गुरुवार, 10 अगस्त 2017

प्रेम गुप्ता : रंगमंच-विश्व में एक रमता जोगी.....


प्रेम गुप्ता के साथ मैत्री निबाहते हुए करीब तीस साल से अधिक हो गये, उनको नब्बे के पहले से ही बेहद जुझारू रंगकर्मी के रूप में भटक-भटककर बच्चों के साथ काम करते हुए देखा है। उस समय के उपलब्ध साधारण साधनों के साथ गुप्ता मध्यप्रदेश में जगह-जगह जाकर कार्यशालाएँ किया करते थे और नाटक मंचन की जमीन तैयार किया करते थे बच्चों के साथ। सागर में बाल संरक्षण गृृह के बच्चों के साथ, भोपाल में आशा निकेतन के निशक्त बच्चों के साथ, किशोर बालिका गृह के बच्चों के साथ और ऐसी ही अनेक संस्थाओं के साथ काम करते हुए इस आदमी ने अपने आपको होम किया है। साथ में इनके हर जुनून, हर संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर साध देतीं अर्धांगिनी वैशाली गुप्ता जो स्वयं कल्पनाशील, सोच और दृष्टिसमृद्ध कोरियोग्राफर हैं, ने लगातार कठिन और मुश्किल क्षणों को देखा है। मन देखो तो इतना बड़ा कि किशोर बालिका गृह की बच्चियों के साथ काम करते हुए एक बच्ची बीमार थी, उसे पीलिया हो गया था, तो अधीक्षिका से ज्यादा इनको फिक्र जो स्कूटर में बैठाये-बैठाये उसका इलाज कराते फिरे। प्रस्तुति में जो मिला तो उन बच्चों को दीवाली पर कपड़े दे आये। 

कहने और पुनरावलोकन करने से यह बात भावुक कर देती है लेकिन रंगमंच और विशेष रूप से बच्चों के साथ काम करने का इस आदमी का जुनून कमाल का है। यह रास्ता प्रेम गुप्ता ने खुद चुना नहीं तो पुराने भोपाल में चूड़ियों के बड़े कारोबारी का यह बड़ा बेटा आज आराम की रोटी का रहा होता, घरबार जायदाद सब होती लेकिन आमद से अधिक खर्च करने में अग्रणी और हर बार मिले से अधिक खपा देने वाले ये शख्स जब मिले, हाथ झाड़े ही मिले। लेकिन ऐसे कठिन संघर्ष, पीड़ा, तनाव और व्यथा के साथ भी अपनी यात्रा जारी रखी, यह बड़ी बात है।

कारन्त जी ने प्रेम गुप्ता की संस्था का नामकरण चिल्ड्रन्स थिएटर अकादमी किया था। उनकी ही प्रेरणा से ये इस ओर आये तो यहीं के होकर रह गये। बच्चों के साथ इनकी तैयार की प्रस्तुतियाँ अनन्य हैं, चिड़ियों की चतुराई, कलिंग, सिर्फ इतिहास नहीं, लालच बुरी बला, एकलव्य का दान, सपनों का महल, एक राष्ट्र एक रंग, आदरांजलि, झाँसी की रानी, आजाद हिन्द के नारे, अंधेर नगरी, मुर्गे का ब्याह, ईदगाह, टिम्बक टू तत्काल याद आये नाम हैं। इनका ईदगाह अन्तिम दृश्यों में रुला देता है। प्रेम गुप्ता को मध्यप्रदेश के अलावा दिल्ली, सतारा आदि शहरों में बड़ी और वृहद कार्यशालाओं में प्रस्तुतियाँ तैयार करने के लिए भी निमंत्रित किया गया है, अब तक गुप्ता लगभग तीन से पाँच हजार बच्चों के साथ बैले भी तैयार कर चुके हैं। 

पाँच फुट से कुछ ही इंच बड़े, डिबिया जैसे मुँह पर दोनों ओर कान से शुरू होती हुई घनीभूत दाढ़ी काली से अब पूरी तरह सफेद हो चुकी है। यह सही है कि प्रेम गुप्ता के काम करने के बाद ही बच्चों के साथ काम करने का जुनून भोपाल में फैला और विभा मिश्रा, के.जी. त्रिवेदी, इरफान सौरभ जैसे वरिष्ठ रंगकर्मियों ने इस धारा को पकड़ा लेकिन गुप्ता जितना खटे हैं वह अपना सबकुछ होम कर देने के बाद प्राप्त होने वाले आत्मसुख का अकेला साक्ष्य है। दो बार वे संस्कृति विभाग द्वारा उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी में बाल रंगमण्डल के निदेशक भी रह चुके हैं। 

