शनिवार, 13 जून 2020

फिल्‍म / गुलाबो सिताबो

बच्‍चन साहब के साथ लखनऊ पैदल भ्रमण करना हो तो.....

 


पीकू टीम की गुलाबो सिताबो उसके बराबर या उससे दो कदम आगे हो यह जरूरी नहीं है। हमारे आसपास सिनेमा को लेकर अब केवल एक ही गणित काम करता है और वह है कमायी। फिल्म ने कितनी कमायी की? जितना लगाया था उससे खूब बढ़कर मिला कि नहीं या जो लगाया था वह भी चला गया?। सिनेमा का बाजार संगीन है तो संज्ञान भी कुछ ज्यादा है। लोग इस बदले समय में अपने घर के भीतर सिनेमा के चले आने से चकित हैं। खुश भी होंगे क्योंकि सभी दर्शकों के लिए मॉल या आयनॉक्स में जाकर खर्चीला सिनेमा देखना शगल नहीं है। बहरहाल, थोड़ा भटककर फिर गुलाबो सिताबो पर।

जैसा कि नाम है, लगा यही था कि अमिताभ बच्चन एक किरदार होंगे, शायद दो बकरियों के मालिक होंगे और वहीं कोई कहानी गढ़ी गयी होगी। लेकिन गढ़ कुछ और दिया गया है इनके नाम पर। पूरी फिल्म में मिर्जा शेख खुटुर-खुटुर करके चलते नजर आ जाते हैं। एक आदमी है असाधारण लोभ-लालच और क्षुद्रता से भरा हुआ लेकिन उम्र और अवस्था है तो सब धक रहा है। अपने से बारह साल बड़ी बेगम के पति हैं जो उम्र और रुग्णता के कारण मसेहरी पर हैं और एक बड़ी पुरानी जर्जर हवेली की मालकिन हैं। मिर्जा को उनके मरने का इन्तजार है ताकि हवेली उन्हें मिल जाये। हवेली के ही कोने-छाते में कुछ किरायेदार रख लिए हैं जिनसे आये दिन अबे-तबे हुआ करती है। जैसे मिर्जा हैं वैसे ही उनका सम्मान भी। माँ और तीन बहनों के साथ रह रहा बाँके रस्तोगी ही उनके और वे बाँके रस्तोगी के लक्षित रहते हैं। फिल्म में मकान मालिक का आये दिन किरायेदारों को त्रास देना, खाली कर देने की चेतावनी, धमकी के बीच कहानी में पुरातत्व विभाग और वकील के आते ही बिल्डर और चापलूस भी आ जाते हैं और सामने रहकर भी न समझ में आने वाली एक गुत्थमगुत्था चलती रहती है। मैंने महसूस किया कि दो घण्टे किसी तरह घसीटी गयी यह फिल्म डेढ़ घण्टे घटित होकर खत्म होने की अवस्था में आ जाती है मगर लेखिका और निर्देशक आत्मविश्वास से भरे हैं तो वे छोटी-छोटी धज्जियाँ बांधकर फिल्म को उबाऊपन की हद तक ले जाते हैं। तब तक दर्शक का क्या होता है कल्पना की जा सकती है।


पटकथा में कोशिश यही की गयी है कि किसी न किसी बहाने दर्शक को उलझाये रखा जाये। यों कुल जमा अमिताभ बच्चन(मिर्जा शेख) को एक किरदार बनकर लखनऊ की खूबसूरत लोकेशन पर घूमते हुए देखने जैसा वृत्तचित्राना अनुभव ही हमारे हाथ लगता है। लगे हाथ उल्लेख कर दें कि सिनेमेटोग्राफी अविक मुखोपाध्याय की है। महानायक ने किरदार में अपने आपको, अच्छा शब्द है, जेक्सचर-पोश्चर उस सबमें ऐसा आयताकार अपने आपको कर लिया है कि चलते-फिरते दूसरे कलाकार के लिए जगह ही नहीं है। आयुष्मान खुराना(बाँके रस्तोगी) बेचारे बोलने में जीभ का इस्तेमाल करके एक शैली अख्तियार करते हैं मगर कई बार भूल भी जाते हैं। बाँके की उजड्ड नोंकझोंक और मिर्जा के उलझने वाले अन्दाज बहुत दिलचस्प हों, ऐसा बहुत कम लगता है।

मिर्जा में धन, जायदाद की अदम्य लालसा है, वह उसके पूरे व्यवहार में दिखायी देती है। अपनी ही हवेली के किरायेदारों के बल्व और ताले चुराकर बेच देना, पैसों की जुगाड़ में रहना, बेगम तक की सन्दूकची से पैसे चुराना यह सब किसी व्यक्ति को निकृष्ट बताने के तरीके हैं। बाँके की चादर चुराकर खुद ओढ़कर पसरे रहना और जब बाँके उसे पहचानकर छुड़ाकर ले जाता है तो यह कहना कि हमने दिन भर पादा है उसे ओढ़कर सतही दर्शकों को हँसाने के लिए लिखा होगा जूही ने शायद। हवेली बेचने की फितरत में अक्सर पैसा कब मिलेगा, पैसा कितना मिलेगा, सामने वाले से मिर्जा का यह पूछना दिलचस्प है। कई बार अधिक धन की कल्पना भर से चक्कर खाकर गिर जाना रोचक। इस फिल्म में बाँके की बड़ी बहन को इस हद तक समय से आगे बताना कि कई फ्लर्ट करते हुए किसी के साथ भी अपने स्वार्थ के लिए सोने को तैयार, समझ में नहीं आता है। इसीलिए विजय राज(ज्ञानेश शुक्ला) के साथ के दृश्य पैबन्द की तरह हैं। 


इस फिल्म में फारुख जफर की भूमिका बेगम के रूप में बहुत अच्छी निभी है। बाँके की दो छोटी बहनों की भूमिकाओं के लिए अनन्या द्विवेदी और उजाली राज की सराहना करनी चाहिए। जो उसको ताड़ता है सो वो भी आदमी, गूँगा नौकर नलनीश नील अपने हावभाव में बहुत कुछ कह-कर जाता है। मिर्जा का हवेली का लालच, किरायेदारों को खाली कराये जाने का डर और दूसरे मकान की उम्मीद, बेगम का आश्चर्यजनक ढंग से न केवल ठीक हो जाना बल्कि अपने पहले वाले मियाँ के संग भाग जाना, पुरातत्व कर्मचारी, वकील, बिल्डर का अपना स्वार्थ यह सब उत्तरार्ध में अनेक तरह के भटकाव खड़े करते हैं जिसे निर्देशक शूजित सरकार दृश्य दर दृश्य शूट करते चले जाते हैं। इसमें फिल्म का एडीटर(चन्द्रशेखर प्रजापति) भी कुछ नहीं कर पाता। फिल्म खत्म भी बहुत हास्यास्पद ढंग से होती है जिसमें मिर्जा और बाँके दयनीय अवस्था में हवेली के बाहर एक तरफ खड़े होकर हवेली के भीतर मनाये जा रहे बेगम के जन्मदिन के जश्न की रौनक को देख रहे हैं और सिक्यूरिटी गार्ड से अपमानित हो रहे हैं। फिल्म भी इसी तरह अपनी दयनीय स्थिति को प्राप्त होती है जिसमें अच्छे गीत, अच्छा संगीत(शान्‍तनु मोइत्रा) भी कोई मदद नहीं कर पाते। 
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