सोमवार, 29 मई 2017

ऐसे रहो कि धरती.......

अपने लिखे नये नाटक पर मंचित होने तक कुछ फुटकर नोट्स


एक

नौ दिन बचे हैं
अढ़ाई कोस से ज्‍यादा चलना है....
पूर्वाभ्‍यास जारी है...........
ज्‍यों-ज्‍यों दिन पास आ रहे हैं, निर्देशक व्‍यग्र है, 
कलाकार पसीना बहा रहे हैं, हर दिन और और ज्‍यादा.....

ऐसे रहो कि धरती..........
शहीद भवन, भोपाल में 28 मई को मंचित होगा

निर्देशक आनंद मिश्रा Anand Mishra हैं.

दो

........पता नहीं तब भोपाल से ननिहाल तक जाने के लिए दो रेलें बदलनी पड़ती थीं लेकिन सुबह चार पांच बजे पहुंच जाया करते थे। शुरू शुरू में मैं ही था, मम्‍मी के साथ, पांच साल की उम्र के आसपास। मम्‍मी स्‍टेशन से उतरने और नानी के घर पहुंचने के बीच एक काम जरूर करतीं, एक बड़ी ब्रेड खरीदतीं, एक मक्‍खन का पैकेट, इसके साथ ही नानी के घर के दरवाजे पर उतरतीें, हालांकि उजाला होने पर रामचन्‍दर हलवाई के यहां से जलेबी-समोसा भी मंगवा लेतीं, मुहल्‍ले के किसी भी युवा से जो कि सब के सब मामा होते थे, जिज्‍जी चरन छुई, अबहीं आयी हओ का.........कहते हुए मिलना शुरू करते।
लेकिन नानी जैसे ही मम्‍मी के आमने-सामने होतीं, अन्‍दर आने के बाद एक घण्‍टे में छ: माह का घटनाक्रम सुनातीं, जिसमें गोली चलने, मारपीट होने, खून-कत्‍ल की भी दास्‍तान, इतने धीरे धीरे फुसफुसाते हुए जैसे कोई बाहर कान लगाये सुन ही रहा हो.............अपन उस अवस्‍था सुन-सुनकर सिहरा करते...........ये नाटक तभी हमारे माथे पर एक पैसा चिपका गया था....

तीन

जब जन्म हुआ था तिलकू का तब सब मातापिता की तरह वह भी उनको बड़ा सुंदर लगता था। माँ प्यार से माथे पर काला टीका लगा देती तो और सुंदर दिखता। छुटपन का यह तिलकधारी तिलकू बनकर बाहर-भीतर से इतना कुरूप कैसे हो गया?
मेरी स्मृतियों के तिलकू को अभिनेता के रूप में विशाल और निर्देशक के रूप में आनंद ने परिश्रमपूर्वक और क्षमता के अतिरेक में जाकर प्रदर्शन के लिए तैयार किया है।
नाटक के सहयोगी कलाकार ही दृश्य और प्रभाव की बेहतरी के प्रबल अनुषंग होते हैं। प्रस्तुति में दृश्य पूर्णतः सृजित हों लिखने के स्तर पर, बंधे हो प्रभाव के स्तर पर और परिणामित हों सार्थकता के स्टार पर, यह सोच और स्वप्न रहा है।

चार

ऐसे रहो कि धरती..............
कवि, ऋषि, देव आदि पीछे हों
मानव पहले
ऐसे रहो कि धरती
बोझ तुम्हारा सह ले

महान कवि त्रिलोचन की यह कविता मन और मस्तक पर शायद पच्चीस वर्षों से स्थापित है। एक बार जब वे भारत भवन आये थे तो वागर्थ की दीवार पर चाक से यह पंक्तियाँ उन्होंने स्वयं लिखी थीं और मैं उनको लिखते देखने वाला। तब से यह जीवन में साथ-साथ चल रही है।

