गुरुवार, 17 मई 2018

फिल्‍म चर्चा : राजी

प्रतिबद्धता और सम्‍बन्‍धों की संवेदना पर महिला फिल्‍मकार की दृष्टि  


राजी देखने के पीछे एक कारण तो यही था कि फिल्म की चर्चा है और दर्शक भी। एक कारण यह था कि गुलजार साहब के गीत बड़े दिन बाद सुनने को मिलेंगे। तीसरा कारण यह भी था कि फिलहाल और तलवार के बाद मेघना गुलजार की इस माध्यम में एक निर्देशक की तरह पकड़ कैसी है, किस तरह भिन्न है या पिता का कितना-कैसा प्रभाव है!

सभी कारणों का कुछ-कुछ समाधान मिलता है। फिल्म देखते हुए न जाने क्यों गुलजार साहब की माचिस का स्मरण हो आता है। बहरहाल राजी की खूबियों पर केन्द्रित करें तो बात आलिया भट्ट से ही शुरू करनी होगी। इस दौर की यह बहुत प्रतिभाशाली लड़की है। अपनी कद-काठी से बहुत छोटी लगती है उम्र में लेकिन उतनी ही परिपक्वता के साथ दृश्य में होती है, उतने ही आत्मविश्वास के साथ अपना चरित्र कहती है जो वह परदे पर निबाह रही होती है।

यह एक कालखण्ड विशेष की फिल्म है जो हरिन्दर सिक्का के उपन्यास काॅलिंग सहमत का फिल्म रूपान्तर है। इसमें मेघना के साथ भवानी अय्यर ने संवादों और पटकथा पर काफी ध्यान दिया है और परिश्रम किया है। मूल में देशभक्ति है, अपने-अपने देश के प्रति लेकिन दोनों ही देशों के प्रतिनिधि दो मित्र किस तरह एक-दूसरे के देश के पक्ष में नहीं है, इस यथार्थ के परिवेश में फिल्म शुरू होती है। दुश्मन देश की तैयारियों, उसकी नीयत और उसके दिखावे के बीच सच की पड़ताल का काम सोचे-समझे ढंग से, बहुत कुछ जोखिम उठाकर, बहुत कुछ दांव पर लगाकर देशप्रेम के सबसे बड़े जज्बे की रक्षा में विफलता सबसे बड़ा जोखिम है जिसमें अकेले पड़ जाने से लेकर जान गंवाने तक की स्थितियां हैं वहीं सफलता हासिल होने पर किए गये बलिदान और बाहरी-भीतरी पराजय के साथ, अपने जमीर के साथ किसी भी तर्क में बिना पड़े हार जाना भी एक पक्ष है सबसे बड़ा। राजी और उसकी नायिका इसी जद्दोजहद का शिकार होती है।

राजी फिल्म का दर्शकों तक ठीक तरह से पहुंचना या दर्शकों का सिनेमाघर चलकर आना, उसकी खूबियों के कारण है जिनमें से कुछेक बड़ी महत्वपूर्ण हैं। खास बात तो यही है कि बनाने से पहले पटकथा और संवाद के स्तर पर उसकी बेहतरीन तैयारी नजर आती है। दूसरी बात दृश्यों की है जो आपको बांधते हैं, हालांकि खुफिया ढंग से अपने उद्देश्य को अंजाम देने का कार्य उसी तरह का है जैसे 1970-71 में तथाकथित जासूसी फिल्में बना करती थीं लेकिन कैसे एक किरदार अपनी उपस्थिति से उस कार्य को चतुराईपूर्वक अंजाम देता है, यह दिलचस्प ढंग से व्यक्त किया गया है। आलिया अपनी पिछली फिल्मों के तजुर्बों और परिश्रम से अच्छी पारंगत होकर इस फिल्म का चरित्र बनती हैं। सम्बन्धों में बंध जाने के बाद निष्ठा और लक्ष्य दोनों में कितने समझौते हैं, यह देखकर अचम्भा होता है। आलिया सब जगह परिपक्वता का परिचय देती हैं।

