शनिवार, 21 अप्रैल 2018

एक संवेदनशील फिल्‍म जो अन्‍त में भटक गयी.....

फिल्‍म समीक्षा / अक्टूबर


इस फिल्म के नाम को लेकर प्रदर्शन पूर्व तक अचरज बना रहना स्वाभाविक ही था। दर्शक इसके आगमन की झलकियों से खीज भी सकता था यदि इसमें शूजित सरकार, जूही चतुर्वेदी जैसे सर्जनात्मक नाम न जुड़े होते। यही कारण रहा शायद कि अप्रैल में भी अक्टूबर का दर्शकों ने स्वागत किया। अपनी तरह से यह फिल्म निरर्थक नहीं है, अच्छी बनी है लेकिन देखते हुए दर्शक और समीक्षक भी यदि बहुत ज्यादा भावुक हो रहे हैं तो थोड़ा सजग होकर देखना जरूरी लगता है।

अक्टूबर उन युवाओं में शुरू होती है जो जिन्दगी बनाने, शुरू करने के स्वप्न देख रहे हैं। गनीमत है कि शुरू-शुरू में किसी को भी प्रेम नहीं हुआ है। एक बड़े सितारा होटल का प्रत्यक्ष और नेपथ्य, उसकी हलचल, पूर्वरंग और परोक्ष परिस्थितियाँ हमारे सामने सुरुचिपूर्ण ढंग से घटित होती हैं, खासकर तब जब हमारे अपने अनुभव ऐसे वातावरण में परोक्ष के तो कम से कम न के बराबर हैं।

ऐसे ही माहौल में तीन-चार तरह के स्वभाव, बहुलता वैसी ही जैसी आमतौर पर दिखती है, जिम्मेदारी और खासी चिन्ता के साथ अपने प्रोबेशन को पूरा करने, अच्छी और स्थायी नौकरी तथा अवसर पाने और विरोधाभासों को सहन करने वाले मित्रों के बीच नायक है जिसकी भूमिका शुरू से तय है। नायिका के चौथी मंजिल से गिर जाने के बाद उसकी अस्थिरता संवेदनशीलता में तब्दील हो जाती है। पटकथा में इस बात की उदारता बरती गयी है कि नायक अनेक भूलों, व्यवहार और स्वभाव के बावजूद क्षम्य है, मित्रों में भी प्रिय।

कोमा में चली गयी नायिका की चिकित्सा, चिकित्सालय, चिकित्सक, गहन चिकित्सा इकाइयों का वातावरण, परिस्थितियों से जूझती नर्सें, नायिका की हालत से विचलित परिवार, चिकित्सा खर्च इन सबके साथ-साथ एक रूमानिकता भी घटित होती हुई चलती है जिसमें अक्टूबर माह का मौसम, खास दिल्ली की ठण्ड, सुबह, शाम और रात के दृश्य, कोहरा, मैट्रो, सोता-जागता शहर आदि शामिल हैं। दार्शनिकता में हरसिंगार के फूल, उनकी महक, एक रात का जीवन जैसी क्षणभंगुरता की फिलाॅसफी आपको पूरी तरह बांध लेती है।

दर्शक जितना नायिका की हालत से द्रवित है उतना ही नायक के समर्पण पर वारा गया है। कोमा से लौटती, सकारात्मक संकेत देती और जीवन के प्रति एक आशान्वित भरोसा दिलाती नायिका के प्रति नायक का लगाव, उसके ठीक होने में स्वयं के भी योगदान का निजी आत्मविश्वास यह सब अक्टूबर को एक बेहतर उपसंहार तक ले जाने के बेहतर संकेते हैं लेकिन लेखिका जूही चतुर्वेदी, नायिका की मृत्यु को दिखाकर अन्त को जटिल बनाती हैं और अपने समर्थक दर्शकों को भी असहमत करती हैं। भीगी आँखों के साथ दर्शक सिनेमाघर से इस अन्त को अमान्य करता हुआ निकलता है। यह एक पथ से भटके हुए अन्त का चयन करने वाली लेखिका की फिल्म है।

हालाँकि इसमें वरुण धवन ने अपने अब तक के समय की श्रेष्ठ भूमिका का निर्वहन किया है। ऐसे चरित्र बहुत मेहनत की अपेक्षा करते हैं, वरुण दृश्यों, अपनी उदासी, मन के नायिका की संवेदना और स्थितियों के साथ लगभग एकाकार हो चुके अभिव्यक्त भाव में बहुत आगे जाते हैं। नायिका बनिता संधू ने नियंत्रण रहित लगभग एक देह की तरह उस पार्थिवता को दृश्यों में जिया है जो ऐसी भयानक दुर्घटना की परिणति को साक्ष्य के रूप में हमारे सामने लाती है। माँ का किरदार निबाह रहीं गीतांजलि राव अपनी विवशता को बखूबी जीती हैं। निर्देशक ने फिल्म बनाते हुए पात्रों से अच्छा काम लिया है।

लगभग सत्तर प्रतिशत फिल्म अवसादपूर्ण परिस्थितियों के दृश्यबन्ध हैं, शेष में होटल संस्कृति का ग्लैमर हमारे सामने है जो निर्माता की राहत के लिए होगा, बहरहाल व्यवहारसंगत अन्त न होते हुए भी भावुक दर्शकों के लिए यह फिल्म आकृष्ट करने वाली है। कई बार ऐसे अन्त इसलिए भी गढ़े जाते हैं जिस पर आप असहमत होते हुए भी बात करो लेकिन इसी कारण फिल्म का वो आखिरी दृश्य अपनी संवेदना खो बैठता है जिसमें नायक हरसिंगार का पेड़ लेकर जा रहा है......
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