यह मृत्यु बहुत दुखी कर गयी है सचमुच। हिन्दी सिनेमा जगत को यह एक बड़ा नुकसान है जब एक सौम्य, सुशील और नायक के रूप में दर्शकों के दिलों में बड़े गहरे उतरने वाला प्यारा सा नायक एक दुर्घटना से हम सबके बीच स्मृति शेष होकर रह गया है। यह निरन्तर अकल्पनीय और अविश्वसनीय लगता है कि सुशान्त सिंह राजपूत नहीं रहे। मार्च से लेकर अब तक संकट की जो वैश्विक निरन्तरता रही है उसमें सिनेमा से बहुमूल्य कलाकार एक के बाद एक जाते रहे। निम्मी से यह सिलसिला शुरू हुआ और इरफान, ऋषि कपूर, योगेश जैसे सिने जगत के अहम हस्ताक्षरों की एक के बाद एक विदाई ने हतप्रभ करके रख दिया है।
सोशल मीडिया इस
समय लोगों और लोगों की संवेदना की परख करता हुआ तरह-तरह से उनको प्रमाणित कर रहा
है,
इसी माध्यम में सुशान्त सिंह राजपूत भी एक सक्रिय हिस्सा हुआ
करता था। मैं निजी रूप से कुछ माह से महसूस कर रहा था कि प्राय: ट्विटर में कविता
के माध्यम से अपनी बात करते हुए सुशान्त जिस तरह सक्रिय रहता था, अचानक अदृश्य क्यों है। जिज्ञासा में उनके अकाउण्ट तक भी गया क्योंकि
वे नयी पीढ़ी के कलाकारों में मुझे बहुत आकर्षित करते थे। मुझे उनका अकाउण्ट तक
एक्टिव नहीं दिखा। पिछले 3 जून को उन्होंने इन्स्टाग्राम में अपनी अन्तिम पोस्ट
डालकर अपनी दिवंगत माँ को याद किया था जो 2002 में उनको छोड़ कर चली गयी थीं। वे
मातृप्रेमी, मातृभक्त थे और मॉं का बिछोह उनको सदैव ही
सालता रहता था। हर साल जब मॉं की पुण्यतिथि आया करती थी तब वे बहुत भावुक होकर
अपनी व्यथा किसी न किसी कविता के साथ लिखा करते थे जो उनके ही मन का भाव होता था।
साल-दो साल पहले संवेदना के इसी धरातल पर उनको मेरे द्वारा लिखे गये उत्तर पर
उनकी तवज्जो भी मुझे याद है। निजी रूप से मेरी यह साध थी कि अपने बूते पर अपनी
जगह बनाने और विस्तारित करने वाले इस कोमल छबि वाले नायक से मुम्बई में एक लम्बी
बातचीत जरूर करूँगा जो अब कभी न हो पायेगी।
जब वे बारह साल
पहले लगभग 2008 में किस देश में रहता है मेरा दिल और उसके बाद पवित्र रिश्ता में
काम कर रहे थे तब मैं उनके चेहरे को ध्यान से देखा करता था,
ध्यान से इसलिए देखा करता था क्योंकि उसमें एक तरह का सच्चा और
नैतिक आकर्षण लगा करता था। पवित्र रिश्ता का नायक मानव बहुत नजदीक का पात्र लगता
था। पहले मेरी धारणा यह बनी थी कि इसका चेहरा भावशून्य है लेकिन वहॉं शायद मेरी
परख सही नहीं रही क्योंकि वह भावशून्यता जो मुझे दीखती थी वह गहन भावबोध था। वह
किरदार में उतरा हुआ कलाकार था। उसका फिल्मों में चला जाना या बुला लिया जाना
निश्चित रूप से उसकी प्रतिभा का ही परिणाम था क्योंकि यही एक माध्यम ऐसा होता है
जहॉं निर्देशकों और निर्माताओं को बाजार ने इतना हृदयहीन और निर्मम बना दिया है कि
वे सोर्स-सिफारिश का जोखिम नहीं लेना चाहते, दूसरे अवसरों में जोड़-जुगाड़ की परिपाटी की तरह। इस तरह पॉंच साल टीवी
सीरियलों को देने के बाद सुशान्त हिन्दी फिल्मों का हिस्सा बन गया।
सुशान्त की खूबी
यह थी कि वह योग्य और शिक्षित था। इसके बाद डॉंस के लिए श्यामक डावर और रंगमंच
में अनुभव लेने के लिए वह दो बड़े रंगकर्मियों बैरी जॉन और नादिरा जहीर बब्बर के
साथ काम कर चुका था। वह टीवी सीरियल जीतेन्द्र की बेटी एकता कपूर के साथ करने लगा
था और संयोगवश जब फिल्म मिली तो जीतेन्द्र के भांजे अभिषेक कपूर के निर्देशक में
काय पो चे। काई पो चे का ईशान भट्ट फिर एक किरदार था,
परिस्थितियों से जूझता हुआ, स्वभाव से जूझता
हुआ, अपने भीतर की हार-जीत के द्वन्द्व से जूझता हुआ। वह
अपने आपको इसी किरदार में जैसे सिद्ध करने ही चला आया था तभी फिल्म के साथ वह याद
भी रह गया। इस फिल्म का वह गाना जो बेतरह लोगों के दिलों में उतरा, रूठे ख्वाबों को मना लेंगे, उसी में आगे की लाइनें
स्वानंद किरकिरे गीतकार ने मन को छूती हुई लिखीं थीं, सुलझा
