मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

75 के अमिताभ बच्चन

दूसरी सदी भी उनके होने के सार्थक अर्थ से खचाखच भरी है



अपने चाहने वालों के चेहरे पर अपना आभामण्डल देखकर वे संकोच और उपकृत भाव से लगभग अव्यक्त से हो जाया करते हैं। ऐसे किसी व्यक्ति से जिसके प्रति उसके अपार चाहने वालों का गहरी आसक्ति वाला भाव हो, उसके एवज की प्रतिक्रिया प्राप्त कर पाना कठिन होता है। हमेशा एक तरह की असहजता महसूस होती है, ऐसा लगता है कि यह ऐसा ज्वार है जिसकी न तो थाह पायी जा सकती है और न ही वेग का अन्दाजा ही लगाया जा सकता है। 

शब्दों की यह बुनावट दो सदियों के महानायक पर बात करते हुए करनी पड़ रही है। स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तित्व की बात की जा रही है जो अपनी पहचान के आयाम में एकदम अजेय है। लगभग आधी सदी बराबर संघर्ष, श्रम-परिश्रम, स्वप्न, दृष्टि और दृष्टिकोण, तमाम उतार-चढ़ाव, घटना-दुर्घटनाएँ, हारी-बीमारी, आरोप-प्रत्यारोप और प्रशंसा-आलोचनाएँ जैसे सब की सब बीज बोने, फलित होने और वट वृक्ष बनने के अनेकानेक जतनों के हिसाब हैं, उपकरण हैं, औजार हैं। इन सब परिधियों के केन्द्र में एक ही व्यक्ति है जिसे आप सदी का महानायक कहते हैं, मुझे लगता है वे दो सदियों के महानायक हैं क्योंकि दूसरी सदी के इन दो दशकों में वे स्वयं यश और उत्कर्ष के उस अवस्था के साक्ष्य हैं जब प्रायः वानप्रस्थ की तैयारी होती है, आराम और अवकाश की कामना होती है, विश्राम का आकर्षण बंधता है। अमिताभ बच्चन ऐसे समय के आदर्श हैं तो यह माना जाना चाहिए कि यह दूसरी सदी भी उनके होने के सार्थक अर्थ से खचाखच भरी है। 

अभी अपने जन्मदिन के पाँच दिन पहले ही वे भोपाल आये थे। स्मरण हो, भोपाल उनका ससुराल है, जया जी का मायका। वे आये थे एक ज्वैलरी के शो रूम का उद्घाटन करने। देर रात मुम्बई जाकर उन्होंने ट्वीट किये तीन छायाचित्र, सुबह मुम्बई का, पूर्वान्ह में भोपाल का, दोपहर बाद लखनऊ का और बताया कि रात को फिर मुम्बई में आ गया हूँ। जहाज से ही सही, इतनी चहलकदमी पचहत्तर की उम्र में कमाल की है। प्रेरणा होती है जब पन्द्रह-बीस दिन पहले ही कौन बनेगा करोड़पति में वे लीवर को लेकर बात कर रहे होते हैं और बातों-बातों में बतलाते हैं कि उनका लीवर शायद बीस प्रतिशत ही काम कर रहा है! दुनिया में लोग बेवजह घुटन, कुण्ठा और संत्रास में अपनी बीमारियाँ चीन्हते, उसका बखान करते और उस पर दूसरों की हमदर्दी प्राप्त करने का प्रायः अजीब सा शगल पाले रहते हैं, ऐसा लगता है जैसे वे असाधारण दुख और मुसीबत से घिरे हुए हैं। दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन हैं, आठ आने भर यश और बारह आने भर उम्र के साथ आज भी चिंगारी का स्रोत बने हुए हैं।

अमिताभ बच्चन उच्चारण में एक नाम हैं, समय के साथ-साथ बहुत सी धारणाओं के बीच अवधारणाओं का लेकिन वह अपनी सक्रियता के माध्यम सिनेमा को अपने होने के अर्थ से बेतरह सशक्त बनाते हैं। किसी भी मनुष्य की तरह उनके साथ भी परिस्थितियों ने बिना किसी पक्षपात के परीक्षाओं में खड़ा किया है। वे चोट खाने से लेकर बीमारियों का शिकार होने, उससे बुरी तरह ग्रस्त रहने और बाद में उनसे निजात पाने या उनसे जूझते रहने में एक जीते हुए व्यक्तित्व की तरह हमारे बीच उपस्थित होते हैं। दिलचस्प यह है कि बीमारी भी उन्होंने शाही पायी और उसका मुकाबला भी भीतर की उस शक्ति से किया जिसकी अन्तर्मुखीयता को परिभाषित करना आसान नहीं है। गम्भीरता उनका जन्मजात गुण है, यह उनके स्वभाव का हिस्सा है। इसे वे अपने केन्द्र में दशमलव की तरह स्थापित किए रहकर दिलचस्प आयामों में आवाजाही करते हैं। स्वाभाविक रूप से यह उनकी प्रतिभा का हिस्सा रही है लेकिन इसने ही उनको लड़ने का माद्दा भी दिया है, जैसी कि उनकी एक फिल्म का नाम भी था, इन्द्रजीत बनाया है।

