रविवार, 20 अगस्त 2017

देर आयद / टॉयलेट एक प्रेमकथा......

सभ्यता, सोच, संस्कृति सबकी बात है जिस फिल्म में


संगीत, दृश्य तक कैमरे की सधी हुई पहुँच और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए रोमांचक अनुभवों और अवस्था से गुजरना आज के सिनेमा की पहचान बन गयी है। यह सारी पहुँच की कवायद ज्यादातर हमारी यानी दर्शकों की जेब तक आकर ही सीमित हो जाती है। मन तक कितना पहुँची, कितनों के पहुँची, इसको मापने का यंत्र हमारे आज के फिल्मकार और उनके बाजार सम्हालने वाले गणितज्ञ आज तक नहीं बना पाये और न ही उसको माप पाये। 

अपने प्रदर्शन के इतने दिनों बाद देश के सिनेमाघरों में अगर मुझे टिकिट के लिए कठिनाई होती है या कई घण्टों पहले टिकिट प्राप्त करने का प्रयत्न करने के बावजूद बहुत आगे की जगह मिलती है तो मेरे लिए श्रीनारायण सिंह के निर्देशन की पहली फिल्म टाॅयलेट एक प्रेमकथा देखना रोमांचक लगने लगता है। श्रीनारायण सिंह अपनी दृष्टि और कल्पनाशीलता के सधे हुए एडीटर के रूप में एक दशक में अपनी अच्छी पहचान बना चुके हैं। अनेक फिल्में एडिट की हैं, संयोग यह है कि अक्षय कुमार की पिछले पाँच वर्षों की स्पेशल छब्बीस, बेबी, रुस्तम आदि फिल्में भी इनमें शामिल हैं। नीरज पाण्डे की ए वेडनेस्डे का नाम इन सबके पहले आना चाहिए।

टाॅयलेट एक प्रेमकथा के बारे में आजकल में ही पढ़ने में आया कि अब वह सौ करोड़ अर्जन के क्लब में शामिल हो गयी है। मेरा कहना पहले पैराग्राफ के ही अनुसरण में है कि वास्तव में यह धनअर्जन से अधिक मनअर्जन के करोड़ों के क्लब में पहले ही पहुँच चुकी है। पाठक अतिश्योक्ति न समझें, मनोरंजन के सारे तत्वों, संवादों में तत्परता के गिमिक, प्रत्युत्पन्नमति, हाजिर जवाबी, तनाव के विषय को डील करते हुए भी चरित्रों के चेहरे पर तनाव या हताशा का न आना जैसे बहुत सारे पक्ष हैं जो इस फिल्म को सुरुचिपूर्ण बनाते हैं।

कैसे टाॅयलेट एक प्रेमकथा ब्याह कर लायी जाने वाली अपनी उस जीवन संगिनी के मान-मर्यादा की एक चुनौती नायक के लिए बनती चली जाती है जो बाद में पिछड़े और दकियानूसी मानस से लगभग झगड़ती है, यह सब एक के बाद एक घटित होते देखना जितना दिलचस्प बना रहता है, उतना ही मन को भी छूता है, उतना ही संवेदना को जाग्रत करता है, उतना ही करुणा को भी उपजाता है। वास्तव में यह बहुत बड़ी सचाई है जब गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में घरों में शौचालय का अभाव होने के कारण लोग खेत, जंगल, झाड़ियों और झुरमुटों में जाने को विवश हैं। लाज, मान-सम्मान और दुर्घटनाओं तथा हादसों के भय इन सबके बीच उतनी ही ज्वलन्तता के साथ काम करते हैं। स्वयं हमारे सामने ऐसे उदाहरण मौजूद होते हैं जब हमारी रेल या सड़क यात्रा करते हुए हम रात के झुटपुटे में या गहरी भोर में किसी शहर, गाँव या सड़क से गुजरते हैं तो घबराकर, सहमकर, शर्म और ग्लानि के मारे लोग एकदम से खड़े हो जाते हैं। निश्चित ही वह क्षण हमारे लिए भी, यदि हम जरा भी संवेदनशील हैं तो लज्जा से भरा होता है।


