रविवार, 10 जुलाई 2016

सुल्तान (Film Review : Sultan)



अली अब्बास जफर (Ali Abbas Zafar) ने लम्बे समय यशराज फिल्म्स में सहायक निर्देशकी की है। उनको शाद अली, संजय गढ़वी और विजय कृष्ण आचार्य के साथ काम करने का लम्बा अनुभव है। मेरे ब्रदर की दुल्हन और गुण्डे उनको स्वतंत्र रूप से निर्देशित करने को मिलीं और सुल्तान (Sultan) उनकी तीसरी फिल्म जिसके लेखक, पटकथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक वे हैं। बाजार देखकर कहें तो फिल्म सफल है, सबसे लम्बा सप्ताहान्त फिल्म को मिला है। आकलन करें तो अनेक खूबियों के साथ एक बेहतर फिल्म है। सम्पादन के स्तर पर और सम्हाल लिया जाता तो साढ़े तीन अन्यथा तीन सितारों वाली फिल्म है सुल्तान।

यशराज फिल्म्स (Yash Raj Films) के मूल स्वभाव में पंजाब और हरियाणा के परिवेश, वहाँ की बोली-बानी और नैसर्गिकता को किसी फिल्म की पृष्ठभूमि बनाने का चलन शुरू से है। सुल्तान में हरियाणा है। निश्चित रूप से सुल्तान की कहानी और पटकथा तैयार करते वक्त नायक के रूप में सलमान (Salman) तय हो गये थे लिहाजा उसी हिसाब से चरित्र रचा गया है। मनुष्य को जीवन में लक्ष्य किसी न किसी तरह की चोट खाकर ही दिखायी देता है। यहाँ भी नायक के गाल पर नायिका की हथेली है। एक दिलचस्प फिलाॅसफी है, डाॅक्टर की शादी डाॅक्टर के साथ, इंजीनियर की शादी इंजीनियर के साथ तो पहलवान की शादी भी पहलवान के साथ।

सफलता और लोकप्रियता के साथ अपनी जमीन से उखड़ना, टूटना और अहँकार ओढ़ लेना फिल्म का मोड़ है। यहीं पर एक घटना, दुर्लभ श्रेणी का खून न मिलने की समस्या, ब्लड बैंक स्थापित करने के लिए मंत्री की बरसों से भेजी फाइल के लौटकर न आने की विडम्बना। घोर नैराश्र्य के बाद फिर अपनी शक्तियों को संचित करना, जूझना और जीतना फिल्म का सार है। अनिल शर्मा की अपने, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की भाग मिल्खा भाग आदि बीच-बीच में याद आती हैं। हमारे यहाँ पूर्णतः मौलिकता हमेशा समस्या है। प्रेरित या प्रभावित किसी से भी हुआ जा सकता है।

देसी पहलवानी से आधुनिक कुश्ती तक एक माहौल फिल्म में है। एक ऐसा खेल जिसका हीरो एक ही होता है जो जीतता है। फिल्म के दो भाग हैं, एक नायिका को पाने के लिए विजेता बनना जिसमें प्रेम और ख्वाहिशें चरम पर हैं दूसरी ओर दोबारा अपनी पत्नी के हृदय में अपना वही स्थान बनाना जिसे खोया जा चुका है। निर्देशक दोनों जगहों पर अपनी क्षमताओं का परिचय देता है लेकिन पहले भाग में उसकी कल्पनाशीलता निखर कर आती है। हालाँकि पतंग लूटने की दक्षता और उसके प्रसंग आवश्यक नहीं लगते लेकिन रखे गये हैं। इसी प्रकार बाद में भी अप्रासंगिक गाने फिल्म के लिए कोई मददगार नहीं होते। जितनी देर नायक नासमझ दीखता है, उतने समय में सुल्तान अपनी खूबियों के साथ स्थापित होता है। पत्रकारों से बात करते हुए पहले और दूसरे भाग के दृश्य और प्रसंग किसी भी लोकप्रिय या प्रतिष्ठित इन्सान के विवेक को जाँचने के लिए काफी हैं। उत्तरार्ध में कुश्ती में जीतने के जुनून और उसमें हर अगले पल के प्रति अनिश्चितता वह रोमांच खड़ा नहीं करती जो फिल्म को सार्थक रूप से अन्त तक ले जाये। उसमें जितनी देर, कैमरे के जितने नजदीक से सलमान की छबि को लिया गया है, उम्र नजर आती है। यदि पहले भाग की खूबसूरत रूमानी कहानी को ही उत्तरार्ध में भी संवेदनशील विस्तार देते हुए समाधान निकाल लिया जाता तो फिल्म यशराज का एक और बड़ा और इस दौर का अच्छा उदाहरण बन जाती। 