अमिताभ बच्चन पचहत्तर साल के हो रहे हैं। आज पूरे देश के अखबार उनकी महिमा, व्यक्तित्व और प्रभाव के साथ-साथ उनकी अनवरत यात्रा से भरे होंगे। हो सकता है आलेख से लेकर पेज और पेज से लेकर परिशिष्ट तक का अतिरेक दिखायी दे लेकिन अपने देश के इस अतिअभिव्यक्त स्नेह, प्यार और प्रतिक्रिया से अलग किसी दूसरे देश में अपना जन्मदिन मनाने की उनकी पहले की घोषित योजना थी सो वे गये ही होंगे। वे दरअसल उत्तेजना, अविवेक और संयमरहित प्यार की इस अभिव्यक्ति से पूरी तरह सन्तृप्त हो चुके हैं। अब जो वे पिछले दो-पाँच सालों से सिनेमा में अपने जीवन के उत्तरार्ध की सक्रियता में नजर आते हैं, एक अलग ही तरह का मानस लेकर वे काम कर रहे हैं। वे अपने प्रत्येक निर्देशक और उसकी दृष्टि की खूब प्रशंसा करते हैं। प्रत्येक साथी सहयोगी कलाकार के साथ वे निर्विकार भाव से समरस होते हैं। वे इस समय खूब सराहते हैं और अपने ही शब्दों में इस समय की उनकी व्यस्ततता, लगातार काम मिलना इन सबको लेकर सबके उपकृत भी होना व्यक्त करते हैं। यह पितामह की उम्र का एक अत्यन्त सुलझा हुआ दृष्टिकोण है जो चालीस, पचास या साठ साल के अमिताभ बच्चन की पहचान नहीं था। यह रंग अब का है, अब इसे देखना और भी महत्वपूर्ण लगता है।


अमिताभ बच्चन और 1969 में सात हिन्दुस्तानी का प्रदर्शित होना, कल ही की बात की तरह सोचकर देखा जाये तो कितना कौतुहलपूर्ण लगता है। आज जरा वक्त निकालकर ये और बाॅम्बे टू गोवा दोनों फिल्में देखी जायें और इसके बाद फिर सीधे दीवार को देखा जाये, पुनरावलोकन का शायद इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका न होगा। आप बीच में गहरी चाल को थोड़ी देर को भूल जाइये, बंधे हाथ को भूल जाइये, बेनाम को भूल जाइये, सीधे दीवार पर आइये, रोचक लगेगा, कैसे एक महानायक की यात्रा शुरू होती है। कैसे अमिताभ बच्चन अपनी अनगढ़ कायिक शख्सियत को किरदारों के अनुकूल बनाकर परदे के स्थपति होते चले जाते हैं! बड़ा अचरज तो लगता है लेकिन यह सब है बड़ा परिश्रम और पुरुषार्थ से भरा हुआ। 

हृषिकेश मुखर्जी, प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई जैसे फिल्मकार उनको अमर और स्मरणीय किरदारों में गढ़ते हैं। सलीम-जावेद जैसे लेखक उनके एक्शन कद को अपनी कलम से बढ़ाते चले जाते हैं। राखी, रेखा, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, वहीदा रहमान जैसी नायिकाएँ उनको अभिसार और अभिव्यक्ति के सलीके में व्यवहार के अनुकूल बनाती हैं। मेहमूद और किशोर कुमार जैसे सहृदय सान्निध्य उनको पंख फैलाने में मदद करते हैं। प्रोत्साहन और उपकार उनको सीढ़ियों पर दौड़ने के लिए शाबाश कहने को आतुर होता है। ऐसी और ऐसी कितनी ही शुभाकांक्षाओं की बयार लहरों में रास्ता बनाती आगे बढ़ती नाव सा बोध कराती है। स्थापित अमिताभ बच्चन कभी प्रेस मीडिया का बायकाॅट करते हैं तो कभी बीती ताहि बिसारि दे के पथ पर भी चलते हैं। वे अपने साथी कलाकारों की भूमिकाओं को कम, प्रभावहीन या निष्प्रभावी करने के आरोप पर भी अपने पक्ष में अव्यक्त होते हैं। शत्रुघ्न सिन्हा जैसे कलाकार खम्भ ठोंककर उनसे दो-दो बात करके सुर्खियों में इसी कारण लम्बे समय बने रहे। वे सिनेमा से टेलीविजन और टेलीविजन से विज्ञापन फिल्मों तक सबके हक मार लेने तक की भरपूर चुस्ती-फुर्ती और कमोवेश हर जगह मौजूद होने के तंज को भी उत्तर देने के योग्य नहीं समझते।

अमिताभ बच्चन की खूबियाँ बहुत सी हैं जो स्वाभाविक रूप से उनके पहले उनसे वरीय, उनके समकालीन और उनके बाद आये कलाकारों में भी नजर नहीं आतीं। दुर्घटना से लेकर बीमारी तक वे अनेक बार काल के गाल से लौटे हैं लेकिन उन्होंने अपने को स्थितियों के अनुकूल बनाने की एक अलग सी साधना की है और वह साधना इन्हीं तमाम सक्रियताओं से होती हुई आयी है जो कभी उनको भीतर से मजबूत करती है तो कभी ऊपर या बाहर से। अदम्य जिजीविषा अमिताभ बच्चन की वह पूँजी है जो समाप्त होना तो दूर, कम भी नहीं पड़ती। वे बहुत ऊँचाई पर हैं। अड़तालीस साल की लगातार सक्रियता को आप आधी शती बराबर सक्रियता ही मानिए, इतना कम नहीं होता। नाम लेकर उदाहरण देना सभ्यता नहीं है लेकिन सच्चाई है कि इतने साल, ऐसे वजूद के साथ कोई भी कलाकार सक्रिय नहीं रहा है। अपनी इस यश यात्रा में वे, टैगोर की उसी रचना की पंक्ति की तरह हैं जिसे कुछ समय पहले उन्होंने गाया था, एकला चलो.........!


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