सोमवार, 18 मई 2020

अंधेरों की अभ्‍यस्‍त हो चुकी ऑंखों को फिर चकाचौंध में लेकर आने वाली फिल्‍म


नयी फिल्‍म/ कामयाब


कामयाब फिल्‍म देखना उस दर्शक के लिए महत्‍वपूर्ण है जिसे सिनेमा देखते हुए तीस-चालीस बरस हो गये हों, जो सिनेमा से लगाव रखता हो, जिसे सत्‍तर का दशक विशेषकर स्‍मरणीय हो। जो सत्‍तर के दशक के सिनेमा का दर्शक नहीं होगा वह इस फिल्‍म से शायद संवेदना के उस स्‍तर पर न जुड़ पाये, जिस स्‍तर पर जुड़कर देखने के ख्‍याल से हार्दिक मेहता ने यह फिल्‍म बनायी है। इस फिल्‍म को हार्दिक मेहता के साथ ही राधिका आनंद ने मिलकर लिखा है, संवाद भी हार्दिक ने ही लिखे हैं। निर्देशक ने पिछले चार-पॉंच सालों से एक अधेड़ उम्र अभिनेता संजय मिश्रा के चेहरे-मोहरे और दैहिक बनावट को देखकर अपनी इस कहानी को उन अनेक छोटे-छोटे कलाकारों की कहानी बना दिया है जो ताजिन्‍दगी छोटी छोटी भूमिकाऍं किया करते हैं, रोजी रोटी चलती रहती है, फुटकर स्‍कैण्‍डल भी, पार्टी और व्‍यसन का हर रात उपलब्‍ध एक कल्‍पनालोक जिससे बेसुध होकर लौटने पर सुबह बाहैसियत जाग्रत करती है, जगाती है।

कहानी है, एक एक्‍स्‍ट्रा कलाकार की जिसका साथ साथी, अकेले रह रहे अपने इस साथी के पास यदाकदा हालचाल पूछने और समय काटने चला आया करता है। शुरूआत एक अज्ञात चैनल की उत्‍साही रिपोर्टर और आलसी तथा झुंझलाये कैमरामेन और सहायकों के साथ होती है जो इस कलाकार का इण्‍टरव्‍यू लेने आये हैं। चकाचौंध की दुनिया अपने में जकड़े हर कलाकार को इतनी बुद्धि सबसे पहले दे दिया करती है कि हर समय खाली रहने वाला पूछपरख होने पर दुनियाभर का व्‍यस्‍त हो नखरे से भरा हो जाया करता है। यह सुधीर भी फिल्‍म पत्रकार से उसी तरह बात करता है। अन्‍तत: इण्‍टरव्‍यू तो नहीं होता लेकिन फिल्‍म एक सूत्र के साथ आगे बढ़ चलती है जो है, 500वीं फिल्‍म में काम करने का शगल क्‍योंकि वह 499 में काम कर चुका है, यह साक्ष्‍य है, एक और कर लेगा तो लिम्‍का बुक में नाम आ जायेगा, चार जगह चर्चा हो जायेगी। यह वह कलाकार है जिसका बोला गया एक डायलॉग आज भी लोगों को याद है-
'एंजॉयनिंग लाइफ और ऑप्शन ही क्या है?'


एक और फिल्‍म में काम कर लेने के लिए विग पहनकर निकला यह अधेड़ कलाकार सुधीर उन जगहों पर भटक रहा है जहॉं छोटी-छोटी भूमिकाओं के लिए बड़ी उम्र के एक्‍स्‍ट्रा कलाकार लाइन और भीड़ लगाये मौजूद हैं। अब समय बदल गया है। किसी समय के स्‍ट्रगलर अब कास्टिंग डायरेक्‍टर होकर राजयोग भोग रहे हैं, दस लोग पॉंव छूने के लिए लालायित हैं उनके, बस मेहरबानी हो जाये। 500वीं फिल्‍म के लिए हमारा यह नायक भी चल पड़ा है। उसी का स्‍पर्धी एक कलाकार जिसकी भूमिका अवतार गिल ने निभायी है और वे अपने ही नाम के साथ मौजूद हैं, जगह-जगह उसके अवसर को खुद ले लेने और उसकी खिल्‍ली उड़ाने के लिए उपस्थित है। एक तरह से यह सुधीर से जिरह करता उसी के भीतर का अन्‍तर्द्वन्‍द्व है जो एक दूसरे आदमी की तरह न केवल मौजूद है बल्कि प्रति‍बिम्‍ब की तरह साथ है। 

