शनिवार, 12 मई 2018

फिल्म चर्चा/ एक सौ दो नाॅट आउट

मृत्यु भी परियों सी होनी चाहिए


एक सौ दो नाॅट आउट, उमेश शुक्ला निर्देशित फिल्म है जिन्होंने अक्षय कुमार के साथ एक व्यंग्यप्रधान सफल फिल्म ओह माय गाॅड बनायी थी। एक सौ दो नाॅट आउट, सौम्या जोशी के लिखे सफल गुजराती नाटक का फिल्मांकन है। उमेश ने दो बड़े सितारों अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के साथ यह प्रयोग किया है जो काफी हद तक मौलिक और देर से पकड़ में आने के बावजूद उत्तरार्ध में प्रशंसनीय हो जाता है। हालाँकि समग्रता में फिल्म को देखा जाये तो इसके अच्छे लगने में प्रमुख रूप से फिल्म के संवाद, अनेक मर्मस्पर्शी दृश्यबन्ध, लक्ष्मण उतेकर का विवरणों तक पहुँच करने वाला छायांकन, बुधादित्य बैनर्जी का सम्पादन अपना योगदान रखते हैं।

अब तक कहानी खूब आम हो चुकी है, पिता एक सौ दो साल के हैं, ठीक-ठाक, पूरी चेतना और उस पूरी स्थूलता से परे जो हम साठ बरस की उम्र में अपने आसपास देखते हैं। बेटा साठोत्तरी है, जैसे अमिताभ बच्चन का व्यक्तित्व है, वे और जैसा ऋषि कपूर का व्यक्तित्व है, वे फिल्म में भी वैसी ही स्फूर्तता और स्थूलता को जीते हुए दिखायी देते हैं। कहानी इतनी सी है कि वयोवृद्ध पिता को बूढ़े होते अपने बैठे का हताश और रुग्ण होना नहीं सुहाता है, वह खासकर अपने पोते से अपने बेटे के रिश्ते और उसमें जमे स्वार्थ का जवाब देना चाहता है। पोता विदेश में रहता है, स्वार्थी, लोभी और मोहरहित है लेकिन वयोवृद्ध पिता अपने बूढ़े बेटे को बहुत चाहता है। पिता-पुत्र के दो स्तरों पर द्वन्द्व हैं लेकिन अमिताभ बच्चन अपने पूरे किरदार को अपनी दक्षताओं से ऋषि कपूर पर इस तरह अधिरोपित कर दिया है कि एक तरह से यह उनकी फिल्म बन गयी है। ऋषि कपूर का व्यक्तित्व और लिखा गया चरित्र दोनों बच्चन साहब से कमतर पड़ते हैं लेकिन फिल्म के अन्त में जिस तरह से हम एयरपोर्ट पर उनका बेटे के साथ संवाद देखते हैं, एक तरह से वे एक बड़ी रेंज लेकर इसमें प्रस्तुत होते हैं।

औलादों का अपने अविभावकों के साथ सलूक, इस पर समय-समय पर अनेक फिल्में बनी हैं। अवतार से लेकर बागबान तक। एक सौ दो नाॅट आउट तक आते-आते बेटे विदेशी नागरिकता लेकर वहाँ नौकरी या व्यावसाय करने लगे हैं। वे जड़ों में सिमट और संकीर्ण हो गये हैं लेकिन भ्रम की अमर बेल उनको एक अलग फंतासी में लिए जा रही है। सम्पत्ति छुड़ाकर सम्बन्धों को समाप्त कर लेने का यह निर्मम दस्तूर भयानक है, जिसकी ओर निर्देशक का इशारा है।

एक सौ दो नाॅट आउट लगभग पौने दो घण्टे की फिल्म है लेकिन मध्यान्तर तक यह फिल्म बिना सशक्त पटकथा के ही चलती है जो बिखरी-बिखरी लगती है। ऐसा लगता है कि स्वयं फिल्म के दो चरित्र, कलाकार इस बात से वाकिफ हैं लेकिन अपनी क्षमताओं के साथ वे मोर्चा मध्यान्तर के बाद ही सम्हालते हैं। आखिरी आखिरी में फिल्म जज्बाती होती है, तब हमारे सामने अचूक कैमरावर्क कुछ खूबियों के साथ हमें फिल्म से जोड़ता है, जैसे बेटे के कमरे में पिता का जाना, बरनी से कंचों का जमीन पर गिरना, गुल्लक हो हिलाकर उसमें भरे सिक्कों की ध्वनि से जुड़ना, बाहर बरसते पानी के दृश्य, कांच से बाहर बहता पानी और भीतर वयोवृद्ध पिता का अपने बेटे को, अल्जाइमर की शिकार होकर तिल तिल करती अपनी बहू की वेदना का याद दिलाना, कमाल का है, सब का सब मन पी जाता है वैसे ही जैसे दरवाजे में लगे कांच पर पानी।

यह सधे हुए, अनुभवी और अनेक बार अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने वाले कलाकारों की फिल्म है। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर अमर अकबर अंथनी, नसीब, अजूबा आदि फिल्मों में साथ आ चुके हैं। लगभग सत्ताइस साल बाद दोबारा दोनों ने साथ कैमरे का सामना किया। शीर्षक से लेकर चरित्र तक अमिताभ बच्चन ने अपना जोर लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मृत्यु के बारे में उनका कथ्य कि मौत भी परियों की तरह आनी चाहिए, संध्याकाल के मानस की एक बहुत संवेदनशील आकांक्षा होती है। ऋषि अपने चरित्र के हिसाब से बेहतर काम करते हैं, पिता के द्वारा ट्यूमर बताये जाने पर चेहरे पर आयी प्रतिक्रिया बहुत गहरी है। फिल्म का अन्तिम दृश्य यादगार है जहाँ वे धीरू का चरित्र निबाह रहे जिमित त्रिवेदी के साथ समुद्र के पास बैठे टेप रेकाॅर्डर में पिता की आवाज सुनते हुए आकाश में देखते हैं और बादल के एक बड़े से टुकड़े पर सजल नयनों से एकाग्र होते हैं। हाँ, अपनी भूमिका जिमित ने भी बखूबी निभायी है। मध्यान्तरपूर्व दस-पन्द्रह मिनट का सम्पादन मांगती यह फिल्म लोगों को फिर भी स्टार कास्ट, निर्देशक की साख और प्रचार-प्रसार से आकृष्ट कर रही है, यह भी कम बड़ी बात नहीं है।

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