शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

संवेदनशील होना या संवेदनशील होने की बात भर करना.....

।। बियाॅण्ड द क्लाउड्स।।

 


अनोखे और चर्चित माजिद मजीदी विश्व सिनेमा के धरातल पर एक श्रेष्ठ फिल्मकार हैं, यह बात पढ़े-लिखे जाने-जानने से करीब पन्द्रह-बीस साल पहले उनकी दो फिल्में द कलर आॅफ पैराडाइस और चिल्ड्रन आॅफ हैवन देखकर मन में बैठी है। अपने लिए यह विशेष उल्लेख है कि संवेदना की बड़ी सच्ची परख रखने वाला दुनिया का एक फिल्मकार पे भारत में आकर एक फिल्म बनायी है। जब आप दो उत्कृष्ट फिल्मों के सकारात्मक प्रभावों से भरे हो तो एक प्रकार आश्वस्ति तो आपको हो ही जाती है कि कोई निरर्थक काम देखने नहीं जा रहे हो, दूसरे एक जिज्ञासा बनती है कि एक देश का फिल्मकार, दूसरे देश की नब्ज को किस तरह पकड़ पाता है या उसकी कोशिश भी करता है। इस जिज्ञासा के साथ निर्णय यही कर पाता हूँ फिल्म देखकर कि दृष्टि और परख की भी अपनी एक भूमध्य रेखा होती है, उसका तटस्थ या निष्पक्ष होना, एक जैसी संवेदना की तलाश करना एक आदर्श और सार्थक सोच है।

कहानी थोड़े में बता देता हूँ। मादक पदार्थों को छोटे-छोटे छिपे और गुप्त स्थानों पर पुलिस से लेकर आवारा, गुण्डों आदि के जोखिम से बचते हुए पहुँचाने का काम नायक करता है। उसकी एक बहन है जिससे वो दूर रहता है, कारण कि उसका पति उसे बहुत पीटता था और बेहिसाब शराब पीता था। बाद में बहन ने भी इसी कारण से उसे छोड़ दिया और छोटा-मोटा काम करके जीवन व्यतीत कर रही है। भाई, बहन के जीवन में एक दिन फिर दाखिल होता है जब पुलिस उसे और उसके साथी को दौड़ा रही है। भागते-भागते मादक पदार्थ का पैकेट वो बहन को देकर छुप जाता है। इधर उसी धोबी बस्ती, जहाँ उसकी बहन काम करती है, एक अधेड़ अक्शी उसकी इज्जत लूटना चाहता है तो बहन उसके सिर पर भारी पत्थर मारकर बच पाती है। अधेड़ कोमा में चला गया है और बहन को पुलिस जेल ले गयी। कहानी आगे यही है कि भाई, बहन को जेल से निकालना चाहता है और उसको अस्पताल में भरती उसी आदमी को बचाने के लिए दवा आदि का प्रबन्ध करना पड़ रहा है। 

घटनाक्रम आगे इस तरह बढ़ता है कि बहन, जेल में एक और कैदी स्त्री के बच्चे से हिलमिल जाती है जिसकी आगे चलकर मृत्यु हो जाती है और इधर अक्शी की माँ और दो बेटियाँ दक्षिण के गाँव से उसे मिलने चली आती हैं। दो धरातल पर कहानी आगे बढ़ती है, नायक आमिर उस आदमी के बोलने लगने और बयान देने के लिए सारे जतन कर रहा है और साथ में एक बूढ़ी और दो बच्चियों को भी घर ले आता है। 

आगे चलकर अक्शी का मर जाना, बूढ़ी माँ और दोनों बच्चियों का आमिर पर आश्रित हो जाना, आमिर की बहन तारा का जेल का ही होकर रह जाना और मर चुकी कैदी के बच्चे को साथ रखना, एक जगह पर आकर दर्शकों को सोचने के लिए कुछ प्रश्नों के साथ फिल्म खत्म होती है। बीच-बीच में आमिर का पहले निष्ठुर होना, फिर तीनों को पनाह देना, उनके खाने से लेकर जीने का भी प्रबन्ध करना, हताशा में एक क्षण उनको भला-बुरा कहना, बूढ़ी माँ का अपनी ही समभाषी की मदद से अपने अपराधी बेटे की ओर से सारे दोष कुबूल करने वाली चिट्ठी बनवाना आदि प्रसंग हैं। निर्देशक मादक पदार्थों की सप्लाई से घटनाओं के साथ देह व्यापार के अड्डे पर भी दर्शकों को ले जा रहा है जहाँ आमिर के लिए औरतों का एजेण्ट मुसीबतें खड़ी करता है। आमिर के साथी का उसको धोखा देना फिर जमीर जागना मर्मस्पर्शी है। 


निर्देशक पूरी निष्ठा और साफगोई से एक ऐसी दुनिया के यथार्थ से दर्शकों को परिचित कराता है जिसकी होशो-हवास में हमें कल्पना भी न होती होगी। यही कारण है कि निर्देशक, पात्र, कैमरा सब उन स्थानों से होकर निकल आते हैं लेकिन संवेदनशील दर्शक जैसे वहीं भटक कर कहें या खो कर कहें, रह जाता है। किसी भी मनुष्य के भीतर वे क्या प्रवृत्तियाँ होती हैं जो उसकी नीयत बिगाड़ती हैं, क्या वो सकारात्मकता होती है जिसमें वह सम्हल सकता है, अपराधी की बेटी को दलाल के हाथ बेच देने की गरज से निकला आमिर आखिर उसे लौटाकर घर ले आता है। 

