शनिवार, 12 दिसंबर 2015

ग्यारह


13 दिसम्बर कई तरह से स्मृतियों को झकझोरने वाली तारीख बन गयी है। इस तारीख में अपने जन्म के साल दर साल सुखद एहसासों पर पिछले ही साल पहला आघात अपने गुरु श्रीराम ताम्रकर का जाना था। श्रीराम ताम्रकर भारतीय सिनेमा ज्ञान के एक गहरे हस्ताक्षर थे। लगभग सत्तर वर्ष के होते आये थे, पिछले ही साल हृदय की शल्यक्रिया करानी पड़ी थी उन्हें पर बावजूद सफल होने के, अत्यन्त संवेदनशील मन के ताम्रकर जी जिन्हें सारा जीवन सुई भी न लगवानी पड़ी हो, ऐसे विच्छेदन से गहरे टूट गये। नहीं रहने के दो महीने पहले ही अपने जीवन का बड़ा काम, बड़ी आकांक्षा उन्होंने पूरी की, हिन्दी में सिनेमा का एनसायक्लोपीडिया तैयार करके जिसे प्रकाशित होना है, प्रकाशित होते वे देख नहीं पाये। कुछ माह पहले ही अपनी माँ के सदैव के लिए छोड़कर चले जाने का दूसरा आघात भी उतना ही असहनीय रहा है मेरे लिए। बेटे का जन्मदिन माँ के लिए त्यौहार होता है। कभी कल्पना भी न की थी कि यह दिन माँ के बिना भी एक दिन आना शुरू होगा। याद पड़ता है, शायद पाँचवीं-छठवीं कक्षा में पढ़ा करता था। उस साल जो 13 दिसम्बर आया तो स्कूल जाने से पहले माँ ने टीका लगाया, गुलगुले (गुड़ के गुलगुले जन्मदिन में बनने की परम्परा है हमारे यहाँ) खिलाये। मैं उसके बाद स्कूल पहुँचा। कक्षा में साथी मुझे टीका लगाये देख जोर-जोर से हँसने लगे। शरमाकर मैंने हाथ से वह टीका पोंछ डाला। बाद में जब माँ ने देखा तो गुस्से से पूछा, क्यों टीका क्यों मिटा दिया? मैं कुछ जवाब न दे पाया। तब रुआँसी होकर बोली ताजा टीका नहीं मिटाते। देख लेना, जब हम न होंगे तब रोओगे...........आज वह बहुत याद आ रहा है। माँ देखने वाली नहीं है, कितना रोता हूँ, कब, कहाँ, कैसे और किस तरह रोता हूँ। वह भूल फिर कभी नहीं की पर वह बात भी नहीं भूल पाया। जन्म की तारीख वही रहेगी, हर साल यह दिन आयेगा लेकिन न ताम्रकर जी का इस दिन जाना भूल सकूँगा और न ही माँ का न होना..............

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