शनिवार, 7 जुलाई 2018

तर्कसंगति में अप्रासंगिक किन्तु निर्देशकीय कौशल की सफल फिल्म

संजू



रविवार का दिन था। शहर के मॉल्स में इस फिल्म के टिकिट आसानी से नहीं मिल पा रहे थे। अच्छी खासी बुकिंग थी। फिल्म देखने दो लोग गये थे मगर दोनों सीट अलग-अलग थीं। मॉल्स में पार्किंग की भी जगह उपलब्ध नहीं थी, कार्य पर तैनात गार्ड दो-‘दो, तीन-तीन गाड़ियाँ छोड़ रहे थे। सिनेमाहॉल का आलम यह था कि लगभग दो घण्टे चालीस मिनट लम्बी फिल्म को दर्शक खासी चुप्पी के साथ देख रहे थे, न ताली, न सीटी न ही किसी किस्म का ओछा हल्ला-गुल्ला। यह क्या था, एकाग्रता या बंध कर रह जाने की विवशता जिसने और कुछ सूझने ही न दिया।

संजू फिल्म का अनुभव इसी तरह का है। साल भर पहले जब राजकुमार हीरानी भोपाल आये थे, पुरानी जेल को भीतर से देखने तब उनके साथ एक घण्टे रहने और अनौपचारिक बातचीत का अवसर मिला था। एक-एक करके तीन-चार सफल और कमाऊ के साथ-साथ प्रशंसनीय फिल्में बना चुका यह आदमी छरहरे बदन का, मुस्कुराहट स्थायी भाव और नपी-तुली बात करने वाला। बहरहाल जेल पसन्द आ गयी और फिल्म के उत्तरार्ध का एक बड़ा हिस्सा हीरानी ने यहाँ फिल्माया।

संजू यों हर आम दर्शक की जानी-समझी जाने वाली कहानी है या कह लीजिए, यथार्थ है। लगभग तीस साल तक सुर्खियों में रहने वाला घटनाक्रम और उसका यह एक प्रमुख पात्र। सिनेमा जैसी लाइम लाइट वाली विधा में अपने को आजमाने वाला और अपने समय के श्रेष्ठ नायक और नायिका का पुत्र। आरोपी से अपराधी और अपराधी से सजा काटकर अपने संसार में लौटने वाला शख्स जिसका मूड, अन्दाज और बरताव वही है जो पहले था, बाद में भी वैसा ही। भावनात्मकता, संवेदनशीलता, आवेग, उद्वेग यह सब मनुष्य स्वभाव की तरह ही आते-जाते। 

वह दृश्य दर्शकों के सामने एक नासमझ और अविवेकी युवा की छबि को सामने रखते हैं जो बिना कुछ हासिल किए अपने पिता की सराहना और तारीफ की कामना करता है, वह भी उस पिता से जिसका जीवन ही संघर्ष, त्याग और आदर्श स्थापित करने में बीता हो। चरित्र चित्रण में विभेद हैं। निर्देशक ने पटकथा लेखक से जस का तस लिखवाकर उसको दृश्यों में बाँट भी दिया है। खामियों को कीर्तिमान या शेखी की तरह प्रस्तुत करना निरी बेवकूफी है, पर यह समझ आये तो पटकथा का हिस्सा नहीं बनती। निर्देशक फिल्म बनाते हुए सावधान बहुत है, इसीलिए नायक के जीवन के उन औरों को नहीं छूता जो जोखिमपूर्ण हो सकते हैं। वह सुविधानुसार आधी हकीकत, आधा फसाना बना रहा है और उसकी छूट आरम्भ में ही लिए ले रहा है।