सुधीर की विवाहित बेटी, दामाद और नातिन उससे बहुत लगाव रखते हैं और अपने साथ रहने को कहते हैं मगर वह अपने एकाकीपन को अपना सर्वस्‍व माने बैठा है। वह प्रतिभाहीनता के अपने सच, तीसियों साल से एक जैसी स्थिति और आसपास की दुनिया की मुँह देखी तारीफ के अलावा कुछ नहीं देख पा रहा है। मुम्‍बई फिल्‍म जगत में यह बहुत सारे एक्‍स्‍ट्रा कलाकारों का निर्मम और मार्मिक सच है। निर्देशक की प्रशंसा की जानी होगी कि उन्‍होंने इस कहानी को लिखते, कहते और बनाते हुए ऐसे कलाकारों को अपनी इस फिल्‍म में जगह दी है तभी हम मनमौजी, अनिल नागरथ, बीरबल, विजू खोटे, लिलिपुट, रमेश गोयल आदि को देख पाते हैं। यह कहानी वास्‍तव में इन सबकी कहानी है जिसे संजय मिश्रा सुधीर के रूप में कहते हैं। दर्शकों को याद आ जाये तो सुधीर नाम के भी एक एक्‍सट्रा कलाकार रहे हैं जो कुछ समय पहले ही नहीं रहे। इसी प्रकार विजू खोटे का भी पिछले दिनों निधन हुआ।


दैनिक अनुबन्‍ध पर काम करने वाले कलाकारों के दिमाग में भी जो फन्‍तासी काम करती है वह कामयाब फिल्‍म में प्रदर्शित की गयी है। अच्‍छी वैनिटी वेन में बैठ जाने का स्‍वप्‍न बहुत बड़ा है, पल भर को सही। आज पूरा समय बदल चुका है। शूटिंग का माहौल एकदम अलग है। द्वेष, बनावटीपन, संवेदनहीनता और सेट पर सहयोगियों और सहायकों की कार्यपद्धति तेजी से बदली है। ऐसे में हमारा यह सुधीर नाम का समयातीत एक्‍स्‍ट्रा कलाकार जिसको वातावरण एक मिनट सहने को संवेदनशील या उदार नहीं दिखता, अपनी 500वीं फिल्‍म के लिए लालायित है। वह डायलॉग भूल जाता है, उसको शराब चाहिए, एक उसके काम खराब कर देने से कितने लोगों का काम खराब हो जाता है, यह भी। उधर उसकी बेटी और परिवार उसके इन्‍तजार में है, सुधीर का जन्‍मदिन है और वह सड़क पर शरा‍ब पिये बेसुध पड़ा है।

