अपने से छले जाने के किस्से हजार हैं। हमारी परम्परा में ऐसी कथाऍं मौजूद हैं जो ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। कागज का नायक भरत लाल भी अपने नाते-रिश्तेदारों के छल और षडयंत्र का शिकार है। छोटी सी जगह में, छोटी सी दुकान में चार सहायकों के साथ बैण्ड मास्टर बनकर जीवन यापन कर रहे भरत लाल की जिन्दगी में तब व्यवधान आ जाता है जब बैंक से कर्ज लेने के लिए बतौर जमानत वह अपने बाप-दादों के उसके हिस्से में आयी जमीन का हक प्राप्त करने अपने चाचा और उसके परिवार के पास जाता है। भरत लाल के हिस्से की जमीन उसको मृत बतलाकर अपने दो बेटों में बॉंट देने वाला चाचा और उसका परिवार धूर्त है जो यह करके भी निर्लज्ज हैं।
नतीजा यह कि अपना हक मांगने गया भरत लाल किसी तरह अपने प्राण बचाकर भागता है। लेकिन लौटकर वह लड़ने का प्रण करता है। फिल्म इसी लड़ाई को दिखाती है। कोर्ट-कचहरी, वकील, बाबू, तंत्र, व्यवस्था, पुलिस और राजनीति सभी के निर्मम अनुभवों से गुजरता भरत लाल शनै शनै अपनी लड़ाई को बड़ा करता है मगर बहुत ही धीरज और समझदारी के साथ। वह अपने को जीवित साबित करने के लिए जज तक का अपमान कर देता है लेकिन जज भी उसको दण्डित नहीं करते क्योंकि वह कागज पर जीवित सिद्ध हो जायेगा। भरत लाल की लड़ाई दूर तक जाती है और अन्तत: उसके पक्ष में परिणाम भी लाती है।
फिल्मकार सतीश कौशिक ने इस फिल्म को दस साल खदकने दिया है और इससे उद्वेलित होते रहे हैं। वे बतलाते हैं कि किस तरह अखबार में पढ़ी एक छोटी सी घटना ने मुझे उस पर फिल्म बनाने की सीमा तक उद्विग्न किया जिसका परिणाम यह कागज के रूप में आपके सामने है। एक सिनेमा का बनना जितना महत्वपूर्ण है उसका दर्शकों तक आ जाना उतना ही महत्वपूर्ण। यहॉं पर सलमान खान ने कागज को प्रदर्शन के संजोग तक पहुँचाकर एक बड़ा काम किया है क्योंकि साल की शुरूआत में दर्शकों को सम्भवत: पहली सार्थक और उद्देश्यपूर्ण फिल्म देखने को मिल रही है। फिल्म के आरम्भ और अन्त में उन्होंने एक सुन्दर नज्म भी पढ़ी है।
सतीश कौशिक ने लेखक और निर्देशक के रूप में लगभग पौने दो घण्टे की इस फिल्म में छोटे छोटे मन को छू जाने वाले गाने भी रखे हैं जो फिल्म का हिस्सा ही लगते हैं और स्थूल जगहों को भरते हैं। कुल मिलाकर कागज इस समय एक देखने वाली फिल्म है, खासकर ऐसे समय में जब कुछ समय से फिल्म और वेबसीरीज में गाली और गन्दगी का एक साथ संक्रमण फैला है। इस फिल्म की भाषा और संवाद बहुत मर्यादित हैं। सतीश कौशिक ने इस दृष्टि से एक मन को छू जाने वाली और बड़े दिन याद रहने वाली फिल्म बनायी है।
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बहुत ही सार्थक और रोचक समीक्षा की, जो दर्शक वर्ग को देखने के समय महसूस होता है और पाठक को समीक्षा पढ़कर फ़िल्म देखने की ईच्छा जगाती हैं। एक दम निष्पक्ष और बिना किसी लग लपेट के अपनी बात कही है। दरअसल आपके बारे में सिनेमा से संवाद पुस्तक के भूमिका को पढ़कर जाना और उसके बाद खोजबीन की तो यहां जाकर अपनी बात आप तक पहुंचायी। सर, आपकी सिनेमा पर किताब ढूंढना चाह रहा हूं, मनमोहन सर के जैसा ही, मैं सिनेमा की बारीकियों और हर विधा को पूरी मौलिकता और गहराई के साथ जाना चाहता हूं, जिसका एक विषय फिल्म समीक्षा भी है, जिसमें आप राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी हुए हैं। अगर ऐसा कुछ लिखित है तो मुझे बताए।
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विकास कुमार, शोधार्थी
rahivikas1556@gmail.com