गुरुवार, 7 जनवरी 2021

एक मार्मिक यथार्थ के भीतर से होकर गुजरना

 

देखकर / कागज


सुनील मिश्र

 


हमारे सिनेमा में मार्मिक यथार्थ कम ही लिखे जाते हैं। दरअसल इसके पीछे सारा जोर मन का होता है। लिखे जाने के पीछे सर्जक का मनोयोग भी काम करता है। सतीश कौशिक हमारे सिनेमा का एक बड़ा और प्रतिष्ठित नाम है जो प्रत्‍यक्ष में अभिनेता और निर्देशक के रूप में तथा नेपथ्‍य में लेखक और पटकथाकार के रूप में चार दशकों से सक्रिय है। कागज उनकी नयी फिल्‍म का नाम है जो गुरुवार को उत्‍तरप्रदेश के कुछ सिनेमाघरों के साथ ही जी5 पर भी रिलीज हुई है। सतीश कौशिक ने इस फिल्‍म को लेकर पिछले कुछ समय से जो वातावरण बनाया था, फिल्‍म देखकर उनका यह एक सार्थक सिनेमाई उपक्रम प्रतीत होता है। कागज, सचमुच सेल्‍युलायड पर एक मार्मिक यथार्थ ही है।

अपने से छले जाने के किस्‍से हजार हैं। हमारी परम्‍परा में ऐसी कथाऍं मौजूद हैं जो ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। कागज का नायक भरत लाल भी अपने नाते-रिश्‍तेदारों के छल और षडयंत्र का शिकार है। छोटी सी जगह में, छोटी सी दुकान में चार सहायकों के साथ बैण्‍ड मास्‍टर बनकर जीवन यापन कर रहे भरत लाल की जिन्‍दगी में तब व्‍यवधान आ जाता है जब बैंक से कर्ज लेने के लिए बतौर जमानत वह अपने बाप-दादों के उसके हिस्‍से में आयी जमीन का हक प्राप्‍त करने अपने चाचा और उसके परिवार के पास जाता है। भरत लाल के हिस्‍से की जमीन उसको मृत बतलाकर अपने दो बेटों में बॉंट देने वाला चाचा और उसका परिवार धूर्त है जो यह करके भी निर्लज्‍ज हैं।

नतीजा यह कि अपना हक मांगने गया भरत लाल किसी तरह अपने प्राण बचाकर भागता है। लेकिन लौटकर वह लड़ने का प्रण करता है। फिल्‍म इसी लड़ाई को दिखाती है। कोर्ट-कचहरी, वकील, बाबू, तंत्र, व्‍यवस्‍था, पुलिस और राजनीति सभी के निर्मम अनुभवों से गुजरता भरत लाल शनै शनै अपनी लड़ाई को बड़ा करता है मगर बहुत ही धीरज और समझदारी के साथ। वह अपने को जीवित साबित करने के लिए जज तक का अपमान कर देता है लेकिन जज भी उसको दण्डित नहीं करते क्‍योंकि वह कागज पर जीवित सिद्ध हो जायेगा। भरत लाल की लड़ाई दूर तक जाती है और अन्‍तत: उसके पक्ष में परिणाम भी लाती है।

फिल्मकार सतीश कौशिक ने इस फिल्‍म को दस साल खदकने दिया है और इससे उद्वेलित होते रहे हैं। वे बतलाते हैं कि किस तरह अखबार में पढ़ी एक छोटी सी घटना ने मुझे उस पर फिल्‍म बनाने की सीमा तक उद्विग्‍न किया जिसका परिणाम यह कागज के रूप में आपके सामने है। एक सिनेमा का बनना जितना महत्‍वपूर्ण है उसका दर्शकों तक आ जाना उतना ही महत्‍वपूर्ण। यहॉं पर सलमान खान ने कागज को प्रदर्शन के संजोग तक पहुँचाकर एक बड़ा काम किया है क्‍योंकि साल की शुरूआत में दर्शकों को सम्‍भवत: पहली सार्थक और उद्देश्‍यपूर्ण फिल्‍म देखने को मिल रही है। फिल्‍म के आरम्‍भ और अन्‍त में उन्‍होंने एक सुन्‍दर नज्‍म भी पढ़ी है।