माजिद मजीदी एक-एक विवरण पर जाते हैं, आरम्भ में कुछ सेकेण्ड एक मोबाइल सिम कम्पनी के बड़े होर्डिंग पर स्थिर रहकर जब कैमरा नीचे आता है तब हम उस असलयित से रूबरू होना शुरू होते हैं जो पुल, पुलिया के नीचे जिन्दगियों में व्यतीत हो रही होती है। इस फिल्म में कोई भी चीज गढ़ी गयी नहीं है, कुछ भी नकली या फिनिश्ड सा नहीं लगता बल्कि सब कुछ जस का तस। गरीबी, गरीबी के घर, धोबी घाट, अन्दर की संकीर्ण गलियाँ और धोये जाते कपड़ों के एक-दूसरे के ऊपर बर्दाश्त करने वाले छींटे, देह व्यापार की जगह पर बिकने आयी छोटी उम्र की लड़कियों के साथ बोलचाल एक निर्मम सच को आपके सामने रखते हैं। हर पल डरी, सहमी और लगभग मर-मर जाती जिन्दगियों के बीच हँसी-ठिठोली, रुसवायी, मान-मनौव्वल, अच्छा-बुरा सब का सब जस का तस। वैसे ही जेल जिसमें महिला कैदियों की व्यथा, दुर्दशा लगभग अन्ततः उनका क्या हो जाना है, यह जताने के लिए काफी हैं। वहाँ महिला कैदियों के निरीह मासूम बच्चे जो गन्दगी और बदबूदार गड्ढों से निकलकर आते-जाते चूहों को ही दोस्त बनाये हुए हैं। उस छोटे से बच्चे का तारा से पूछना दर्शक के लिए शायद सहन करना आसान न हो कि माँ कहाँ चली गयी तब तारा उससे कहती है कि तेरी माँ आकाश में चांद के घर में रहने लगी है और अब वो बहुत मस्त हो गयी है, खांसती भी नहीं। इस पर बच्चा कहता है कि मुझे चांद को देखना है, माँ का घर। तारा और उस बच्चे का घनघोर बारिश में आकाश की ओर ताकते रहना और इधर आमिर के साथ अक्शी की दोनों मासूम बच्चियों और पत्थर हो गयी माँ की जवाबदारी......फिल्म यहीं खत्म होती है।

एक बात प्रमुखता से उल्लेख कर देना जरूरी लगता है और वह यह कि माजिद मजीदी के इस सर्जनात्मक उपक्रम को भारत के दो प्रमुख निर्देशकों विशाल भाऱ़द्वाज और गौतम घोष ने एक बड़ा समर्थन दिया है। विशाल ने जहाँ इस फिल्म के पूरे हिन्दी संवाद लिखे वहीं गौतम घोष अक्शी की भूमिका में चरित्र और वृत्ति को एकाकार करते हैं। विशाल भाऱद्वाज को सब जानते हैं और गौतम घोष बंगला सिनेमा के शीर्षस्थ निर्देशक हैं। तीसरा बड़ा सहयोग उनको सिनेमेटोग्राफर अनिल मेहता का मिलता है जिन्होंने एक-एक जगह को उसके पूरे अस्तित्व के साथ अपने कैमरे से हमारे लिए देख लिया है। यहाँ कमजोर पड़ते हैं तो केवल ए.आर. रहमान जो संगीत के साथ उस वातावरण का हिस्सा नहीं बन पाते। कलाकारों में आमिर की भूमिका में ईशान खट्टर ने जिस आश्वस्ति के साथ एक-एक शाॅट में अपने होने को साबित किया है, कमाल ही है। 

लोकल ट्रेन के दृश्य, मोटर सायकिल पर आते-जाते अपने हाथ खोल कर खिल जाने और अपना ही अतिरेक करने वाले दृश्य अनूठे हैं। कीचड़ में लड़ाई वाला, देह व्यापार के दलाल से निर्भीक होकर बात करने वाला, धोखा देने वाले एक दुकानदार के हाथ में चाकू गाड़ देने वाला दृश्य, बहन से लड़ने, जिरह करने और अन्त में उसको छुड़ाने की फिक्र करने वाले प्रसंगों में कमाल कर गये हैं वे। इसी तरह तारा की भूमिका में मालविका मोहनन की भूमिका भी मन को छू जाती है। भाई के साथ झगड़ते हुए जब वो अपनी जिन्दगी के बारे में बतलाती है, जेल जाते हुए आमिर का सायकल से पीछा करना और बस के भीतर और बाहर से दोनों का एक-दूसरे को पुकारना विचलित कर देता है। जेल के अन्दर की जिन्दगी तारा की बड़ी परीक्षा है जिसमें माँ को खो देने वाले छोटे बच्चे से उसका जुड़ना अहम है। इधर अक्शी के परिवार में बूढ़ी माँ और दो बच्चियाँ आमिर के पीछे-पीछे घर क्या चली आती हैं, दर्शक को लगता है, वे उसके भीतर चली आयी हैं।

भारत में ऐसे सिनेमा का बनना बड़ा साहसिक है। साहसिक इसलिए है क्योंकि ऐसे सिनेमा को संवेदनशील दर्शक की तलाश या चाहत या अपेक्षा रहती है लेकिन हमारा दर्शक सिनेमा के नाम पर एक अलग तरह की मानसिक विलासिता में खोया रहता है। उस सुरंग में ही वह आनंदित है, बाहर आना या लाना दोनों ही दुरूह है। 

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