शुक्रवार, 15 जून 2018

रजनीकान्‍त के राजनैतिक मन्‍तव्‍य अहम नेपथ्‍य

काला करिकलन

Kaala Karikaalan


ऐसा लगता है कि सलमान खान की महात्वाकांक्षी फिल्म रेस-3 के आ जाने से भी रजनीकान्त की पिछले सप्ताह प्रदर्शित फिल्म काला करिकलन की आय, सुर्खियों और चर्चाओं में कोई कमी नहीं आ पायेगी। तमिल, तेलुगु और हिन्दी तीन भाषाओं में यह फिल्म देश में आय के कीर्तिमान बना रही है। फिल्म के केन्द्र में महानायक रजनीकान्त हैं जिनकी सितारा छबि आरम्भ से अब तक निरन्तर निर्विवाद रही है दूसरे कुछ समय पहले बाकायदा राजनीति में आने की घोषणा करके उन्होंने अपना दल बना लिया है और उस नये आयाम में अपनी जड़ें सुनियोजित ढंग से जमा रहे हैं जहाँ उनके पूर्ववर्ती और दक्षिण भारत के कलाकार अन्ततः गये हैं और बारी-बारी से राज्य भी किया है। दक्षिण के कलाकारों में अब तक रजनीकान्त और कमल हसन ही राजनीति में आने से अपने आपको बचाये हुए थे तथापि उनकी राजनैतिक महात्वाकांक्षा अधिक समय तक ठहरी न रह सकी इसीलिए एक के पीछे एक आकर रजनीकान्त और कमल हसन दोनों ही राजनीति की आरामदेह लेकिन दूर से उतनी आसान न होकर भी अनन्य कारणों से खूब आकृष्ट करने वाली भव्य काल्पनिक कुर्सी पर आसीन होने के स्वप्न को सारी सक्रियता के साथ जी रहे हैं। 

रजनीकान्त पारिवारिक रूप से दक्ष और कुशल सन्तानों के पिता हैं और धनुष जैसे सुपर स्टार के ससुर भी लिहाजा जीवन के उत्तरार्ध में उनकी महात्वाकांक्षा वाला कैरियर सँवारने और बनाने में बेटी सौन्दर्या और दामाद धनुष की उत्साह से जुटे हैं और चूँकि सभी का क्षेत्र सिनेमा है और सिनेमा से ही रजनीकान्त को दक्षिण में असाधारण लोकप्रियता हासिल है, इस हद तक कि असंख्य दर्शक उनके लिए भावुक है, आगे के सारे स्वप्न भी सिनेमा के रस्ते ही साकार होंगे। काला करिकलन रजनीकान्त की इसी महात्वाकांक्षा का अपनी जनता के सामने लाया गया मन्तव्य है जिसको ध्यान से देखो, गहरे में जाओ तो आपको अपनी बहुत सी जिज्ञासाओं के हल मिलते चलेंगे और कुछ चीजें आप साफ-साफ पहचानेंगे भी। 


काला फिल्म को देखते हुए आपका ध्यान ऐसी किसी भी बॉलीवुड या मुम्बइया फिल्म से तुरन्त ही हट जाता है जो आपने पहले कभी देखी होंगी। इस बात को हमारे दर्शक भलीभाँति जानते हैं कि मुम्बइया सिनेमा की एक बड़ी निर्भरता लम्बे समय से दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग रही है। पचास के दशक से दक्षिण भारत से पारिवारिक सिनेमा अपनी सम्वेदनशील और भावनात्मक व्याख्या के साथ आया और उसने दर्शकों को प्रभावित किया। यह सिलसिला लगभग अस्सी के दशक तक चला है लेकिन बीच में अनेक व्यवधान भी आये जिनके कारण सामाजिक सरोकारों वाली फिल्म से हमारा दर्शक वर्ग वंचित भी रहा। अस्सी के दशक में दक्षिण से ही फूहड़ हास्य फिल्मों का जलवा स्थापित हुआ जो कुछ समय बरकरार रहा। उसी के समानान्तर तब अच्छी एक्शन फिल्मों के साथ रजनीकान्त, कमल हसन, मम्मूटी, मोहनलाल, विष्णुवर्धन, चिरंजीवी, नागार्जुन, व्यंकटेश जैसे नायकों को हमने देखा लेकिन दक्षिण और मुम्बइया सिनेमा के विरोधाभासों में इन नायकों को ज्यादा सम्भावना नहीं दिखी और वे अपनी भाषा की फिल्मों में ही कीर्तिमान रचते रहे। अभी पिछले एक दशक में फिर एक बार तेलुगु, तमिल, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा की सुपरहिट फिल्मों के अधिकार खरीदकर उनको हिन्दी में बनाने का काम चल निकला है जिसमें सबसे ज्यादा सलमान खान और उनके बाद अक्षय कुमार लाभान्वित हैं। ऐसे अवसरों के बीच भी रजनीकान्त काबाली, शिवाजी, एंदिरन, रॉवन, कोच्चादियाँ, लिंगा आदि से ठसक के साथ दक्षिणोत्तर भारत के सिनेमाघरों में आते हैं और कौतुहल जगाकर चले जाते हैं। 

