बुधवार, 31 मई 2017

बाहुबली की भुजाओं में देश के सिनेमाघर

तीन सप्ताह से दिलचस्प तमाशा देखने में आ रहा है। दक्षिण से दो-तीन साल पहले बनकर आयी फिल्म बाहुबली ने जैसे बॉलीवुड की सारी प्रतिभाआेंं और क्षमताओं पर तुषारापात करके रख दिया था। बॉलीवुड के ही बरसों से खाली बैठे एक निर्माता उसके वितरक बन बैठे और इतना धन अर्जित किया जितना यदि वे खुद कोई फिल्म बनाते भी तो न अर्जित कर पाते। केवल डिस्ट्रीब्यूशन से उनके चेहरे पर आर्थिक सफलता की वो मुस्कान तिर गयी कि उनको बैठे-बिठाये सबसे लाभ का धंधा ही यह नजर आया। जबकि उनकी पहचान एक ऐसे युवा फिल्मकार के रूप में बनी हुई है जो नये जमाने के समझबूझ वाले सिनेमा का जानकार है और नब्ज भी समझता है। ऐसा निर्माता, एक वितरक के रूप में अपनी कमाई पर गर्व तो कर रहा था लेकिन शायद वह यह समझने को तैयार नहीं था कि वह और जिस मुम्बइया फिल्म इण्डस्ट्री के दो-चार निर्माता घरानों में से वो एक है किस तरह लाचार और पंगु किए जाने की भूमिका अनायास ही एक स्वस्थ और बड़ी स्पर्धा से तैयार हो गयी है। 

बाहुबली का निर्माण और उसके पहले संस्करण की सफलता की घटना, दरअसल मुम्बइया सिनेमा को एक बार जमकर चकाचौंध से भरा आइना दिखा देने का एक बड़ा काम था। इतिहास गवाह है, भारतीय सिनेमा में, सिनेमा के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण, सिनेमा को एक बड़ा और सबसे ज्यादा सांस्कृतिक रूप से सम्प्रेषणीय आयाम मानकर तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में बनने वाली अनूठी और असाधारण फिल्मों की एक परम्परा रही है। आज भी तो दक्षिण से ही फिल्मों को सबसे ज्यादा श्रेणियों में नेशनल अवार्ड मिलता है तो उसकी वजह ही यह है कि वे सिनेमा को अपनी संस्कृति और परम्परा के विस्तार का अविभाज्य अंक मानते हैं। हिन्दी सिनेमा में मुम्बइया सिनेमा के साथ-साथ बरसों दक्षिण का पारिवारिक और सामिजक सिनेमा चला है जिसमें जैमिनी और प्रसाद प्रोडक्शन्स जैसे घरानों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 

बॉलीवुड के कलाकार तीस साल से ज्यादा समय से अपनी सुरक्षित, व्यावसायिकता की आदर्श शर्तों से भरी रोजी-रोटी दक्षिण के सिनेमा से प्राप्त कर रहे हैं। बॉलीवुड भले उदार न रहा हो पर दक्षिण के सिनेमा में बॉलीवुड के सितारों को बहुत उदारतापूर्वक अपनाया गया है। लगभग इतना ही समय दक्षिण भाषायी फिल्मों के हिन्दी में निर्माण को भी होता आ रहा है बल्कि विगत एक दशक में यह और अधिक हो गया है। दक्षिण में ही सिनेमा के पचास दिन चलने पर निर्माता फिर से हजारों-लाखों पोस्टर दीवारों पर लगवाकर जश्न मनाता है और दर्शकों का उपकार मानता है, जब सौ दिन या सिल्वर जुबली होती है तो बात अलग ही होती है। बॉलीवुड के सितारे सलमान खान को भी दक्षिण से अच्छी स्क्रिप्ट की तलाश रहती है और अक्षय कुमार को भी दक्षिण से प्रेरित कहानियों ने सितारा बनाने में योगदान किया है।

ऐसे केन्द्र से बाहुबली का प्रदर्शित होना सब तरफ जैसे चमत्कार की तरह विस्तारित और प्रचारित कर दिया गया है। बाहुबली का प्रथम प्रदर्शन और उससे जुड़े कौतुहलपूर्ण प्रश्नों को देखते हुए शोले का ही समय याद आ गया जिसके संवाद आज भी भुलाये नहीं जा सके हैं। पहले बाहुबली से उपजे प्रश्न का समाधान हमारे देश को इस बाहुबली में जाकर जितनी आसानी से मिल गया वह कम हास्यास्पद नहीं है लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण की फिल्म निर्माण संस्थाएँ और लोग सस्पेंस, रहस्य और गोपनीयता को आखिरी समय तक जाहिर नहीं होने देते। उन्हें यदि दर्शकों को अचम्भित करके रख देना है तो उसकी पूरी तैयारी होती है जबकि बॉलीवुड में अनेक ऐसे उदाहरण होंगे जब फिल्में सिर्फ इसलिए डिब्बाबन्द होकर रह गयीं क्योंकि प्रदर्शन से पहले ही लीक हो गयीं थीं। 

इधर बॉलीवुड के दूसरे भाग के लिए हमारे देश के सिनेमाघर पूरी तरह शरणागत होकर रह गये। अपनी ही क्षमताओं और विश्वासों में डरे निर्माता, निर्देशक और सितारों ने अपना ध्यान खेल में लगाया और पलक पाँवड़े बिछाकर बाहुबली के भाग दो का स्वागत किया। सारे सिनेमाघर, सारे शो ऐसे इस फिल्म ने मुट्ठी में कर लिए जैसे दूसरी फिल्मों को देशनिकाला दे दिया गया हो। आत्महीनता और गिरे आत्मविश्वास की बात है कि इस तूफान से भयभीत दूसरे निर्माता पीठ करके खड़े हो गये। हाल यह है कि देश के हर सिनेमाघर, हर शो में बाहुबली। देखो तो बाहुबली, न देखो तो बाहुबली। वास्तव में यह दयनीय स्थिति है सिनेमा के लोकतंत्र के लिए, सिनेमा की संस्कृति के लिए। बाहुबली के बाँहों में देश के सिनेमाघर चरमरा रहे हैं, घुटकर पिस रहे हैं और हम सब इस बात पर अपार प्रसन्न हैं जानकर कि अरे वही..........निरर्थक सा प्रश्न जिसे दोहराये जाने का जरा सा भी मन नहीं है। 





2 टिप्‍पणियां:

  1. सुनील भैया इसमें चरमराने की क्या बात है।सिनेमाघर फूल हुए उनकी कमाई हुई।दक्षिण आसमान से टपका नहीं है।सोच समझ कर सफलता हासिल की बाहुबली ने।मुंबई सिनेमा ऑर्गनाइज ही नहीं है तो सफल कैसे होगा।काल्पनिक फ़िल्म है कल्पनातीत सफलता।

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    1. बात यह है कि किस तरह सारे करिश्‍मे पास से छूटे जा रहे हैं। ऊँची आतिशबाजी बौनों को अचम्भित करतीी है। पुरुषार्थी अपने लक्ष्‍य अलग बनाकर चलता है।

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