शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

।। बाबा के झोले में बच्चे.......... ।।

अक्सर इस बात से मैं रोमांचित होता रहा हूँ बचपन से जरा डरपोक किस्म का था भी, घर के सामने भिक्षा मांगने वाले ऐसे बाबा आते थे जिनको देखकर डर लगता था। छुटपन में बाहर सीढ़ियों में बैठा रहता था तो भीतर भाग जाता था। पलंग के नीचे छुपकर लगता था कि बच गये। मुहल्ले के बड़े भाई, पास-पड़ोस के लोग डराया भी करते थे कि बाबा के झोले में बच्चे पड़े रहते हैं। वो बच्चों को पकड़कर ले जाया करते हैं। बाबा के कंधे पर बड़ा सा बोरेनुमा झोला होता था जिसमें वे आटा वगैरह इकट्ठा किया करते थे।
बाबा तरह-तरह के आया करते थे। बाबा होगा तो दाढ़ी होगी ही, बड़े से बाल होंगे ही, मूँछ होगी ही। बोरा, हाथ में लाठी भी। कुछ बाबा ऐसे होते थे जो शारीरिक व्याधियों के कारण अपनी चाल-ढाल से भी डराते थे। कुछ बाबाओं का दरवाजे पर शंख बजाना ही पेशाब छुटा देता था लेकिन फिर भी उनको छुपकर देखने का अपना आकर्षण भी होता था। जब तक बाबा दूर के घरों में मांग रहा होता, अपन सीढ़ियों पर बैठे होते, जैसे ही अपने घर की तरफ आता तो भाग जाते। मम्मी हमारी छाती पर हाथ रखकर कहतीं, कैसा धड़-धड़ कर रहा है। फिर यह भी कहतीं, कैसा सिंघ की कोख में सियार पइदा भा.........
आज सुबह ऐसे पाँच-छः बाबाओं का समूह मुहल्ले में आया तो उनकी बुलन्द आवाजों से कुत्ते भैरा गये, बच्चे भागने लगे। मुझे बचपन का स्मरण पल भर में हो आया और अपने आप में हँसी आ गयी, मम्मी का गुस्से वाला डायलॉग भी। मैं बाहर खड़ा अलग-अलग घरों में खड़े उन बाबाओं को देखने लगा। यकायक अपनी स्मृतियों और बाबागणों के मनोविज्ञान पर सोचने लगा। सभी बाबा प्रौढ़ उम्र के थे औसतन, बड़े-बड़े शंख हाथ में लिए, बेहद बुलन्द आवाज में मांग करते हुए, बड़े-बड़े धुले स्वच्छ सफेद से शंख और उसकी आवाज।
हँसी आयी कि बच्चे आज भी बाबाओं के झोले में अपनी तरह के शरारत करने वाले या माता-पिता की नहीं सुनने वाले बच्चों को कैद सोचा करते होंगे और उसी भय में अपनी जिद थोड़ी कम किया करते होंगे, चार बातें भी मान जाया करते होंगे।
बाबाओं और बच्चों का यह रिश्ता कितना रोचक और हर पीढ़ी की स्मृतियों से भरा है, है न.......................!

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