निर्देशक ने इस फिल्‍म को लगभग एक घण्‍टे चालीस मिनट का बनाया है। लॉकडाउन के समय में यह फिल्‍म नेटफ्लिक्‍स में देखा जा सकता है। संजय मिश्रा हमारे समय में बहुत सारे किरदार होने के लिए ही जैसे प्रकटे हैं। अब तक जितनी फिल्‍में कीं, उनमें और आगे जो करेंगे उनमें भी वे दिया हुआ किरदार हो जाया करेंगे, यदि अपने आपको वे जाया करने से बचते रहे तो। अपने यश का यह समय उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि बेशक है मगर वे सितारा पहचान नहीं हैं। वे एक सम्‍प्रेषित होने वाले चरित्र अभिनेता हैं जिसकी कमी एक दशक से बालीवुड में नजर आ रही थी। अपनी प्रतिभा और निरन्‍तर जीवटभरी ग्राहृयशक्ति से वे अभी और आने वाले सालों में कुछ समय बड़े सितारों और फिल्‍मकारों का आकर्षण रहेंगे। कामयाब का सुधीर अपने साथ पचास साल पहले के सिनेमा के पिंचू कपूर, शेट्टी, के. एन. सिंह, पूर्णिमा, निरुपा रॉय, असित सेन, राज मेहरा, ओम शिवपुरी सबको इस दौर में दर्शकों को अतीत से जुड़ने के लिए यह फिल्‍म प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ मिलकर महत्‍वपूर्ण अवसर देता है। संजय, समयातीत होने के अवसाद, कठिन और असहनीय समय और बदले हुए दौर में विफल एक कलाकार को इस ढंग से हमारे सामने ले आते हैं कि हम जीवन और सिनेमा दोनों के यथार्थ का पुनरावलोकन कर पाते हैं।


दूसरे कलाकारों में बेटी की भूमिका निभाने वाली सारिका कपूर बहुत सहज और बनावटरहित अभिनय करती हुई पसन्‍द आती हैं। कमाल करती है नातिन की भूमिका निबाह रही छोटी सी बाल कलाकार कौरवकी वशिष्‍ठ जो अपने नाना की दोस्‍त है। अपनी मॉं और नाना के साथ अनु हर सीन को अपने पक्ष में कर लेती है। जब उसकी मॉं अपने पिता से नाराज होकर स्‍कूल से ऑटो में बैठकर उसे साथ लेकर जा रही होती है और नाना पीछे छूट जाते हैं तो ऑटो के भीतर से पीछे मुड़कर छूट गये नाना को निहारना कमाल है। कास्टिंग डायरेक्‍टर का काम करते हुए एक्टिंग के लिए कोशिश करते हुए विफल रहने वाले गुलाटी की भूमिका के लिए दीपक डोब्रियाल को भी भुलाया नहीं जा सकता। वे उस काम की प्रवृत्ति के अनुरूप घुटे हुए आदमी को बखूबी जीते हैं। ईशा तलवार का एक आकर्षण एंगल है, अब के जमाने की स्‍ट्रगलर जो जिन्‍दगी को भी इस वातावरण की स्‍वच्‍छन्‍दता का हिस्‍सा बनाये हुए है लेकिन एक दिन सच उसके भी सामने आ गया है। अपनी टूटन, विफलता और ब्रेकअप का दुख पहाड़ों पर घूमकर आने के साथ कम करना भी एक उपाय है।

कामयाब, एक अच्‍छी थ्‍यौरी, अच्‍छे व्‍यवहार और कलाकारों के संजीदा अभिनय की फिल्‍म है। पीयूष पुटी ने एक दृष्टिसम्‍पन्‍न सिनेमेटोग्राफर की तरह मन में उतर जाने वाले दृश्‍य शूट किए हैं। निर्देशक को इस बात का श्रेय दिया भी जाना चाहिए कि उन्‍होंने फिल्‍म को खुद लिखते हुए, संवादों पर काम करते हुए अपना नियं‍त्रण बनाये रखा। नहीं कहा जा सकता कि इस फिल्‍म को कितने लोग देख पायेंगे या इसका बाजार आकलन क्‍या होगा लेकिन बहुधा भ्रमित जीवन जीने वाले वातावरण को जरा आइना देख लेना चाहिए, कामयाब के माध्‍यम से सही, इसको देख सकने के अवसर के साथ ही सही। प्रदर्शित होते होते इस फिल्‍म से शाहरुख खान का नाम भी प्रशंसनीय रूप से जुड़ गया क्‍योंकि उनकी निर्माण संस्‍था रेड चिली और दृश्‍यम फिल्‍म्‍स ने इसे अन्‍य-अनन्‍य व्‍यावसायिक जोखिमों से उबारते हुए दर्शकों तक पहुँचाना आसान कर दिया। 

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