तीस साल से ज्यादा हुए संस्था चिल्ड्रन्स थिएटर अकादमी को बने हुए जिसमें से समय-समय पर अनेक कलाकार आते-जाते रहे। बच्चों, किशोरों से काम कराना कितना बड़ा जोखिम, यह मैंने उनके साथ अनेक अवसरों और स्थलों पर देखा। क्लास में आने वाले, जरा से गुणी और ज्ञानी हो जाने वाले जिद्दी बच्चों और किशोरवय के कलाकारों में एक तरह की मनमानी, अराजकता और अनुशासन तथा कहे की अव्हेलना का सामना करते भी प्रेम गुप्ता को देखा। पंख ऊगने के बाद उड़ जाने वाले, समर्थन में खड़े होने वालों को स्पर्धी-प्रतिस्पर्धी के रूप में अपने सामने देखने के कड़वे-खट्टे अनुभव भी प्रेम गुप्ता की इस वृहद यात्रा के पड़ाव हैं। कई अवसरों पर उनको फूट-फूटकर रोते भी देखा है लेकिन हर हाल में यह आदमी है रंगमंच का, रंगमंच के लिए अपने साथ-साथ अपनों को भी दाँव पर लगा देने वाला।

प्रेम गुप्ता की रंगयात्रा बहुत कठिन उतार-चढ़ावों से भरी रही है। नाटकों के व्याकरण से लेकर उसकी पूरी की पूरी आचार संहिता को लेकर अपनी एक अलग दृष्टि बनाने वाले इस शख्स ने बहुत पापड़ बेले और मुश्किलों को सहा है। एक खासियत इतने वर्षों में इस आदमी की यह भी देखी कि पास का कोई काम नहीं किया और खर्च से समझौता नहीं किया चाहे कुछ भी बेच-बहा देना पड़े। सर्जनात्मक कार्यों से देश भर की यात्रा करते हुए बरसों-बरस जहाँ-जहाँ गये, नाटक और मंच के लिए जो-जो उपयोगी मिला, पास का सब खर्च करके, उधार करके खरीद लाये। मंच का काम जिस प्रभाव, जरूरत और अपरिहार्यता का होना चाहिए, उसमें कोई कमी न आने पाये। तो संगीत के लिए वाद्य, फिर वह लकड़ी के हों या खासर मिट्टी के, कास्ट्यूम, मुखौटे, आभूषण और दुनिया भर की चीजें जो उनको, उनकी कल्पनाशीलता को अपने काम के लिए अहम लगीं, ले लीं और भारी बक्स, लगेज के साथ भोपाल आकर उतरे। 


इतना ही नहीं भोपाल के रंगकर्मियों के लिए प्रेम गुप्ता के दरवाजे हमेशा खुले रहे, जिसको जो सहयोग करना होता, पीछे नहीं हटे। इस बात की खिन्नता लिए हुए भी बस यही अपराध हर बार करते रहे कि लोग उनसे बहुत सा दुर्लभ और कीमती सामान अपनी जरूरत के लिए ले जाते रहे, उनमें से कई ने उनका सामना वापस नहीं किया। तो ऐसी और इस तरह की अनेक क्षतियों के साथ भी प्रेम गुप्ता की रंग-यायावरी जारी रही। प्रेम गुप्ता ने भोपाल से लेकर देश के अनेक हिस्सों में जो अपनी एक लम्बी यात्रा की है उसका परिणाम उनके लिए लिए आत्मसुख रहा है। इस तरह उन्होंने आत्मसंघर्ष में आत्मसुख प्राप्त करने का एक तरह से जीवनभर का जोखिम लिया। निश्चित रूप से इस काम में उनकी अर्धांगिनी, जानी-मानी कोरियोग्राफर वैशाली गुप्ता की बहुत बड़ी भूमिका है। 

यही कारण रहा कि जब पहली बार बच्चों के लिए काम करने वाली राष्ट्रीय स्तर की शीर्षस्थ संस्था नटरंग ने उनको अभी रेखा जैन बाल रंगमंच सम्मान के लिए सम्मानित करने नईदिल्ली बुलाया तो उनके चेहरे पर मैंने मुस्कराहट देखी। उनको सम्मान पट्टिका, पचास हजार रुपये की राशि वहाँ प्राप्त हुई। ओडिसी की सुप्रतिष्ठित नृत्यांगना माधवी मुद्गल ने उनको यह सम्मान प्रदान किया। 

आपका पथ सच्चा, विनयशील और नैतिक है तो आप कभी न कभी, कहीं न कहीं तो सार्थक ढंग से पूछे जाओगे ही, बात अलग है कि देर-सवेर होती है, अंधेर नहीं हुआ, यही क्या कम है। सम्मान लेकर लौटने के बाद प्रेम गुप्ता ने चाव से सबकुछ दिखाया, वे तब नहीं जान पाये थे कि इस बार आँख मेरी भीगी है.......

कथादेश के अगस्‍त अंक में प्रकाशित




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