फिल्म के सहयोगी कलाकारों में बड़े दिनों बाद परदे पर नजर आये जयदीप अहलावत की भूमिका पूरे आकार की है और वे खुफिया अधिकारी के रूप में प्रभावित भी करते हैं। दो अच्छे कलाकारों आरिफ जकारिया और रजित कपूर की भूमिका बहुत छोटी है। इसके विपरीत पाकिस्तानी सेना के अधिकारी के रूप में शिशिर शर्मा ने अपने आपको प्रभावी ढंग से स्थापित किया। राजी की मां की भूमिका सोनी राजदान को मिली है, वे थकी थकी सी लगती हैं और प्रभावहीन भी। कुछेक दृश्य बड़े महत्वपूर्ण हैं जैसे भारत और पाकिस्तान की सीमा में एक गाड़ी से उतरकर दूसरी गाड़ी में बैठना और चेहरे पर अलग-अलग देशों में उपस्थिति के मनोविज्ञान को चेहरे पर लाना, आलिया भट्ट के आरम्भ में मुस्कराने का दृश्य जिसमें उनके गाल खींचे जाते हैं और वे अपनी मुस्कान को वहीं स्थिर कर लेती हैं। इसके अलावा गुप्त रूप से सारी कार्रवाई को अंजाम देने वाले दृश्य जो परिस्थिति के अनुरूप भय पैदा करते हैं। शादी की रात राजी के पति का अलग सोने का फैसला और उसके पीछे के तर्क, नायिका की भारतीय शास्त्रीय संगीत की पसन्दगी पर पति का उस तरह के रेकाॅर्ड्स लाकर भेंट करना, राजी की असलियत सामने आने पर पति का अन्तरंगता और निजता को लेकर संवेदनशील प्रश्न बहुत अहम हैं।

मेघना गुलजार ने पिता गुलजार की रचनाओं, गीतों का बहुत अच्छा प्रयोग किया है। शंकर एहसान लाॅय का संगीत वास्तव में इन रचनाओं के साथ गरिमापूर्ण सावधानी बरतता है और गरिमा के साथ बांधता है। जय आय पटेल की सिनेमेटोग्राफी फिल्म में नयनाभिराम दृश्यों और संवेदनशील दृश्यों को बखूबी बांधने का काम करती है। दूर के भूदृश्य, जाती हुई बस आदि देखना बहुत प्रभावी है। लम्बे समय बाद कंवलजीत सिंह को एक छोटी सी भूमिका करते देखना सुखद यो कि दीदार हुआ और तकलीफदेह इसलिए कि वे इन दिनों फिल्मों से दूर हैं। संजय सूरी भी एक निर्विकार उपस्थिति में जाया हुए हैं। 

संजीदा देखने वालों को इस बात का अचरज जरूर हुआ कि समुद्र में खड़े पानी के जहाज पर आर्मी के जवान और उनको सम्बोधित करता अधिकारी आर्मी से हैं जबकि सिचुएशन में वहां नेवी की उपस्थिति होनी चाहिए। हमारे निर्देशक और उनके सलाहकार ऐसी बारीकी से प्रायः वंचित रह जाते हैं जबकि अधिकतम काम सराहनीय है। 

मेघना, हमारे सिनेमा में अपने पिता की दक्षता और रचनात्मकता की एक महत्वपूर्ण प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित फिल्मकार हैं और उनका काम भी रेखांकित किए जाने योग्य है, अतएव राजी देखना चाहिए, मुझे लगता है।

हां, भोपाल के वरिष्ठ रंगकर्मी कलाकार मित्र बालेन्द्र सिंह ने आलिया के ड्रायवर की भूमिका की है और एक दृश्य में मनोज रावत पान वाले के किरदार में दीखते हैं। दोनों को शुभकामनाओं के साथ देखकर अच्छा तो लगा ही.........

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