सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

पाँच

हमेशा अधूरी बात करने के लिए धिक्कारा जाता रहा हूँ। कहा जाता है कि बात लेकर तो पूरी गया हूँ लेकिन कर के अधूरी आया हूँ। नहीं पता इसके पीछे वज़हें क्या रहती होंगी। यह भी इस नादानी के साथ जुड़ता रहा है कि बात पूरी सुनता नहीं हूँ। अपना सच यह है कि बात पूरी सुनता हूँ। अपना सच यह भी है कि पूरी बात सुनने से ज़्यादा समझता भी हूँ। फिर भी बात पूरी नहीं कर पाता। सुनने से ज़्यादा समझ लेना शायद गलत होता है। यही कारण रहता होगा कि पूरी बात नहीं कर पाता। अपने-आपमें एक अधूरा वक्तव्य जैसा ही हूँ शायद। कभी-कभी यह भी लगता है कि बहुत अधिक इकट्ठा कर लेना और वह भी सारा का सारा अधूरा ही क्योंकि जो कह दिया गया होता है वह तो अध्ूारा होता ही है और जो अनकहा रह जाता है वह नितान्त अधूरा ही कहा जायेगा। कहा जायेगा, यह अपनी समझ हो सकती है। उपेक्ष के लिए इसका अर्थात कुछ दूसरा ही होगा। अधूरे कथ्यों का संज्ञान भी कोई नहीं लिया करता। कहे और शेष रहे अधूरे कथ्य कहीं अपना अर्थ खो भी रहे होते हैं और अर्थ बचा भी रहे होते हैं। अन्तस धरातल पर स्वप्न निरे बचपन में नये चमकदार कंचे खेल रहे होते हैं। ठहर गया अधूरापन भीतर ही भीतर इन्हें देखकर मुग्ध हो रहा होता है....................

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें