मंगलवार, 29 अगस्त 2017

अरुणा राजे की आत्‍मकथा के बहाने.......


महिला फिल्मकारों की सर्जनात्मक दृष्टि और उनका सिनेमा 


भारतीय सिनेमा में महिला फिल्मकारों की अपनी अहम जगह है। समय-समय पर सिने छायांकन, सम्पादन और उससे ऊपर निर्देशन के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान और प्रतिष्ठा बनायी है। इस क्षेत्र में भी दो धाराएँ काम करती रही हैं। एक तरफ बहुलोकप्रिय सिनेमा में महिलाओं ने अभिनय से अलग अपना कैरियर चुनते हुए लगातार सक्रियता का परिचय दिया है, विशेष रूप से इसमें कोरियोग्राफी को लिया जा सकता है जहाँ सरोज खान से लेकर फराह खान, वैभवी मर्चेन्ट और पोनी वर्मा आदि के नाम याद आते हैं। इनमें फराह खान की यात्रा निर्देशक तक हुई है और उन्होंने अच्छी फिल्में भी बनायीं, यह सहज ही कहा जा सकता है। 

इधर भारतीय सिनेमा में सार्थक सर्जनात्मक हस्तक्षेप करने वाली महिला फिल्मकारों में जिस तरह से अपर्णा सेन, विजया मेहता, सईं परांजपे, कल्पना लाजमी, दीपा मेहता, मीरा नायर और अरुणा राजे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है वह वास्तव में स्त्री सर्जनात्मकता का उल्लेखनीय अध्याय है। समय-समय पर इनके द्वारा किया गया काम बहुत मायने रखता है। ध्यान करें तो शायद सत्तर के दशक से हमारे यहाँ सार्थक सिनेमा आन्दोलन और कला फिल्मों की धारा के बरक्स स्त्री फिल्मकारों का इस क्षेत्र में आना स्वागतेय रहा है। एक के बाद एक इन फिल्मकारों ने अपने सिनेमा से चैंकाने का काम किया है। इतना ही नहीं इनके सिनेमा पर चर्चा, विचारोत्तेजक बहसें और विश्लेषण भी हुए हैं और तत्समय प्रेक्षकों और आलोचकों की राय इन फिल्मकारों की दृष्टि और सृजन के पक्ष में रही है।

अपर्णा सेन ने हाल ही में अपनी एक नयी फिल्म पूर्ण की है जो मराठी के विख्यात नाटककार महेश एलकुंचवार की कृति सोनाटा पर आधारित है। यह नाटक उन्होंने वर्ष 2000 में लिखा था जो मुम्बई में रहने वाली प्रौढ़ उम्र की एकाकी कामकाजी महिलाओं की कहानी है। इस फिल्म में अपर्णा ने स्वयं अभिनय भी किया है शाबाना आजमी और लिलेट दुबे के साथ। उम्र के इकहत्तरवें साल में सक्रिय अपर्णा सेन का नयी फिल्म के साथ फिर चर्चा में होना मायने रखता है। यों हम उनको छत्तीस चैरंगी लेन, परोमा, सती, युगान्त, पारोमितार एक दिन, मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर, फिफ्टीन पार्क एवेन्यू आदि फिल्मों के माध्यम से खूब जानते रहे हैं। वे भारतीय सिनेमा की उत्कृष्ट सर्जनात्मक एवं वैचारिक उपस्थिति वाली एक अहम फिल्मकार हैं।

इधर हार्पर काॅलिन्स से प्रकाशित अपनी आत्मकथा फ्रीडम को लेकर तीस साल के सक्रिय कैरियर के बाद एक बार फिर चर्चा में आयीं अरुणा राजे पाटिल इन दिनों देश के विभिन्न शहरों की यात्राएँ कर रही हैं। सम्पादन से अपना कैरियर शुरू करने वालीं अरुणा को स्त्री के पक्ष में बहुत मजबूूत, साहसिक और विचारोत्तेजक विषयों पर काम करते हुए फिल्म बनाने का लम्बा अनुभव रहा है। गहराई से लेकर शक, सितम, रिहाई, पतित पावन, भैरवी और तुम जैसी फिल्में बनाने वालीं अरुणा राजे ने बाद में मुम्बई के बड़े फिल्मकारों के प्रशिक्षण स्कूलों को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभायी और सक्रियता का परिचय दिया है। उन्होंने पुणे, मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद आदि शहरों में इसका लोकार्पण कराया है और इसके कुछ चेप्टर भी पढ़े हैं जिनके माध्यम से हम जान पाते हैं कि एक जुझारू, संघर्षशील और गुणी फिल्मकार की सर्जनात्मक यात्रा कितने उतार-चढ़ावों भरी रही है। वे हाल ही भोपाल भी आयीं थीं और अगली बार शायद वे अपनी आत्मकथा के पाठ के साथ फिर आयें।

विजया मेहता भी एक गुणी फिल्मकार हैं जिन्होंने मराठी रंगमंच से मराठी और हिन्दी सिनेमा की ओर कुछ अहम हस्ताक्षर किए। उनकी अनुपम खेर और तन्वी आजमी अभिनीत फिल्म राव साहब अब दुर्लभ है। हवेली बुलन्द थी, हमीदा बाई की कोठी, पेस्टन जी, स्मृतिचित्रे, शाकुन्तलम फिल्में और लाइफ लाइन धारावाहिक उनके समयातीत सृजन हैं। एक पल, रुदाली, दरमियाँ, दमन, क्यों और चिंगारी जैसी फिल्मों की निर्देशक कल्पना लाजमी ने भी एक दृष्टिसम्पन्न हस्तक्षेप भारतीय सिनेमा में किया। स्वर्गीय गुरुदत्त के परिवार की ये फिल्मकार भी उसी धारा से प्रभावित हैं जो स्त्री के अछूते संघर्ष और साहसिक निर्णय के परिप्रेक्ष्य में अपना सिनेमा बनाती हैं। 

इधर मीरा नायर और दीपा मेहता की विचारधारा और आधुनिक और विचारोत्तेजक है। उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए अत्याधुनिक समाज और एलीट विश्व में परदे के भीतर, दबा-छुपा, मर्यादा और आडम्बर का चोला धारण किए यथार्थ को रेखांकित करने का काम किया। मीरा नायर की फिल्में सलाम बाॅम्बे, मिसीसिपी मसाला, कामसूत्र, मानसून वेडिंग, वेनिटी फेयर, द नेमसेक, अमेलिया और क्वीन आॅफ केटवे तथा दीपा मेहता की फिल्में फायर, अर्थ, वाटर, मिडनाइट्स चिल्ड्रन, बीबा बाॅयज़ और एनाटाॅमी आॅफ वाॅयलेंस वे फिल्में हैं जिनका स्वर अधिक आन्दोलनात्मक है और विचार के स्तर पर दोनों ही फिल्मकार अधिक साहसी मानी जाती रही हैं जिन्होंने अपनी फिल्मों से खड़े हुए विवादों का सामना भी निर्भीक होकर किया है। 



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