शनिवार, 15 दिसंबर 2018

।। केदारनाथ ।।

एक प्रेमकहानी में कुछ प्रेमरस

 



केदारनाथ उस तरह से कोई साधारण फिल्म नहीं है जैसी प्रत्युत्पन्नमति समीक्षकों ने आनन-फानन उसे देखकर समीक्षा कर डाली है। कुछ वर्षों से इन्स्टेण्ट समीक्षा का अजीब सा कायदा बन गया है हमारे यहाँ मीडिया में जिसमें देखने के लिए भी वक्त नहीं है और सोचने के के लिए भी। लिख देने की जल्दी है, दौड़कर आगे निकल जाने की भी जल्दी है भले ही ठहरकर विचार भी न कर पाये हों। केदारनाथ अभिषेक कपूर निर्देशक एक अच्छी प्रेमकथा है जिसकी पृष्ठभूमि में शीर्षक अनुरूप केदारनाथ में पाँच साल पहले आयी आपदा लगातार साथ चलती है लेकिन आप उसको उस स्थान, उस कस्बे की एक काल्पनिक कहानी मानकर देखो, जैसा कि फिल्म के शुरू में स्पष्ट भी किया गया है, तो उसे एक सुरम्य स्थल पर युवा प्रेमकहानी के रूप में देखना अच्छा लगता है। मैंने यह फिल्म कल रात में देखी और आधा हॉल भरा भी पाया, यह दूसरे सप्ताह की स्थिति है जो बाजार की दृष्टि से भी बुरी नहीं है।

केदारनाथ तीर्थ में मन्दिर तक पहुँचने में असहाय और असमर्थ श्रद्धालुओं को अपनी पीठ पर बैठाकर मन्दिर की चौखट तक छोड़ने वाला नायक है जिसके पिता भी यही काम करते थे लेकिन एक दुर्घटना में, जब वह छोटा था, चल बसे थे। माँ और एक शायद भांजा उसके साथ, यही परिवार है। नायिका, दो बहने हैं, माँ और पिता। इनकी अलग कहानी है, नायिका छोटी बहन है जिसके लिए जिन्दगी का उस समय तक अर्थ उच्छश्रृंखलता है जब तक वह नायक से नहीं मिलती। नायक से मिलने के बाद फिर प्रेमकहानी है, मिलना है, नायक का नायिका को पिट्ठू पर बैठाकर घुमाना फिराना और गाना गाना भी।

नायक-नायिका के प्रेम के फलीभूत होने की अपनी बाधाएँ हैं, विशेषकर आसपास, समाज, धर्म यही सब। इसके बीच नायक बहुत विनम्रता और आत्मविश्वास के साथ मनुष्यता के पक्ष में अच्छे तर्क रखता है। फिल्म में नायक की माँ का अन्देशों और डर से भरा हुआ होना, नायक का अपने आपमें नायिका के प्रति, प्रतिबद्ध होना कहानी के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। फिल्म में सहायक अभिनेता अपनी तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, वे सीमित भी हैं। प्राकृतिक संकट और विनाश की भयाक्रान्तता क्लाइमेक्स में बखूबी प्रस्तुत की गयी है। एक बड़े सजीव से सेट पर यह फिल्म चरितार्थ होती है। खूबसूरत गानों और उनके संगीत के साथ। विशेषकर आरम्भ में शिव की वन्दना का जो गीत है, संगीतकार अमित त्रिवेदी का ही गाया हुआ, पूरे परिवेश और भव्यता में गजब का लगता है। यह जितनी सुशान्त की फिल्म है उतनी ही सारा की भी।

सुशान्त के चेहरे पर प्रकृतिप्रदत्त सौम्यता बहुत सुहाती है। संवेदनशील और कोमल भावों की अभिव्यक्ति में वे मन को छूते हैं। सारा को देखते हुए अमृता याद आती हैं बेताब की। मिलता हुआ चेहरा, दुस्साहसी और चंचल चरित्र में वे जितना कमाल करती हैं भावनात्मक दृश्यों में वे उतनी ही प्रीतिकर भी। बहन की भूमिका में पूजा गोर का किरदार सीमित होते हुए भी रेखांकित होता है। फिल्म के अन्त में जब विनाशलीला समाप्त होने के कुछ वर्षों बाद का केदारनाथ दिखाया जाता है, तब अपने प्रेमी की याद में रेडियो में उस गाने की फरमाइश के साथ फिल्म का खत्म होना मन को छू जाता है जो पिछले किसी एक क्षण में नायक, नायिका के सामने गाता हैं। यह एक नम अनुभूति के साथ दर्शकों को सिनेमाहॉल से विदा करना है।

बड़े दिनों बाद किसी फिल्म में गीत के नाम पर गीत और संगीत के नाम पर माधुर्य का एहसास हुआ है। आज के समय में लम्बे समय तक गीत याद नहीं रहते मगर हमारे मन में इस फिल्म के गानों को लेकर एक सकारात्मक राय तो बनती ही है। फिल्म की मूल कहानीकार कनिका ढिल्लन हैं, खूबसूरती से उन्होंने एक मर्मस्पर्शी कथा रची है, अभिषेक कपूर एक नाम की तरह यहाँ उनके साथ श्रेय लेते हैं, वे निर्देशक जरूर अच्छे हैं, रॉक ऑन और काय पो छे के बाद इसमें वे प्रमाणित करते हैं।

तुषारकांत राय की सिनेमेटोग्राफी बहुत खूबसूरत है। कला निर्देशन में भी अच्छी कल्पनाशीलता के लिए आर्ट डायरेक्टर संजय कुमार चौधरी की सराहना की जानी चाहिए।
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