इधर बचपन की स्मृतियों में ननिहाल कानपुर और मोहाल का एक अपराधी आदमी जिसे तब देखकर दिल में डर के मारे रेल से चलने लगती थी क्योंकि नानी बतलाती थीं कि वो कितना गुस्सैल और निर्मम है, इस तरह एक चरित्र और यह चिन्तनीय विचार कि यदि सचमुच मृत संवेदना वाले ऐसे लोगों के आसपास कोई समाज जीवनायापन कर रहा हो, तो कैसे करता होगा?
तिलकू रात को अपने घर में जाकर कमरे में बन्द हो जाता है, सुबह उसके चार गुण्डे अनुचर उसे बुलाने और फिर दिन शहर में अपराध करने निकलते हैं। उनकी हिंसा, अराजकता, अपमान के शिकार लोगों के सामने चारा क्या है? किसको कहें? एक पुलिस अधिकारी है, युवा ऊर्जावान जो लगातार उसके पीछे है, निगरानी में है पर रंगे हाथों पकड़ा नहीं जाता। त्रासदी पाये लोग पुलिस में शिकायत करने से डरते हैं क्योंकि उसके बाद उनका जीवन खतरे में है। क्या एक बुरे आदमी से निजात पाने के लिए उससे बड़े बुरे आदमी की शरण में जाना चाहिए? बाद में उस बड़े बुरे आदमी से बचे हुए समय में डरे हुए बने रहना चाहिए? क्या बुरे आदमी को करनी का फल मिले, इसके लिए ईश्वर की आराधना करना चाहिए, मन्दिर में भजन गाना चाहिए?
बहुत सारे उद्वेग दिमाग में चलते रहे हैं। किसी भी मनुष्य को यह कहाँ पता है कि अगल क्षण या पल क्या है, आगे मोड़ पर क्या है........उसके बाद भी क्यों लोग दृष्टिबाधित हैं, मस्तिष्कबाधित हैं, संवेदनाबाधित हैं...............तिलकू जैसा अन्त किसी के साथ भी हो सकता है। आह, बद्दुआए एँ, शाप, कोसना, हौकना यह सब शब्द हमारी चेतना और स्मृतियों में आदिकाल से भय और अन्देशे के पर्याय रहे हैं। क्या हम सब ऐसे भयों और अन्देशों से उबर चुके हैं? हमें किसी का डर नहीं.......?
त्रिलोचन जी की कविता से ही इस नाटक का शीर्षक रखने की भावनात्मक चाह रही सो रख ही दिया, हालाँकि एक महान कवि की कालजयी काव्यात्मकता से यह प्रेरणीय पंक्तियाँ जितनी उच्चकोटि की हैं, वहाँ तक नाटक पहुँच पाये, इसके लिए इस नाटक से जुड़ा प्रत्येक सदस्य निष्ठित रहा है तथापि दर्शकों के मन तक थोड़ी सी भी चेतना जा सकी तो हम सभी का मनोरथ सफल होगा..........
सच कहूँ तो इस नाटक में मनोरंजन बिल्कुल नहीं है, तनाव है पूरी तरह। और तनाव में रखना भी चाहता हूँ इस नाटक के दर्शक को क्योंकि आमने भी और सामने भी हल्का दीखने और हल्का करने के बहुत से अवसर हमारे जीवन में आया करते हैं। लोग ध्यान, औषधि, योग आदि की और भी इसीलिए प्रवृत्त हैं लेकिन कम से कम एक नाटक ऐसा भी लिखने का मेरा अपने आपसे हठ था, सो किया, शेष सब आप कह दीजिएगा................

पांच

ओह, यह त्रिलोचन जी की जन्माशती का साल है.......
सचमुच नहीं पता था कि यह त्रिलोचन जी की जन्मीशती का साल है। नाटक "ऐसे रहो कि धरती का" ब्रोशर छपने से पहले उसको खूब भली प्रकार सुदृढ़ करने को जतनशील था कि मन हुआ कि जब उनकी कविता से प्रेरणा लेकर नाटक लिखा है तो उनका छायाचित्र भी मेरे नोट के साथ जाना चाहिए। इसी ढूँढ़ा-खखोरी में जब यह जाना कि वे 1917 में जन्मे थे जो सुखद विस्मय से भर गया। उनका निधन 2007 में हुआ था। मेरा सौभाग्य जो कविता मेरी देह-मन में पचीस बरस पहले पैठ कर गयी उससे प्रेरित नाटक 2017 में हो रहा है। यह सुखद संयोग ईश्वरीय हैं और मैं ईश्वार का कृतज्ञ हूँ............
ब्रोशर का आवरण कई बार बदला, अन्तत: विश्व प्रसिद्ध सांची के स्तूप में द्वार के एक शिल्प को गुणी परिकल्पेनाकार आदरणीय भाई हरचन्दंन सिंह भट्टी के मार्गदर्शन में चयन किया। उसमें एक सुन्दार सा वट वृक्ष है और प्रांगण में देवगण।
दरअसल कामना तो यही है न कि मनुष्यता ऐसी हो कि धरती उसका बोझ सह ले, मानव पहले के पीछे भाव दरअसल कवि का क्याे है.........कवि, ऋषि, देव आदि पीछे हों/मानव पहले/ऐसे रहो कि धरती/बोझ तुम्हारा सह ले......
सो मैं, मेरे निर्देशक और नाटक की पूरी टीम भावनात्मक निष्ठा से इस प्रस्तु ति के साथ मंचन स्थल पर सम्मान्य प्रेक्षकों के समक्ष होगी, सच्चे मित्रों की शुभकामनाओं के सिवा जगत में कुछ नहीं है, दे कर उपकृत कीजिएगा.............

छ:

ऐसे रहो कि धरती.....
(प्रदर्शन के कुछ घण्‍टे पहले)

आज शाम 7 बजे शहीद भवन में इस नाटक का प्रदर्शन होने को है। कुछ ही घण्‍टे बचे है। इस बीच नेपथ्‍य के संकट, व्‍यवस्‍थाएँ और अपरिहार्यताओं की चिन्‍ता निर्देशक प्रस्‍तुति की चिन्‍ता के साथ कर रहे हैं। नये विषय के साथ सामने आना अपनी चुनौती है, खासकर तब जब यह दिमाग में ठीक-ठीक बैठा हुआ हो कि सवा घण्‍टे की गम्‍भीरता में दर्शक को बीच में वैसा सहज बनाते नहीं चलना है कि कहकहे लगाने या हँसने के आग्रह वाले संवाद हों। मुझे लगा कि वह भी विषय के बीच व्‍यवधान होगा।
एक सीख नानी से सुनता था, फिर मम्‍मी से भी क्‍योंकि नानी से ही मम्‍मी ने भी सीखा था, नन्‍हें ऐसे हुई रहो, जैसे नन्‍हीं दूब, और घास जर-बर जायें, दूब खूब की खूब। नाटक में इस पंक्ति का प्रयोग भी है, अन्‍तत: इसी प्रार्थना के साथ नाटक सम्‍पन्‍न होगा। संगीतकार सुरेन्‍द्र वानखेड़े ने इसे कम्‍पोज किया और कल संजय उपाध्‍याय जी ने इसको विनम्रता की वो गरिमा दी, कि मन भावुक हो गया।
दूब, दूर्वा भारतीय परम्‍परा में अनेक गुणों से युक्‍त है। अनुष्‍ठान में उसको जो महत्‍व और आदर मिला हुआ है, हम सभी के वह संज्ञान में है। इस प्रसंग, रचना और स्‍मृतियों के साथ मुझे नाटक में अपनी माँ की भी मौजूदगी का परम आभास, विश्‍वास रहेगा..........

