शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

नदी की सन्निधि में.........

लगता है वो मुझे अपने में एकाग्र होने नहीं देतीं। वो जहाँ पर हैं वहाँ वे इस बात का प्रयत्न करने में और आसानी से सक्षम हैं। धीरे-धीरे दिन सालों में बदलते जा रहे हैं। मैं काँच में अपना चेहरा हर दिन ही देखा करता हूँ। जान नहीं पाता, बड़े आघात कहाँ से क्या कुछ छुड़ाकर अपने साथ ले जाते हैं। ऊपर से कुछ समझ में नहीं आता। भीतर से भी कितना आता है, कहना मुश्किल है। 

स्मृतियों में कौंधता है, एफ टाइप दो मकानों में लगने वाला वह स्कूल जिसमें मैंने पढ़ना शुरू किया था। पहले दिन मुझे अच्छा तैयार किया गया था और बस्ता, जूता-मोजा, हाफ पैण्ट, बुशर्ट आदि पहनाकर वो मुझे स्कूल छोड़ने आयीं थीं। टीचर से भीतर बात की थी और थोड़ी देर में जब प्रार्थना की घण्टी बजी तो बाहर बच्चों की लाइन लगने लगी जिसमें मैं भी खड़ा कर दिया गया। प्रार्थना हो रही थी और लाइन में खड़े मैं उनको देख रहा था। आधी प्रार्थना हो चुकी तो वे मुझे देखते हुए मुस्कराकर जाने लगीं। उनको जाते देखकर मैं रो कर उनकी ओर दौड़ पड़ा और पीछे से जाकर उनकी साड़ी पकड़ ली, कहने लगा घर जाना है। उनको हँसी आ गयी पर मेरा रोना बन्द नहीं हुआ। 

बड़े होते हुए पता नहीं कितने ऐसे अवसर आये होंगे जब उनकी तबियत खराब हुई, वे बीमार पड़ीं पर साथ बनी रहीं। पिछली बार फिर उनको मैं पकड़ न सका, वो एकदम अन्तर्ध्यान हो गयीं अपने भीतर से। ओर-छोर हम कुछ भी न समझ पाये। अब वे बहुत सारी फोटुओं में हैं जिन्हें देख पाना सहज नहीं होता, जिन्हें देखते हुए अपने आपको सह पाना भी सहज नहीं होता। वे अक्सर अपनी माँ, हमारी नानी को याद करके कहा करती थीं, नहीं रहने के बाद अम्माँ हमें कभी सपने में भी नहीं दीखीं। कभी-कभी वे बतलाती थीं कि तुम्हारी नानी को सपने में देखा, उन्होंने कहा, मुनियाँ, हम अकेली हैं। अब हमारे पास घर भी बड़ा है, तुम भी वहीं चलो। इस पर मैं उनके हाथ जोड़ लिया करता था, यह कहते हुए कि ऐसे सपने मत देखा करो। और नानी की बात भी मानने की जरूरत नहीं है तब वे शरारतन हँसने भी लगतीं, वे हम सबकी घबराहट को भाँप जातीं थीं। त्यौहारों को लेकर उनके अपने सिद्धान्त बड़े स्पष्ट और साफ से थे। हम लोगों के प्रायः अलसाये रहने पर वे कहा करती थीं, सब दिन चंगे, त्यौहार के दिन नंगे। वे चाहती थीं घर के लोग तीज-त्यौहार के दिन सुबह से ही तैयार हो जायें और घर को भी उसी तरह व्यवस्थित करें। 

अब उनके बिना ये त्यौहार पूरे दिन सहना बड़ी हिम्मत का परिचय देने जैसे हैं जिसमें संयत बने रहना ही सबसे बड़ी परीक्षा होती है। पीर-पके मन में बहुत उथल-पुथल मचती है। कोई कोना-छाता समझ में नहीं आता जहाँ दो पल अपने में उसी व्यथा के साथ रहा जा सके। चारों तरफ ऐसे व्यवधान हैं जो पूरे जीवनभर भ्रमित करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। दीपावली पर उनको अनार बहुत पसन्द थे। पटाखों के साथ अनार उनकी इच्छा से चार-पाँच जरूर लाये जाते। उन अनारों को छुटाने (जलाने) के समय उनको बाहर बुला लिया करते थे। अनारों का भरपूर दम भर ऊपर जाना और एकदम से दानों का बिखर जाना उनको बहुत सुहाता। उतना देखकर वे भीतर चली जातीं हम लोगों का खाना बनाने के लिए। 