यह अपने आपमें वाकई दिलचस्प है। यह रजनीकान्त के व्यक्तित्व और उनके साथ फिल्में बनाने वाले लोगों की दक्षता ही कही जायेगी कि वे सूत्र साधते हुए इस अनोखे महानायक के व्यक्तित्व का लगभग चमत्कारिक फैलाव बखूबी किया करते हैं। यह सब कम अचरज से भरी बातें नहीं हैं कि चेन्नई में रजनीकान्त की फिल्म देखने मुम्बई या अन्य शहरों से लोग जहाज का टिकिट खरीदकर जाया करते हैं। रजनीकान्त की फिल्म का प्रदर्शन अनेक दफ्तरों में अवकाश सा माहौल बना दे, यह सब वे बातें हैं जिनको समझे जाने की जरूरत है। दक्षिण के सितारों की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि असाधारण लोकप्रियता के बावजूद वे अपने चाहने वालों, दर्शकों और आमजन की कामनाओं से लेकर पहुँच तक बड़े सहज रहे हैं। नफरत और मोहब्बत के सिद्धान्त बहुधा एकतरफा काम नहीं करते। उसमें प्राण फूँकने का काम सितारा छबियाँ भी करती हैं। अमिताभ बच्चन का उदाहरण हमारे सामने है, एक समय था जब 11 अक्टूबर को प्रतीक्षा के सामने हजारों प्रतीक्षार्थियों को प्रायः हताशा हाथ लगा करती थी, मौके-बे-मौके लाठीचार्ज अलग लेकिन आज वही अमिताभ बच्चन ट्विटर से लेकर अपनी सक्रियता के हर माध्यम पर प्रायः रविवार शाम की वे फोटो प्रचारित-प्रसारित करते हैं जो उनके अब के रहने वाले जलसा घर के सामने उपस्थित भीड़ की होती है और वे सहर्ष उन सबका अभिवादन करना अपना सौभाग्य समझते हैं। समय ने अब उनको वह उदारता दी है जिसमें पहले हाथ तंग रहा है।


रजनीकान्त की नयी फिल्म काला करिकलन को देखना इन्हीं सारे सन्दर्भों, समय और समयातीत अनुभवों के साथ महसूस करना विलक्षण अनुभव है। हमारे सामने काला करिकलन के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व है जो एशिया की सबसे बड़ी बस्ती का अविभावक है, उसका सबके साथ अभय का रिश्ता है। वह पुत्र से लेकर पौत्र तक के कुटुम्ब का मुखिया है और सबके बीच रहता है। दिलचस्प यह है कि मोहल्ले के बच्चों के साथ बल्ला साधे बालसुलभ बेईमानी भी करता है, परिवार के छुटपुट झगड़े, नोंकझोंक भी निपटाता है, खुद भी अपने छोटी-मोटी खामियों वाले स्वभाव पर पत्नी से लेकर, बेटे, बहुओं और पोते-पोतियों की चुहल में सहज रहता है लेकिन किसी तरह उसकी सम्वेदना के बारीक तन्तु बस्ती के एक-एक घर तक गये हैं। वो हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई, दलित और विभिन्न किस्म की कठिनाइयों और मुसीबतों से जूझ रहते लोगों का मसीहा है। दुख, तकलीफ और व्यथा से उसके सामने बिलख उठते बुजुर्गों, स्त्रियों और बच्चों के आँसू उसके तवे से गरम तपते कलेजे पर छन्न से जाकर गिरते हैं। कैसे वो सबका रक्षक है? वह तमाम आकांक्षाओं से परे है और आज के समय में निरर्थक रूप से अर्जित करते की विषय-वासना से दूर है इसीलिए सन्तुष्ट है। वह अपने होने से घर को भी जोड़कर रखता है और अपनी बस्ती को भी। उसकी शत्रुता उस खलनायक से है जो उसके संसार को असहाय भविष्य में बदल देना चाहता है।    

एक महानायक को इस तरह प्रस्तुत करने की खूबी कमाल की है। पटकथा लेखक और निर्देशक ने यह काम बखूबी किया है। गरीबों और अभावग्रस्त लोगों के जीवन और उनकी दुख-तकलीफों को वर्षों से अपने में छुपाये धारावी बस्ती को जब-जब उसके विहंगम में देखा, सिने-छायांकन की दाद देने का जी हुआ। वास्तव में जी. मुरली वर्धन को इसका श्रेय जाता है। हवाई फिल्मांकन के दृश्य वास्तव में अद्भुत और साहस से भरे हैं। मध्यान्तर के पूर्व मुम्बई के पुल पर खासी बरसात के प्रयोग के साथ हिंसक मारधाड़ का दृश्य अद्भुत है जिसे दम साधे बैठे देखना पड़ता है। रजनीकान्त विजयी योद्धा की तरह अपराधियों को मारते-काटते चले जाते हैं। धारावी का सेट जो कला निर्देशक रामलिंगम का कमाल है, चुस्त सम्पादन जो ए. श्रीकर प्रसाद का कौशल है, फिल्म को बड़ी तवज्जो पर ले जाते हैं। फिल्म का पार्श्व संगीत सन्तोष नारायणन ने तैयार किया है। ये सारी खूबियाँ काला को उसके महानायक के राजनीतिक भविष्य के लिए बखूबी पेश करने में सफल हैं। नाना पाटेकर आसान कलाकार नहीं हैं, रजनीकान्त के सामने, अकेले और दूसरे दृश्यों में अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। उनकी यह भूमिका, विधु विनोद चोपड़ा की पुरानी फिल्म परिन्दा का विस्तार है और आज के समय में बुरे आदमी की बौद्धिकता और उसके इस्तेमाल को भी रेखांकित करती है। यह बहुत सारे अच्छे सहयोगी कलाकारों की भी फिल्म है जिसे दो घण्टे चालीस मिनट देखना असहनीय या बोझिल जरा भी नहीं लगता। आप इसे एक हिंसक फिल्म कह सकते हैं पर इसका प्रस्तुतिकरण कमाल का है जो खासा रोमांचकारी भी है। 

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