सलमान खान, स्वाभाविक रूप से अपने पहले भाग में खूब जँचते और फबते हैं। अंग्रेजी न जानना, अंग्रेजी में की गयी फजीहत को भी अपने लिए पुरस्कार मानकर उसे अपने लिए दोहराना दिलचस्प है। बड़ी उम्र तक जीवन के अर्थ को न समझना, परिवार में बच्चा बने रहना, मोहल्ले और आसपास भी गम्भीरता से न लिया जाना, बहुतों का बचपन रहा है लेकिन यह भी उदाहरण हैं कि अनेक ऐसों को जीवन एक दिन समझ में खूब आया है। इस फिल्म का खूबसूरत पक्ष यह भी है कि इसमें कोई खलनायक नहीं है, गुण्डे नहीं हैं, उस तरह की मारपीट नहीं है। फिल्म को सीधे-सीधे जीवन और लक्ष्यों के साथ-साथ प्रेम और निष्ठा पर केन्द्रित किया गया है। सलमान इन जगहों पर अपनी क्षमताओं का परिचय देते हैं। झूले पर पदक छोड़ आना और आखिरी लड़ाइयों में वह स्मृतियों में कौंधना प्रभावी लगता है। अपने स्पर्धी को पछाड़ने के बाद नमस्कार करके क्षमा मांगना भी दिलचस्प है। अनुष्का शर्मा यशराज कैम्प की नायिका हैं। सलमान पहली बार उनके साथ हैं। उनको एक पहलवान की बेटी और संस्कार में कुश्ती की दक्षता एक अच्छी स्थापना है। वे मेकअपरहित हैं लेकिन भावपूर्ण दृश्यों में अपनी छाप छोड़ती हैं। उनका अपने नायक से रूठना और बड़ी मुश्किल से माफ करना दोनों गहरे हैं। 

यह फिल्म वास्तव में सहयोगी कलाकारों के अच्छे और आश्वस्त काम से और बेहतर लगती है जिसमें अनुष्का के पिता के रूप में कुमुद मिश्रा, सलमान के मित्र गोविन्द के रूप में अनंत शर्मा, छोटी सी भूमिका में परीक्षित साहनी, दोबारा कुश्ती की दुनिया में लेकर आने वाले परीक्षित के बेटे की भूमिका में अमित साध के किरदारों को याद रखना चाहिए। कुमुद मिश्रा का बांदर वाला संवाद दिलचस्प है। फिल्म के गीत इरशाद कामिल ने खूब लिखे हैं। विशाल-शेखर ने संगीत अच्छा तैयार किया है। राहत फतेह अली, सुखविन्दर सिंह, मीका सिंह और स्वयं शेखर का तैयार किया हुआ पाश्र्व गीत खून में तेरे मिट्टी प्रभावित करते हैं। सुल्तान को आॅर्टर जुराव्स्की की सिनेमेटोग्राफी  के लिए भी प्रशंसा की जानी चाहिए। यह पोलिश सिनेछायाकार मर्दानी से रानी मुखर्जी के सम्पर्क में आये और उनको सुल्तान की सिनेमेटोग्राफी मिली। सुल्तान आॅर्टर की कल्पनाशीलता और जोखिमपूर्ण सिनेछायांकन से ही रोमांचक बनी है। रामेश्वर एस. भगत को सम्पादन करने की थोड़ी स्वतंत्रता और मिलती या वे इसे कसी हुई ढाई घण्टे की फिल्म बनाते तो बात कुछ और होती। सलमान के लिहाज से कहें तो अब भी बजरंगी भाई जान उनकी सुल्तान से श्रेष्ठ फिल्म है। जोड़ने की बात यह भी है कि सुल्तान को इसके बावजूद दर्शक दोबारा देखना चाहेंगे अर्थात इस फिल्म की फिलहाल रिपीट वैल्यू भी है...............

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