बुधवार, 9 दिसंबर 2015

दस

हाशिए हमेशा खाली मिलते हैं। ऐसा लगता है कि सदियों से कोई हाशियों से होकर जाता ही नहीं। उनका इतना उज्‍जवल सा, साफ-सुथरा पथ चकित करता है। पथ की अपनी स्‍वच्‍छता का सिद्धान्‍त है। मनुष्‍य पथगामी है। जो नहीं चलता वो ठहरा हुआ होता है। ठहरे हुए का समय अपनी तरह से आकलन करता है। ठहरे हुए का लोग भी आकलन करते हैं। ठहरे हुए का समाज नहीं होता। उसके आसपास चहल-पहल होते हुए भी एक अलग तरह का एकान्‍त हुआ करता है। वह अपने आसपास की सारी चहल-पहल में भी परायापन महसूस कर सकता है। वह चहल-पहल अपरिचितों की है। कोई उसको पहचान नहीं रहा है जबकि वह प्रत्‍येक में पहचाना जाना चाहता है। ऐसे में उसकी उपस्थिति साफ-सुथरे हाशिए में ऐसे एकाकी की है जो देर तक स्थिर नहीं रह सकता। अपनी बेचैनी बढ़ने से पहले उसे हाशिए के बाहर आना होगा। यह जीते हुए, अपने जिए बने रहने के लिए आवश्‍यक है। हाशिए दूर से खाली मैदान की तरह दीखते हैं पर निश्‍चय ही यह खुला मैदान नहीं होते। खुला मैदान, हाशिए के बाहर होता है। 

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