फिल्मकार का जोर इस बात में है कि वो विवादास्पद नायक की शख्सियत पर इतने वर्षों मेंं हुए तमाम आक्रमणों और अतिक्रमणों को छुटाता चले, आखिर वह कृतज्ञ है क्योंकि कैरियर की शुरूआत में इसी नायक के साथ दो फिल्में एक के बाद एक करते हुए वह प्रतिष्ठापित हुआ था। वह यहाँ पर उस महानायक के चरित्र को गढ़ते हुए भी लापरवाह है जो मुझे जीने दो, यादें, ये रास्ते हैं प्यार के, रेशमा और शेरा और दर्द का रिश्ता जैसी फिल्म बनाता है, वह जो देश की पदयात्रा करता है, वो जो निर्विवाद सांसद है, वो जो मुम्बई शहर का जिम्मेदार शेरिफ रहा है, वो जो देश पर आयी हर आपदा पर शहर में अपने साथी कलाकारों को लेकर धन संग्रह के लिए निकलता है, वो जो सीमा पर जाकर जवानों का मनोरंजन करता है, वो जिसका आदर हर विचारधारा का आदमी करता है। बावजूद इसके कि उसे इस बात का श्रेय भी है कि एक अरसे बाद वो ही उनको अपनी पहली फिल्म में जादू की झप्पी वाले प्यारे और दिलचस्प अन्दाज में लेकर आया था। निर्देशक इस चरित्र को ठीक से स्थापित नहीं करता। माना कि परेश रावल एक कलाकार के रूप में बहुत गुणी और प्रतिभासम्पन्न हैं लेकिन छः फीट एक इंच लगभग लम्बे और मध्यम स्वर की अत्यन्त स्वच्छ आवाज वाले सुनील दत्त को उच्च स्वर और अपेक्षाकृत छोटे कद के कारण बड़ी मेहनत के बावजूद साकार नहीं कर पाते। 

संजय दत्त के आरोपी बनने से लेकर सुनील दत्त की जिन्दगी तक लगभग पन्द्रह साल उनके जीवन की बड़ी वेदना और अशान्ति के रहे हैं, उसके बावजूद वे सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में सहज और व्यवहारकुशल बने रहे बिना धैय-धीरज खोये। यह पक्ष हीरानी ने इसलिए विस्मृत कर रखा होगा क्योंकि इससे उनके बाजार के समृद्ध होने की गुंजाइश नहीं थी। ऐसा ही कुछ नरगिस की भूमिका निबाहने वाली मनीषा कोइराला के साथ हुआ है। वे दृश्य में आती ही तब हैं जब बीमार हो चुकी होती हैं। उनका चरित्र भी एक नायाब अभिनेत्री और मदर इण्डिया जैसी सशक्त फिल्म से भारतीय सिनेमा में अपनी क्षमताओं का इतिहास लिखने वाली कलाकार के रूप में, विवाह के बाद सामाजिक जीवन और परिवार की जिम्मेदारी सम्हालने वाली पत्नी और माँ के रूप में उनकी पूर्वपीठिका रची ही नहीं गयी। परिवार के सामूहिक छायाचित्रों और स्वयं के एकल छायाचित्रों में मनीषा की छबि नरगिस की छबि के निकट पहुँचती है। 

यह एक संवेदनशील संयोग भी कैसा है कि अपने जीवन में मनीषा को भी ऐसी ही भयावह बीमारी का सामना करना पड़ा और वे उस बीमारी से जूझकर, जीतकर एक विजेता के रूप में दुनिया में स्वस्थ और सकुशल बनी हुई हैं, इसके बावजूद उनका चेहरा, उस पीड़ा और व्यथा का साक्ष्य नजदीक के दृश्यों में व्यक्त भी करता है। उनकी आँखों के पास सलवटें मार्मिक आभास कराती हैं। गाने वाले दृश्य में पहाड़ के ऊपर उनकी नृत्य मुद्रा बहुत ही भावपूर्ण और मनमोहक है और उन्होंने जितना किरदार उनका लिखा गया, उसको दोहरे वजन के साथ निभाया भी है।  

रणवीर कपूर को संजय दत्त होने में जितनी मेहनत करनी पड़ी, उससे अधिक उन्होंने युक्तियों का प्रयोग किया है। उन्होंने संजय दत्त की चाल की नकल की है, भँवें चढ़ाकर, आवाज़ में वो असर पैदा करते हैं और इतना ही वे कर भी सकते थे। पटकथा में महिमा मण्डन के लिए तमाम अतिरेक हैं, चालू दर्शकों को हँसाने के लिए सम्बन्धों की संख्या कोई शेखी बघारने जैसा काम नहीं करती बल्कि हतप्रभ करती है, खासकर हीरानी जैसे निर्देशक की फिल्म में। इसी तरह सहवास के चालू और घटिया अर्थ घपाघप का भी बार-बार और लगभग बेजा इस्तेमाल इस फिल्म को हल्का बनाता है। यह फिल्म अपने नायक को विवेकहीन अधिक साबित करती है जो आसानी से मादक पदार्थ तुरन्त बने मित्र से स्वीकार करता चला जाता है। दर्शकों के सामने यह फिल्म खुद अपने आपमें एक सवाल है कि इतनी भूलों और गिरते चले जाने की पराकाष्ठा को देखने और जानने के बाद आप किसी व्यक्ति के विषय में किस तरह सकारात्मक रह सकते हो? वह व्यक्ति जो मृत्युशैया पर पड़ी माँ के प्रति भी संवेदनशील नहीं है और एक आदर्श पिता के प्रति तमाम विद्रोही भाव रखता है। 