पंकज त्रिपाठी इस फिल्‍म के नायक हैं। बीते साल कोविड और उससे प्रभावित सिनेमा इण्‍डस्‍ट्री में फिल्‍म और वेबसीरीज के रूप में दर्शकों के सामने जो कुछ भी आया उसके सरताज पंकज ही है। इस समृद्ध सितारा स्‍टेटस को पंकज खूब एन्‍जॉय भी कर रहे हैं। भरत लाल का किरदार करते हुए उन्‍होंने अपने आपको क्षमतावान प्रखर अभिव्‍यक्ति में उन्‍नीस रखकर काम किया है जो उनकी खूबी है। वे इसमें नायक नहीं लगते बल्कि किरदार पूरे लगते हैं। लज्जित होते, अपमानित होते, मार खाते और बहुत हारने तथा बेबस हो जाने के बाद भी अगला दॉंव चलने में देर नहीं करने वाले भरत लाल को पंकज में देखना बहुत दिलचस्‍प भी है। उनकी पत्‍नी की भूमिका दक्षिण की एक प्रतिभावान अभिनेत्री मोनल गज्‍जर ने निभायी है। अपने पति की लड़ाई को वो एक बड़ा समर्थन और सम्‍बल दे रही है। वकील केवट के रूप में स्‍वयं सतीश कौशिक हैं। वे यह रोल पहले नहीं कर रहे थे, कोई दूसरा कर रहा था लेकिन उन्‍होंने अपने होते हुए फिल्‍म को नैरेट भी किया है और एक तनावग्रस्‍त आभास कराने वाले विषय को सहज भी बनाये रखा है। फिल्‍म की लोकेशन बहुत वास्‍तविक हैं। आंचलिकता, कस्‍बाई जीवन और उस पूरे वातावरण की दुनिया आकृष्‍ट करती है। अभिनेत्री मीता वशिष्‍ठ ने एक प्रभावी निर्दलीय विधायक के रूप में एक ऐसे जन प्रतिनिधि को सार्थक किया है जो कभी-कभी घटनाक्रमों को मानवीय संवेदना के चश्‍मे से भी देखती हैं। अमर उपाध्‍याय अरसे बाद बड़े परदे पर हैं मगर अभिनय से वे अपने कोमल चेहरे के विरुद्ध नहीं जा पाते।

सतीश कौशिक ने लेखक और निर्देशक के रूप में लगभग पौने दो घण्‍टे की इस फिल्‍म में छोटे छोटे मन को छू जाने वाले गाने भी रखे हैं जो फिल्‍म का हिस्‍सा ही लगते हैं और स्‍थूल जगहों को भरते हैं। कुल मिलाकर कागज इस समय एक देखने वाली फिल्‍म है, खासकर ऐसे समय में जब कुछ समय से फिल्‍म और वेबसीरीज में गाली और गन्‍दगी का एक साथ संक्रमण फैला है। इस फिल्‍म की भाषा और संवाद बहुत मर्यादित हैं। सतीश कौशिक ने इस दृष्टि से एक मन को छू जाने वाली और बड़े दिन याद रहने वाली फिल्‍म बनायी है।

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1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सार्थक और रोचक समीक्षा की, जो दर्शक वर्ग को देखने के समय महसूस होता है और पाठक को समीक्षा पढ़कर फ़िल्म देखने की ईच्छा जगाती हैं। एक दम निष्पक्ष और बिना किसी लग लपेट के अपनी बात कही है। दरअसल आपके बारे में सिनेमा से संवाद पुस्तक के भूमिका को पढ़कर जाना और उसके बाद खोजबीन की तो यहां जाकर अपनी बात आप तक पहुंचायी। सर, आपकी सिनेमा पर किताब ढूंढना चाह रहा हूं, मनमोहन सर के जैसा ही, मैं सिनेमा की बारीकियों और हर विधा को पूरी मौलिकता और गहराई के साथ जाना चाहता हूं, जिसका एक विषय फिल्म समीक्षा भी है, जिसमें आप राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी हुए हैं। अगर ऐसा कुछ लिखित है तो मुझे बताए।
    पाठक
    विकास कुमार, शोधार्थी
    rahivikas1556@gmail.com

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