मंगलवार, 10 नवंबर 2015

सात


यह आभास कर पाना या अनुमान लगा पाना किसी के लिए भी मुश्किल होगा कि कैसा हूँ? इस प्रश्न का वही उत्तर सहजतः स्वीकार होता है जो दिया जाता है। सभी दिये गये उत्तर को मान्य करते हैं। इस उत्तर को प्राप्त करने के बाद वे तत्परतापूर्वक विषय पर आते हैं। दरअसल विषय ही आजकल ओट में हो गया है। वह धीरे से प्रकट होता है, दो औपचारिक लफ़्ज़ों के बाद। ये ही औपचारिक प्रश्न और उसके उत्तर एक-दूसरे को आश्वस्त कर दिया करते हैं। आज के समय में यह पूछना कि कैसे हैं, कैसा हूँ इसकी ध्वनि भीतर से हँसाती भी है और अब के समय के दस्तूर का पर्याय भी बन गयी लगती है। लम्बे समय से चेहरे के साथ न होना अनेक स्मृतियों में आपको ठीक ही धीरे-धीरे धूमिल करता चला जाता है। चेहरे के साथ उपस्थिति का अपना सरोकार है और चेहरे के बिना आप भले छः महीने न दीखें, संज्ञान में नहीं आते। कोई नहीं जान पाता कि बिना चेहरे के आप कैसे हैं? समय ने आपको कैसा कर दिया है? आपकी देह में कहाँ-कहाँ विपत्तियाँ आयीं हैं? शरीर का नमक घट गया है? अब मिले तो पहचानेंगे कैसे अथवा पहचान में आयेंगे भी कि नहीं? ऐसे अनेक आदि, आदि हैं। चेहरा विस्मृत हो जाने के बाद उसका आकलन कल्पनाभर है, उसमें सुनिश्चित या सच वह नहीं जो सोचा गया है। दूरियाँ जो विस्मृति गढ़ती हैं वह प्रतिकूलताओं के विस्तार में सारी प्रश्नाकुलताओं को भी धीरे-धीरे समाप्त करती जाती है। खालीपन भौतिकी का अपना सच है..................

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