इस फिल्म में अनेक नायिकाएँ हैं, मनीषा कोइराला, दिया मिर्जा, सोनम कपूर, करिश्मा तन्ना आदि सभी की अपनी-अपनी तरह उपस्थिति है। मनीषा और दिया प्रमुखता से हैं जबकि सोनम और करिश्मा उपकृत नायिकाओं सी। सहायक कलाकारों में विकी कौशल, कमलेश की भूमिका में और जिम सरभ जुबिन मिस्त्री की भूमिका में सकारात्मक-नकारात्मक छबियों के उचित प्रभाव छोड़ते हैं। विकी कौशल के बारे में यह कहा जा सकता है कि इस फिल्‍म मेंं उनकी मेहनत उनको और अनेक अच्‍छी फिल्‍मों तक ले जायेगी। मेहमान उपस्थिति में महत्वहीन रहे पीयूष मिश्रा और तब्बू, अरशद, बोमन ईरानी और महेश मांजरेकर बस दृश्य भर के लेकिन अंजन श्रीवास्तव पाँच मिनट की अपनी भूमिका में दृश्य लूट ले जाते हैं। इसी प्रकार सयाजी शिन्दे ठेठ देसी अन्दाज में एक विवादास्पद अपराधी को बखूबी जीते हैं। इसी से यहाँ यह बात ध्यान में आती है कि कुछेक कलाकार प्रसिद्ध व्यक्तियों की बातचीत, चालढाल और अन्दाज की खूब नकल उतारते हैं, यह बात वे दर्शक समझेंगे जो उन मूल व्यक्तियों को अपनी देखी-सुनी स्मृतियों में रखते होंगे। 

कुल मिलाकर संजू इस वक्त की एक चर्चित फिल्म है जिसने इस समय खूब बाजार लूटा है, न केवल बाजार लूटा है बल्कि पिछली बड़ी चर्चित फिल्मों के धन संग्रह को भी चिढ़ाने और जीभ दिखाने का काम किया है। रणवीर कपूर पिछली कुछेक फ्लॉप फिल्मों से जिस तरह छिल गये थे, यह ठण्डा मलहम कही जा सकती है। राजकुमार हीरानी के खाते में एक और बाजार पर काबिज होने वाली फिल्म चढ़ गयी है जिससे वे अपने गुरु विधु विनोद चोपड़ा और मित्र संजय दत्त के प्रति अपने उपकृत होने का फर्ज अदा करेंगे लेकिन संजू फिल्म की अपनी प्रासंगिकता, किसी भी सिनेमा के बनने के अर्थ और महत्व की दृष्टि से अनेक खामियों और आलोचनाओं के कारण भी चर्चित बनी रहेगी जिसमें से एक सबसे मौजूँ तो यही लगता है कि राजकुमार हीरानी संजू की जगह सुनील बनाते, एक बड़े अभिनेता, निर्देशक, सार्वजनिक जीवन में आदर्श उपस्थित करने वाले एक कलाकार के जीवन और व्यक्तित्व को रेखांकित करते जो मदर इण्डिया का वो बिरजू है जिसके लिए उसकी माँ भगवान है, वही माँ जिसकी बन्दूक से वह मरता है और मरते समय उसके हाथ में माँ का कंगन है। ऐसे कलाकार, व्यक्तित्व के जीवन का एक संत्रासद पक्ष उसके बेटे का एक गुनाह में गहरे फँस जाना होता और उससे मुक्त होने की यात्रा जो अब सम्पन्न हो चुकी है।
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