लेंगे उलझे रिश्तों का मॉंझा.........रिश्तों के मॉंझे का जो भी हुआ हो पर जिन्दगी
का मॉंझा उलझ गया और अन्तत: अछोर हो गया। जमीन से उड़ी पतंग आकाश तक जिस तेजी से
पहुँची, उसी तेजी से ओझल होकर न जाने कहॉं चली गयी अनन्त
में।
सुशान्त के लिए
वही बात दोहराता हूँ कि अपने बूते पर ठीक तो चल रहा था। शुद्ध देशी रोमांस,
व्योमकेश बख्शी, एम एस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी,
केदारनाथ, सोनचिरिया और छिछोरे फिल्में
निराशाजनक तो थीं नहीं। आगे भी दो-तीन फिल्मों के लिए अनुबन्धित था, ड्राइव, दिल बेचारा आदि। क्यों अपने को अपने ही में
से घटा लिया इस तरह। क्या पता क्या द्वन्द्व रहे होंगे? शायद
किसी प्रेम प्रसंग या सम्बन्धों में भी नहीं था। सब जगह खबर यही तैर रही है कि
ड्रिपेशन में था, अवसाद में था। इस निर्णय तक पहुँचा और उस
क्षण की अनुभूति जिसमें यह कदम उठाया, अपने साथ ही ले गया यह
सुन्दर सुकुमार नायक सुशान्त जिसके बारे में हम कभी सच न जान पायेंगे। धोनी फिल्म
के लिए उसकी बहुत सराहना होती है लेकिन केदारनाथ उसकी बहुत अच्छी और देखते हुए
बड़ी शीतल अनुभूति, उसके किरदार के प्रति बहुत सारा प्यार
जगाती फिल्म लगती थी। सुशान्त अब नहीं है। उसके नहीं रहने के दिन की अगली सुबह
उसके न जाने कितने चाहने वालों को वेदना में रखेगी। अब तक तीन बार मुझे भी रोना
आया। ऐसे किया जाता है क्या यार? इतना जल्दी में था मॉं के
पास जाने की?
--------------------------------
सुशांत किस पीड़ा में रहा होगा, अब कोई जान न सकेगा। उसकी फिल्म छिछोरे आई थी जो बहुत आशावादी और प्रेरक फिल्म थी। अबतक केदारनाथ देख न पाई थी, कल सुशांत को याद करते हुए फिल्म देखी। फिल्म के अंत में सबको सुरक्षित भेजकर वह खुद अकेला रह जाता है और क्षणभर में जमीन फट जाती है, वह समा जाता है। ऐसे ही अकेला सुशांत सदा के लिए लुप्त हो गया। जाने क्यों लगा कि उस फिल्म में उसके जीवन का सच था। उसने फिल्म में गाया है- लग जा गले कि फिर ... खुद तो चला गया बचे हुए लोगों को असीम दर्द दे गया।
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार जेन्नी। हिन्दी सिनेमा की प्रबल और मोहक सम्भावना के इस तरह अस्तित्व से हट जाने से व्यथित हूँ। शायद इसीलिए लिखते हुए मैं अपने आपको कुछ जगह पर रोक नहीं पाया। जीवन चल रहा है, इस घटना के बाद भी। किसी भी हाल में जिन्दगी से इतना निर्मम नहीं होना चाहिए।
हटाएंजाने क्या है और क्यों है कि उनके जाने की तकलीफ़ जाती नहीं...।
जवाब देंहटाएं14 जून दोपहर करीब ढाई बजे से अब तक एक अजीब छटपटाहट है...। मन अत्यंत व्यथित और विचलित है...बार-बार उनके इंटाग्राम अकाउंट तक जाना और उन तस्वीरों और शब्दों में जाने क्या तलाशना...। कितने वीडियो देखे,उनकी फिल्में के अंश देखें , उनके न होने को अस्वीकार करता मन चलती फिरती उन तस्वीरों में उन्हें देख जैसे उन्हें जीवित मानने की ज़िद पर है...।
उनकी अंतिम तस्वीरें भी किसी ने साझा कर दी अधमुंदी आंखे खुला मुंह लेकिन ताज़गी भरा चेहरा...लगता था झिंझोड़ कर उठा दें और वो उठ कर बैठ जाएं ।
कोई कब कैसे कितना अकेला हो जाता है... यूं जाने का फैसला कर लेता है और किसी को आहट तक नहीं होती। बेहद.... बेहद...बेहद अफसोस से मन भर गया....।
कहते हैं डिप्रेशन था, और उस डिप्रेशन की वजह पर बहुत से कयास भी...। सच क्या है , न मालूम हुआ, न मालूम होने की संभावना है ।
यूट्यूब पर " एशियन पेंट्स व्हेयर द हार्ट इज़ " कितनी बार देखा याद नहीं...उनका घर उनके बारे में कितना कुछ बोलता है...ऐसे इंसान का बहुत खयाल रखा जाना चाहिए था...जिस ख़ामोशी से सुशांत चले गए उसकी प्रतिध्वनि बहुत बेचैन करने वाली है । लेकिन कल शेखर कपूर की प्रतिक्रिया सुनने के बाद से मन सन्नाटे में है...आत्मा निचोड़ ली जैसे किसी ने । क्या यह ऐसा संसार है ?
