बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

काबिल : केवल हृतिक का सम्मोहन


सोचता हूँ कुछ दिनों की अतिशय कार्यविधि के बाद सिनेमा देखने का आप-हठ इस तरह बुरा नहीं था कि काबिल फिल्म देख ली। अक्सर जो बैनर अपने मुखिया के नाम पर ही जाने जाते हैं वहाँ किसी दूसरे निर्देशक का फिल्म निर्देशित करना फ्लेवर बदलने जैसा शायद होता हो या एकरसता के विरुद्ध नवाचार का उपक्रम, फिर भी फिल्म क्राफ्ट और राकेश रोशन की, हृतिक रोशन की फिल्म वो संजय गुप्ता कर रहे हैं जिनकी एक्शन फिल्मों को देखने का अनुभव बहुत यादगार रहा है, मेरे लिए, काबिल में उससे बहुत कम एक्शन है, हालाँकि विषय प्रतिशोध का है वह भी एक नेत्रबाधित नायक का।
कहानी बहुत जल्दी ही अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर देती है जब हादसे की शिकार नायिका को कहानीकार मार देता है। नायक-नायिका दोनों ही देख नहीं सकते, दो में प्रेम होता है और शादी भी लेकिन मुहल्ले के ही एक ओछे अपराधीनुमा नेता के भाई की बुरी दृष्टि एक हादसे की वजह बनती है। नायक फिर उन्हीं को एक-एक करके अपनी चतुराई से मारता है। हृतिक रोशन को एक जबरदस्त हिट की जरूरत है जो फिलहाल पूरी होती नजर नहीं आ रही। काबिल भी वैसी नहीं है। वह सब छोड़ दें कि दो फिल्में एक दिन क्यों रिलीज की गयीं, बहरहाल कुछ हद तक काबिल अच्छी फिल्म इसलिए है क्योंकि वह एक नायक की निष्ठा और प्रेम को बड़ी भावात्मकता के साथ प्रस्तुत करती है। खालिस एक्शन फिल्म बनाने वाले संजय गुप्ता ने अरसे बाद कोई फिल्म निर्देशित की और वह उनके स्वभाव से अलग है, उस तरह से देखना रोचक लगता है कि निर्देशक ने कथ्य और उसके मर्म को समझने का प्रयास किया है।
काबिल की कहानी कमजोर है, यह बात मान लेनी चाहिए क्योंकि नायक-नायिका का रोमांस परिपाक तक पहुँचा ही नहीं, जल्दी ही विवाह घटित हो गया, जल्दी ही दुर्घटना भी फिर एक लम्बा और बोझिल निर्वाह अन्त तक पहुँचने का। ठीक मध्यान्तर पर फिल्म मोड़ लेती तो दर्शकीय दिलचस्पी बनी रहती। बहुत से दर्शक उसको साधारण नजरिए से लेते हैं। हमारे चुहलबाज दर्शकों को तो वेदना, विडम्बना और हादसे भी मूर्खतापूर्ण ढंग से सिनेमाहॉल में हँसाते हैं। हाँ, फिल्म में पुलिस इन्स्पेक्टर बने नरेन्द्र झा अपनी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका में प्रभावित करते हैं। उनको जितने भी दृश्य मिले, उन्होंने अपने व्यक्तित्व और आवाज से उसको हासिल करने की कोशिश की। नायिका यामी गौतम के साथ तो खैर अन्याय हुआ ही। फिल्म में बड़ा सितारा तामझाम नहीं है सो कम लोगों में ही फिल्म सिमट गयी है। फिल्म के खलनायक थके हुए और शिथिल लगते हैं। रोहित राय भावशून्य मगर अतिआत्मविश्वास से भरा लेकिन उनकी कोई इमेज नहीं है। वैसे ही रोनित राय भी सारी दादागीरी स्वतःपस्त आदमी की तरह करते हैं जो न तो यह व्यक्त कर पाता है कि उसका व्यक्तित्व कितना वजनदार है और न ही यह साबित कर पाता है कि राजनैतिक रूप से वो कितना रसूखदार है!! ऐसे यह फिल्म दो स्टार से आगे नहीं बढ़ पाती।
जब आप एक संवेदनशील विषय अपनी फिल्म में लेकर चल रहे हों तो दो तरफ से जवाबदारी बनती है, एक फिल्मकार के रूप में अतिरिक्त संवेदना की और दूसरी दर्शकों की ओर से अधिकतम सोच को समझने की ताकि प्रयोग सतही न हो जाये। गाने याद नहीं रहेंगे, एक याराना का दोहराव है, सारा जमाना और राजेश रोशन के संगीत को लेकर कुछ भी विपरीत कहने की स्थिति मुश्किल से आती है क्योंकि वे समृद्ध इतिहास के व्यक्ति हैं, यहाँ जैसे वे कुछ कर ही न सके हैं।
काबिल, केवल हृतिक के सम्मोहन में एक बार देख ली जाने वाली फिल्म है क्योंकि वे पटकथाओं के मारे हैं, मोहन जोदारो में भी उम्मीद में सिनेमाघर बुला लेते हैं, अभी भी ऐसा ही हुआ है...........
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