पिछले साल मन किया, उनकी आभासी सन्निधि में कुछ अनार जलाऊँ। नर्मदा, गंगा, संगम और शिप्रा में उनकी आभासी सन्निधियाँ हैं क्योंकि उनके दिव्यांश वहाँ प्रवाहित किए थे। साँझ को इन्हीं इरादों के साथ अपनी व्यथा का मलहम लिए दीपावली के दिन रामघाट पहुँच गया। माँ शिप्रा अपने पूरे ठहराव में थीं किन्तु उनका स्पन्दन महसूस किया जा सकता था। दोनों ओर कुछ दिये जल रहे थे। इक्का-दुक्का लोग। मेरे अनुज से मित्र अमित वहाँ मेरे पास थे। हम लोगों ने वहीं किनारे अनार जमाये। अनार जलाने के लिए फुलझड़ी का प्रयोग ज्यादा सहज है। हमने जलायीं, तभी वहीं एक बच्चा कहीं से आ पहुँचा, आठक साल का जिसने कहा, अंकल मैं जलाऊँ अनार, हमने कहा, बेटा क्यों नहीं। वह खुश हुआ। हमने फिर मिलकर एक-एक करके सभी अनार जलाये। अनार जल चुके, फुलझड़ी के चार पैकेट बचे थे, इस बीच तीन बच्चे-बच्चियाँ वहाँ से निकले गरीब परिवार के जो दोने में आटे की गोली मछलियों को डालने के लिए बेच रहे थे मगर वहाँ उनका कोई गाहक नहीं था। उनको पास बुलाकर एक-एक पैकेट फुलझड़ी का दिया, एक जो बचा वो अनार चलाने वाले बच्चे को। सबके चेहरे पर जो खुशी आयीं वह अनूठी, प्रीतिकर और सुखकारी थी। सबने अपने विवेक से जले हुए अनार कचरे के डब्बे में डाले और हम लोगों को हैप्पी दीवाली अंकल कहते हुए दौड़ते-भागते अपने घर को चले गये। इस बार भी यही किया। दीपावली के दिन तीन बजे दोपहर को उज्जैन की ओर चल पड़ा। बीते साल की तरह रामघाट जैसे बुला रहा था। इस साल भी ऐसा ही। लोग घरों में थे, त्यौहार की तैयारी करते, घाट सूना था। वही इक्के-दुक्के लोग, बच्चे, एक-दो मांगने वाले। इस बार भी अमित और आदित्य मेरे आने से पहले आ गये। हम सबने अनार जलाये, वहाँ घूम रहे बच्चों को भी बुलाकर। आधे घण्टे ठहराव के बाद फिर भोपाल वापसी। 

मैं जानता था कि यह मेरा अपना हठ, अपने आप से है, मुझे लगा कि शायद इसमें मैं अकेले ही शामिल हो सकता हूँ। इसलिए मैंने अपनी निजता में यह कर लिया। लौटते हुए रामघाट पर बिताया समय मेरे लिए अपने मन को जीने का मेरा हठ थे, जिन पर मैं अपना दृश्यबोध छोड़ आया था। शिप्रा का ध्यान करते हुए मोक्षदायिनी नदियों के विषय में मैं सोचने लगा, लाखों-करोड़ों लोगों की पीड़ा और बहते हुए आँसुओं को ये नदियाँ कितनी उदारता से अपने आँचल में समेट लेती हैं। उतना ही सच यह भी है कि इतनी पीर अपने में सहेजे-समेटे वे स्वयं कितनी पीर से भरी रहा करती होंगी। शायद यही कारण है कि नदी के किनारे थमकर बैठना, जीवन के अर्थ का सात्विक और सच्चा व्याकरण ग्रहण करने के बराबर है। हमारे पूर्वज नदी की धरोहर हैं और नदी हमारी समूची मानवीय अस्मिता की.................

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