अभिमन्यु की याद आती है...
बहुत दर्दनाक है यह अगर सच है तो...
ऐसे कौन जाता है ? आत्मा रो पड़ी है जी...
बहुत तकलीफदेह समय लगा है ये कल परसों का। मन और देह का यही है कि चोट लगते ही ठीक होना शुरू हो जाती है पर जिन्दगी जाने के बाद कुछ नहीं हो पाता। न जाने निजता में ऐसा क्या रहा होगा कि यह हो गया। कल्पनातीत है। हर सबक कम से कम इतना ही कह जाये कि ऐ इन्सान तुझे अपनी जिन्दगी से प्यार करना आये।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजो हुआ,कैसे हुआ, क्यों हुआ
जवाब देंहटाएंजैसे हुआ, ऐसे हुआ
वो सोच हमको दे गया,
प्रश्नों को हमको सौंप
उत्तर साथ ले गया।
यही अनुत्त्रितता में हम कुछ दिन घुटेंगे फिर संयत होंगे फिर सामान्य। दुनिया यही है। हम इस दुनिया का हिस्सा। लोग।
हटाएंDeath of Sushant is verrrrrrrry sad .
जवाब देंहटाएंSunil
You have written very good words for him.I wish you had mentioned his relation with Shekhar Kapoor and his film PANI.
Shushant's fan
Bhargav Thakkar
Theatre and media consultant
Ahmedabad
आदरणीय सर, आपका हार्दिक आभारी हूँ प्रतिक्रिया के लिए। शेखर कपूर की पानी का जिक्र इसलिए नहीं कर सका था क्योंकि उसके भी बनने की न्यून सम्भावना और शेखर कपूर के मिजाज का अनुमान पिछले उनके सिनेमाई सृजन के चलते परिणाम पर आती भी कि नहीं, यह सोचकर। इस कलाकार के जाने की वजहों में मुझे इस बात पर कम यकीन होता है कि फिल्में न होना या अवार्ड न मिलना या सराहना न होना जैसे कारण रहे होंगे। सुशान्त के पास पर्याप्त काम और अनुबंध भी थे सर।
हटाएंहृदयविदारक।
जवाब देंहटाएंसुशांत अंतर्मन से कितना अशांत..जिस रुपहले पर्दे पर हमारी भावनाओं को उद्वेलित करने वाले कलाकार अश्रु धारा को बी हा देते है..जीवन में आनंद के इन्द्र धनुष रच देते है..जीवन को अपने अभिनय से एक नवीन व्यक्तित्व को गड़ने का संदेश देते है..नव रसो का रसास्वादन करवाते है..वास्तव में वे स्वयं कितने अवसाद में जीवन जीते है..स्टेटस,कास्ट काउच,प्रेम,अवॉर्ड, स्टार डम ,अति व्यस्त जीवन,डिप्रेशन,अर्थ लिप्सा,प्रशंसकों की चाहत,षड्यंत्रों,मध्य रात्रि की फाइव स्तर पार्टी आदि आदि के मध्य संघर्ष कर बने रहना होता है..उभरते स्टार को फिल्मी बाज़ार से गिराने वाले खू खार सम्मानित व्यक्तित्वों से जूझना आसान नहीं होता है..पूर्व वर्षो में गुजरे फिल्मी कलाकारों के जीवन लीला समाप्त करने के हादसे से भी सुशांत की तरह उसके इर्द गिर्द नज़र आते है..सुशांत की आत्म हत्या भी प्रभावी हाथों के तले एक रहस्य बनकर ही रह जाएगी..प्रिंट और सोशयल मीडिया पर हम अपने दर्द को साझा कर एक नए हादसे से फिर रूबरू होंगे..आपने विचारो की श्रंखला में समाहित किया.. *सुनील जी* आपके आलेख आपके मन की अभिव्यक्ति का आईना है..सादर आदरांजलि
जवाब देंहटाएं