शनिवार, 23 जुलाई 2016

रंगों के रसिक थे सैयद हैदर रजा



रजा साहब का जाना मध्यप्रदेश में जन्मे, अपनी मातृभूमि को बेहद प्यार करने वाले एक ऐसे संवेदनशील कलाकार की विदाई है जिन्होंने बड़ी ही छोटी उम्र से जीवन की सूक्ष्मताओं और भावनाओं को बड़े महीन एहसासों के साथ ग्रहण किया। उनसे कुछ वर्ष पूर्व भोपाल में एक लम्बी मुलाकात में बहुत सी बातों को सुनने और जानने का मौका मिला था। उस समय करीब 86 की उम्र में भी जिस तरह से वे बात कर रहे थे, सचमुच लग रहा था कि अपनी मिट्टी के नजदीक बने रहने वाला इन्सान दुनिया में कहीं भी चला जाये, मिट्टी से छूटता नहीं।

रजा साठ साल से ज्यादा पेरिस में रहे लेकिन साल में एक बार हिन्दुस्तान, मध्यप्रदेश और अपनी जन्मभूमि बावरिया, नरसिंहपुर, मण्डला, शिक्षास्थली दमोह के निकट तक जाना, वहाँ की मिट्टी को माथे से लगाना उनका छूटता नहीं था। उन्होंने बताया था कि कैसे नर्मदा के आसपास विंध्याचल और सतपुड़ा के प्राकृतिक सौन्दर्य ने बचपन को एक अलग ही अनुभूतियों में ढालने का काम किया। रजा साहब को अपने मास्टर बेनीप्रसाद स्थापक याद रहे जो हिमालय के आश्रम में जाते थे तो लौटकर प्रकृति और जीवन के बारे में बताते।

रजा किशोर अवस्था में ड्राइंग बनाते थे, तारों को पर्वतों को देखकर। उनके शिक्षक दरियाव सिंह राजपूत उनकी ड्राइंग की बड़ी प्रशंसा करते थे। आगे चलकर वे नागपुर गये जहाँ वे अपने गुरु बापूराव आठवले को कभी भूल न पाये। रजा कहते थे कि युवावस्था में मेरा दिमाग उतना जाग्रत नहीं था जितना हृदय। गांधी जी की बात वे बताते थे, बुद्धि तो हृदय की दासी है। रजा साहब अपने अध्यापकों, गुरुजनों के प्रति जितना कृतज्ञ होते थे वह बात अनूठी है।

रजा साहब को चित्र और कविता दोनों ही का समान रुझान रहा है तथापि वे ख्यात एक बड़े चित्रकार के रूप में हुए। उनके घर में कवि गोष्ठी और शायरी की सभाएँ होती थीं। मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पन्त की कविताएँ उनको स्मरण रहीं। वे भगवद्गीता से लेकर आचार्य विनोवा भावे को लेकर बहुत बातें किया करते थे। रजा साहब की सृजन यात्रा नागपुर से जे जे स्कूल आॅफ आर्ट्स मुम्बई और अपने समकालीन कलाकारों आरा सूजा, बाकरे, गाडे सबके साथ मिलकर एक ग्रुप भी बनाया। उनका फ्रांस जाना यहीं से हुआ।

रजा ने बताया था कि फ्रांस में अनेक वर्ष रहते हुए कला पर व्यापक विचार के अवसर मिले लेकिन मुझे अपने बचपन के गुरु जड़िया जी का स्मरण हो आया तब मैंने बिन्दु को अपना मूलमंत्र बना लिया। बिन्दु की सम्भावनाएँ, विसर्ग, प्रकृति पुरुष की अवधारणा, मेरा मण्डला। भारतीय संस्कृति, चित्रकला, मूर्तिकला को समझने की कोशिश की। नंदलाल जड़िया, अपने गुरु को आदर देते हुए वे बिन्दु पर गहन एकाग्र हुए। रजा ने बिन्दु सीरीज के चित्रों में स्याह-सफेद के बाद रंगों का प्रयोग किया। बताया था, क्षिति जल पावक गगन समीरा, ये पंचतत्व, भारतीय संस्कृति। मेरे चित्रों में पाँच रंग, मेरा संसार पाँच रंगों का, क्यों न इनको ही मैं अपना पंचतत्व बना लूँ? मैंने ऐसा किया। कुछ समय बाद सबको यह पसन्द आने लगा।

सैयद हैदर रजा को वर्ष 1992-93 में रूपंकर कलाओं के क्षेत्र में राष्ट्रीय कालिदास सम्मान प्रदान किया गया था। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी में अपनी सहभागिता से उन्होंने कविता और पेंटिंग के क्षेत्र में रजा पुरस्कारों की स्थापना की पहल भी की। उनको पद्मश्री, पद्मभूषण एवं पद्मविभूषण अलंकरण भी प्राप्त हुए। दुनिया के अनेक देशों और हिन्दुस्तान के अनेक कला संग्रहालयों में उनकी कलाकृतियाँ संग्रहीत हैं। नईदिल्ली में रजा फाउण्डेशन उनकी स्थापना है।

रजा को भारतीय संस्कृति और परम्परा पर गर्व रहा है। रजा वास्तव में ऐसे कलाकार थे जिनको रंगों का रसिक कहा जा सकता है। इस बात को उन्होंने स्वयं भी कहा था। रंग, कविता और संगीत मिलते-जुलते हैं। वे कहते थे कि भारतीय संस्कृति शताब्दियों से उपस्थित है। मूर्ति में, कला में, गुफाओं में, पहाड़ों में इसका दर्शन होता है। हमारे मन्दिरों में, हमारे घरों में, हमारी परम्पराओं में भी। वे कहते थे कि प्रत्येक भारतीय को इसका बोध होना चाहिए, केवल कला ही नहीं पत्रकारिता, कविता, तकनीक, आॅफिस में काम करने वाले, राजदूत, सरकार के लोग सबकी जिम्मेदारी देश की संस्कृति को आगे बढ़ाना है। यह आवश्यक है क्योंकि भारतीय संस्कृति महान है।

कुछ वर्ष पूर्व एक आत्‍मीय बातचीत को याद करते हुए श्रद्धां‍जलि.

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