शनिवार, 7 नवंबर 2015

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अभी चार दिन पहले ही राजेश रोशन का संगीत उनकी ही अगुवाई में लगभग बीस से ज्यादा संगीत सहयोगियों एवं चार या पाँच कलाकारों के साथ सुनने का अवसर आया था तो जैसे अपनी स्मृतियों के चालीस साल ताजा हो गये। वे सब गाने जो अलग-अलग समय में अनेक फिल्मों में सुनते रहे, उनको यहाँ सिलसिलेवार सुनना अन्त:स्फुरण से कम न था। कितने ही गाने, एक रास्ता है जिन्दगी, तुझ संग प्रीत लगायी सजना, तुमसे बढ़कर दुनिया में न देखा कोई और, नजर लगे न साथियों, थोड़ा है थोड़े की जरूरत है, आ री आ जा निंदिया तू ले चल कहीं, छू कर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा, सारा जमाना हसीनों का दीवाना वगैरह, वगैरह। इन सारे ही गानों के संगीत के विवरण जब स्म तियों के आधार पर जाग्रत होने लगे तो लगने लगा जैसे अलग-अलग, उन-उन उम्रों में पहुँच गया हूँ जो किशोर अवस्था की थीं, युवाअवस्था की थीं। वे सब ध्वनियाँ फिर से कौंधी जब तब सुनी थीं, जैसे तुझ संग प्रीत गाने में, तूने मुझे चोरी से अपना बनाया  या तुम से बढ़कर दुनिया में गाने में की शुरूआत चंदू आत्मा की दो पंक्तियों से ग्रामोफोन रेकॉर्ड में चलते हुए बजना और फिर उस गाने को किशोर कुमार द्वारा उठा लेना जिसमें एक लाइन आती है, क्या खूब आँखें हैं तेरी..............जलतरंग भी कमाल का बजा है इसमें। एक रास्ता है जिन्दगी तो मेरा प्रिय गाना, फिल्मी काला पत्थर का, यह बात और है कि यह फिल्म ही मेरी प्यारी स्मृतियों से जुड़ी है, इस गाने में लता जी का स्वर दो बार, ओ जाते राही और ऐसा गजब नहीं ढाना पिया मत जाना बिदेसवा रे, ओह क्या‍ अनुभूति है, एक गाना और सोचा था पर वह उनकी सूची में नहीं था, इस फिल्म का, बाँहों में तेरी मस्ती के घेरे । राजेश रोशन हिन्दी सिनेमा में माधुर्य के उस दौर के सम्राट रहे हैं जब सम्भवत: वे अकेले ही मूल वाद्यों के साथ संगीत रचना कर रहे थे। कोयला में उनका एक गीत देखा तुझे तो हो गयी दीवानी, तबले पर क्या उठता चला जाता है, शीर्ष तक, अन्त तक तबला ही उस गाने को निभाता है। एक और फिल्म लावारिस, अक्षय खन्ना वाली जिसमें आ कहीं दूर चले जायें हम, इसमें बाँसुरी कमाल की बजती है, एक खास मोड़ पर। बहरहाल, इन सब गानों के साथ राजेश रोशन की जीवन्त प्रस्तुति देखते हुए दिमाग में अपनी क्षतियों का भारी द्वंद्व भी साथ चला, एक वक्त जमकर आँखें छलक आयीं, गहरे बिछोह को याद करके, फिर पोंछ-पाँछ कर मंच देखने लगा, आगे-पीछे की व्यवस्थाएँ, और भी तमाम कुछ। स्मृतियों का सन्दूक जब भी खुलता है, जाने क्या‍-क्या देने-दीखने लगता है, सच में..............

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