केशव और जया का प्रेम ही इस विद्रूपता से जूझकर लड़ता है। केशव का असली संघर्ष अपने पिता पण्डित जी और उनके संकीर्ण सोच से है। स्थितियों को पीढ़ियों से यथास्थिति स्वीकार करने वाली महिलाएँ विवशता का चेहरा हैं। केशव का भाई नारू हमेशा उसके साथ है, हर मुश्किल से लेकर रोमांस पकने तक। इतना कि सुहागरात में बीच में सोने की बात भी करता है। नायक का अपनी प्रेमिका को जुगाड़ के साथ टाॅयलेट मुहैया कराने के प्रसंग दिलचस्प हैं फिर चाहे वो प्रधान जी का घर हो, रेल हो या फिर शूटिंग लोकेशन से पोर्टेबल टाॅयलेट चुराकर लाने तक। फिल्म डायरेक्टर नायक को छुड़ाता है यह कहकर कि आज तक इस तरह की चोरी सुनने में नहीं आयी। इस मानसिक चुनौती के बीच नायक-नायिका का रोमांस दिलचस्प है, वाट्सअप पर रात को बारह बजे तक एक-दूसरे को आॅललाइन देखकर लगाये गये अनुमान भी।

अक्षय कुमार की बड़ी उम्र को नायिका के मुँह से भी कहलवाया गया है। हालाँकि नायक बताता है कि किन वजहों से वह उतना बड़ा होता चला गया और शादी न हो सकी। उसके लाॅजिक कम उम्र प्रेमिका को रास आते हैं और प्रेम हो जाता है। कई संवेदनशील दृश्य हैं जब आप भावुक हो जाते हैं। नायक कई बार नायिका की शिक्षा और हाजिर जवाबी के मुकाबले पिछड़ जाने के बावजूद हार नहीं मानता। सायकिल के पीछे रेडियम वाली प्लेट लगाने का हुक्म देने वाला नायक प्रभावित करता है।

अंशुमान महाले की सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है। वो शहर को बहुत भव्यता के साथ एक्सपोज करते हैं। लट्ठमार होती के हवाई दृश्य भी कमाल के हैं। श्रीनारायण सिंह की यह पहली फिल्म है जिसे उन्होंने एडीटिंग काम की अपनी प्रतिभा और दक्षता के साथ ही बहुत गम्भीरता से लिया है। एक मुकम्मल सिनेमा के रूप में वे इसे जिस तरह आगे बढ़ाते हैं, वह उनका मौलिक कौशल है जिसकी यह पहली सफल परीक्षा उन्होंने पास की है। वे अपनी जिम्मेदारी में खरे उतरे हैं, कहीं भी पीछे नहीं हटे, यह दर्शक भी स्वीकारते होंगे तभी आज भी सिनेमाहाॅल खाली नहीं हैं। 

यह फिल्म बाद के आधे घण्टे में सरकार के समर्थन और उसके लक्ष्यों को भी अपनी कहानी में शामिल करती है। सनसनी, कौतुहल और लोकप्रियता के लिए निरर्थक सवाल मुँह में डालकर रेटिंग बढ़ाने वाले चैनलों को संवादों में आड़े हाथों लिया गया है। भूमि पेड़नेकर और अक्षय कुमार अपनी प्रतिभा अनुरूप परदे पर बहुत आश्वस्त करते हैं। सुधीर पाण्डे बड़े दिनों बाद दीखे हैं लेकिन सिनेमा में एक महत्वपूर्ण किरदार के साथ। आखिरी दृश्य अच्छा है जब उनका हृदय परिवर्तन होता है तो नायक कहता है, तबियत खराब तो नहीं हो गयी! भाई की भूमिका में दिव्येन्दु शर्मा और नायिका के पिता अतुल श्रीवास्तव और माँ आयशा रजा मिश्रा ने अपने चरित्र बखूबी अदा किए हैं। अनुपम खेर का सनी लिओनी आकर्षण साधारण क्षेपक सा है जो नजर आता है। 

#akshaykumar #bhumipednekar #anupamkher #shreenarayansingh #toiletekpremkatha 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें