सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

समग्रता में एक सशक्त वजूद होना चाहिए सेंसर बोर्ड


सेंसर बोर्ड का विवादास्पद अध्यक्ष बदल दिये गये हैं और प्रमुख रूप से गीतकार लेकिन पटकथा लेखन में भाग मिल्खा भाग जैसी श्रेष्ठ फिल्म देने वाले प्रसून जोशी को नया दायित्व दिया गया है जिसका औपचारिक तौर पर अच्छा स्वागत भी हुआ है। पहलाज निहलानी को यह पद धारण कराया जाना ही चर्चा का विषय बना था क्योंकि एक फिल्मकार के रूप में, निर्माता बनकर उन्होंने जो फिल्में बनायीं उन्हें दो दशक पहले ब श्रेणी की फिल्मों की मान्यता ही मिलती रही थी। वे सार्वजनिक रूप से ऐसी उपस्थिति भी कभी नहीं रहे जो उनको विचारवान या दृष्टिसम्पन्न साबित कर सके लेकिन सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष चुनते हुए सरकार को अपने ही बीच के शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी जैसे वरिष्ठ और अनुभवी कलाकारों से इतर पहलाज निहलानी तत्समय उपयुक्त लगे। 

पद सम्हालने के बाद जब निहलानी ने अपनी प्रतिभा का परिचय देना शुरू किया तो पता चला कि वे बोर्ड के सदस्यों के लिए भी अजीर्ण साबित हुए क्योंकि बोर्ड के सदस्यों में अनेक लोग ऐसे थे जिनकी दक्षता निहलानी से ज्यादा थी। ऐसे में असहमतियों और विरोधाभासों को उठने का मौका मिला। निहलानी की आपत्तियों और सिद्धान्तों का स्रोत क्या होता था यह तो पता नहीं लेकिन व्यवहारिकता और तार्किकता के धरातल पर सभी बुरी तरह मार खाती थीं। इसी कारण सेंसर बोर्ड का वजूद बन नहीं सका। सम्भवतः बहुत बाद में सदस्यों ने भी अध्यक्ष को उनके और उनकी समझदारी के हाल पर छोड़ दिया था जिससे बात और बिगड़ी जिसका परिणाम हाल में उनकी विदायी और प्रसून जोशी की स्थापना के रूप में हुआ है।

हिन्दी सिनेमा में प्रसून जोशी एक चहेती उपस्थिति हैं। उनके गीतों ने पिछले पाँच-सात सालों में बाजारजीवी हिन्दी सिनेमा को यथासम्भव थोड़ी-बहुत संवेदना और मनभावन रूमान लौटाने का काम किया है। अपने योगदान और दक्षता में प्रसून जोशी निर्विवाद हैं। उन्होंने निरन्तर अपनी एक स्तरीय धारा बनायी है जिसको सदैव दर्शकों का समर्थन भी मिलता रहा है। गुलजार और जावेद अख्तर के गीतों के सम्मोहन से सन्तृप्त हो चले भारतीय दर्शक समाज को प्रसून जोशी के बीच अनुभूतियों में नये मुहावरे और मन की छुअन के नये एहसास, नये स्पर्श कराते हैं। व्यक्तित्व के अनुरूप उनकी रचनाधर्मिता भी उतनी ही सौम्य है। उनको सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जाना अभी एक बेहतर सम्भावना, एक बेहतर उम्मीद कहा जा सकता है।

सेंसर बोर्ड का अस्तित्व हमारे संज्ञान में सदा से ही किसी न किसी कारण चर्चा में बना रहा है। हम सेंसर बोर्ड को सरकार का आबकारी विभाग तो नहीं मान सकते जहाँ शराब की बिक्री का राजस्व प्रमुख जरूरत है लेकिन शराब बन्दी और उसके साथ जुड़ा सामाजिक सुधार का मुद्दा भी दूसरा और आवश्यक पक्ष है। इसी तरह सिनेमा है। सिनेमा से सरकार को राजस्व प्राप्त होता है। सिनेमा का अस्तित्व बना रहना चाहिए लेकिन सिनेमा को अनुशासित किए जाने के लिए सेंसर बोर्ड का भी अस्तित्व बनाया गया है। सेंसर बोर्ड उसे अपने हस्तक्षेप या अनुमोदन से कैसे बैक्टीरियारहित कर पाता है, यह उसकी दक्षता पर निर्भर करता है। बच्चों के खेलों में साँप-सीढ़ी और लूडो के खेल का बोर्ड जैसे अलग-अलग ओर खुलता था वैसे ही शराब और सिनेमा के मसले भी हैं और दोनों ही ज्यादा संवेदनशील हैं क्योंकि एक का शारीरिक और दूसरे का मानसिक फैलाव यदि विकार या विकृति से भरा होगा तो दुर्घटनाएँ अधिक होंगी।

सिनेमा करोड़ों दर्शकों के स्वप्नों से आज भी जुड़ा है। आज भी सिनेमा देखने कोई अकेला नहीं जाता। देखा सिनेमा भले अकेले ही जाता हो लेकिन संगत हमको प्रिय लगती है, ऐसे या तो परिवार या मित्र साथ होते हैं। अगर सिनेमा देखना रचनात्मक कर्म माने तो इसके साथ सामूहिकता जुड़ी हुई है। हम यह भी जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की पसन्द भिन्न होती है, जो हमारे साथ है उसकी भी। ऐसे में यदि सिनेमा अच्छा नहीं हुआ तो उसका प्रभाव कैसा होगा? 

साहित्य और सिनेमा में दो बड़े सच्चे और आसान से फर्क हैं। उत्कृष्ट साहित्य पढ़ने के लिए आपको उस स्तर की योग्यता या दक्षता की जरूरत है मगर सिनेमा के बारे में ऐसा मापदण्ड नहीं है। सिनेमा का दर्शक सिनेमा देखने की योग्यता धारण करके नहीं जाता। सेंसर बोर्ड कोतवाल न बने मगर उसका अनुशासन सिनेमा में दिखायी देना चाहिए। लिपिस्टिक अण्डर माय बुर्का टाइप घटिया फिल्मों का अनेक आपत्तिजनक दृश्यों और संवादों के साथ सिनेमाघर तक पहुँच जाना वैसा ही है जैसे तमाम तरह के बल-वजूद धारण करने के बावजूद आपके हाथ से एक बुरी बीमारी फिसलकर लोगों तक पहुँच गयी। पिता वह नहीं है जो औलादों को गाली देता, मारपीट करता और पूरे मोहल्ले में शोर मचाता फिरे, पिता वह है जिसकी निगाह का डर हो और आदर भी। हमारे फिल्मकारों को खुद सेंसर बोर्ड की तरह होना चाहिए। कतिपय इस बोध से परे हैं कि एक फिल्मकार के रूप उनके उत्तरदायित्व हैं क्या? इतिहास गवाह है कि सुपरहिट और बाजार लूटने वाली फिल्में अश्लील या घटिया नहीं रही हैं। ख्वाजा अहमद अब्बास, व्ही. शान्ताराम, मेहबूब खान, बिमल राॅय, हृषिकेश मुखर्जी ने सिनेमा बनाने से पहले देश, समाज और अपने सृजन के प्रति, अपनी प्रतिबद्धता पहले तय की थी। 




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