सात

बस थोड़ा और..............
कई बार आपकी ओर से सोचता हूँ तो अपने ही पर हँसी आने लगती है कि आखिर मित्र कितना सुनना, जानना चाहेंगे किसी भी विषय, घटना, बात, उपलब्धि या गतिविधि पर। कुछ दिनों से अपने आज मंचित हुए नाटक पर लिखते हुए आज यह बात मन में आ ही गयी। चिढ़कर कहने का हक है, इनका तो हर दिन वही नाटक.........या इनका तो हर दिन नया नाटक.......
बहरहाल, ऐसे रहो कि धरती आप सभी की स्पर्शीय आत्मीयताओं से उस तरह से मंचित हो गया जो व्यवहारिक और बाहृय तौर पर सफल उपक्रम के दिखायी देने वाले मानदण्ड या प्रमाण हैं। कल इस नाटक पर अखबारों में टिप्पणी आयेगी, सो आज और कल दो दिन ऐसे रहो कि धरती की बची-खुची चर्चा और......
रंगप्रेमियों से हाॅल भर गया था, यह बात। एक घण्टे पन्द्रह मिनट करीब की अवधि। स्क्रिप्ट रिलेक्स नहीं करती थी, मंच पर कलाकारों ने भी महीने भर की तैयारी में भरपूर क्षमता के साथ दर्शक को तनावरहित नहीं होने दिया। ज्वलन्त और विषम को सहन करना, अपने भी संयम की परीक्षा है जैसे घुटन में जिए रहने की जद्दोजहद........
एक-दो प्रदर्शनों और पूर्वाभ्यासों में यह अपनी व्यवस्थित जगह लेगा। महान कवि त्रिलोचन की कविता से प्रेरित शीर्षक है, एकदम से नाटक को नहीं खोलता और न ही पूर्वानुमान करने देता है। त्रिलोचन जी की जन्मशती के चलते इस साल इसे कुछ जगह प्रस्तुति के अवसर मिलना चाहिए, यह आकांक्षा रहेगी।
हीरू चटर्जी और विशाल आचार्य से प्रभाव से यह नाटक दर्शक को बाहर आने नहीं देता। घटनाएँ संयोजित की गयी हैं। अपराधी के लिए प्रेमियों को लूटना, वृद्धा की पेंशन छुड़ाना, बैसाखी नाम के एक पैर से चलकर चाय बेचकर जीवनयापन करने वाले युवक को प्रताड़ित करना और अपने रास्ते जाते एक संस्कारी युवा को दो पल में मार देना सब चुटकियों का काम है लेकिन एक चुटकी ऊपरवाला भी बजाता है, जिसके हाथ हम सरीखी कठपुतलियों के धागे हैं। क्षणभंगुरता के यथार्थ में वही पल भर में किसी की भी भूमिका को खत्म कर देता है............
हमारा यही मैसेज है, सन्देश है। हाॅल में अनेक दर्शकों की आँखों में आँसू आये, घटनाओं को देखते हुए। अन्तिम दृश्यों में द्वंद्व कमाल का है, विशाल आचार्य Vishal Acharya ने तिलकू के किरदार को खूब मेहनत से निभाया है। मार दिये गये युवा के पिता की भूमिका में हीरू चटर्जी ने चरित्र को जैसे पी लिया। संगीतप्रभाव विशेषकर उस दृश्य में जब देह में चाबुक मारने वाला दृश्य है, सिहरा देता है। ज्यादा नहीं लिखता, अपना बेबी है.............
आनंद मिश्रा Anand Mishra, अनुज, हमेशा लो-प्रोफाइल, सबके लिए सहयोगी, साथ देने वाले, हर मजबूत पट्टी पर धार होने को तैयार, इस नाटक के बहुत अच्छे निर्देशक लगे, मेरी ओर से उनके लिए यही..............
और ड्रामा स्‍कूल के डायरेक्‍टर संजय उपाध्‍याय जी Sanjay Upadhyay ने जो कि हमारे मार्गदर्शक भी रहे, परिष्‍कारकर्ता भी, आज पूरा नाटक देखने के बाद मंच से उन्‍होंने हौसलाआफजाई की और नाटक के अन्‍त या परिणाम को लेकर एक बहुत अच्‍छा श्‍ाब्‍द प्रयोग किया पाेएटिक जस्टिस, अर्थात अपराधी को ईश्‍वर से दण्‍ड मिलता है, न कोई गैंगवार, न एनकाउण्‍टर........किए की सजा। सामाजिक प्राणी को इस भय सताना चाहिए, आज के समय की तरह अराजक और निर्भीक नहीं........
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