चलते रहे, वह सार्थक न हुआ। फिल्‍म की पृष्‍ठभूमि का जमशेदपुर होना और कहानी में किरदारों के स्‍वप्‍न में भोजपुरी या क्षेत्रीय फिल्‍म बनाकर सफल होने का मनोविज्ञान ही दिलचस्‍प लगता है। साहिल वैद कमाल के एक्‍टर हैं जो नायक सुशान्‍त सिंह के साथ होते हैं। संजना सांघी का पीड़ा और जिन्‍दगी की अस्थिरता सहते हुए मुस्‍कराना प्रभावित करता है। मॉं तो मॉं की तरह है केयरिंग। उसे नायक के प्रति भी आरम्‍भ में सन्‍देह है। पिता एक सहृदय सेतु है जो आपस में सबको सहज बनाता है। बेटी के अस्‍पताल में भर्ती होने के समय के दृश्‍य में सास्‍वत का चेहरा जिस तरह बदहवासी को नियंत्रित करके स्थिर होता है वह कमाल का है। सुशान्‍त सिंह इस फिल्‍म का नायक, अपनी तरह से किरदार को जीता हुआ। पहले आरम्‍भ में अपना स्‍टील का पैर दिखाता है। बाद में गम्‍भीर बीमारी भी जो नायिका की बीमारी की तरह ही है मगर उसके जोखिम अधिक बढ़े हुए हैं। निर्देशक ने सैफ को एक छोटी सी भूमिका में निरर्थक सा अभिनय कराकर यह साबित कर दिया है कि अब वे हुनर से कोसों दूर हो चुके हैं। हॉं न्‍यूज रीडर रहे सुनीत टंडन डॉ झा की भूमिका में जितने दृश्‍यों में होते हैं, एक सहृदय चिकित्‍सक और सरस सरल मूड के इन्‍सान के रूप में अपना किरदार बखूबी निबाहते हैं। 

फिल्‍म का संगीत ए आर रहमान का है। गाने अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखे हैं। गाने रोजमर्रा के जीवन की सरल कविता की तरह हैं जिसे खुद रहमान के अलावा अरिजीत, मोहित, श्रेया, सुनिधि, जोनिता गांधी, आदित्‍य नारायण, हृदय गट्टानी, पूर्वी कोटिश आदि ने गाया है। समीक्षकों ने रहमान के संगीत को अपनी तरह से विश्‍लेषित किया है लेकिन अपनी मान्‍यता यह है कि यह शोहरत और कीर्ति के सारे तूफानों, अनुभूतियों और अहँकार से ऊबर चुके रहमान का सधा हुआ, मर्यादित और मीठा संगीत है। इस अनुभूति के साथ फिल्‍म के गानों को सुनेंगे तो सुकून मिलेगा। 

अन्‍तत: सुशान्‍त के बारे में क्‍या लिखूँ? यह उनका आखिरी सर्जनात्‍मक हस्‍ताक्षर है। इस कलाकार में शुरू से खोये और भटके हुए सपनों की झलक मिला करती थी जिनमें से वह एक एक खोजता और पाता था। सुशान्‍त को देखते हुए उसके चेहरे से ज्‍यादा गले में उसके उभरे हुए थ्रोड पर ध्‍यान अटक जाता था। लम्‍बी एक जैसी गरदन पर सुशान्‍त चेहरा बहुत रोमांटिक लगता था। उसने इस फिल्‍म में बहुत अच्‍छा काम किया है। संजना के साथ रोमांटिक होते हुए उसके दृश्‍यों में उसकी ऑंखें और मुस्‍कराहट युवा राजेश खन्‍ना की याद भी दिलाती हैं। उसको परदे पर देखते हुए नहीं होने के सच पर अविश्‍वास होने लगता है। 
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