रविवार, 29 अप्रैल 2018

तीन दशक बाद नेशनल अवार्ड जीतने वाली दूसरी असमिया फिल्म

विलेज रॉकस्‍टार्स 


इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली असमिया फिल्म विलेज राॅकस्टार्स एक बहुत प्रेरणीय और मर्मस्पर्शी फिल्म है। आमतौर पर सिनेमा का मतलब मुम्बइया सिनेमा या बाॅलीवुड निकालने वाले दर्शकों तक ऐसी अच्छी फिल्में पहुँचाने के जरूर सार्थक उपक्रम होने चाहिए। हालाँकि दूरदर्शन, नेशनल अवार्ड प्राप्त फिल्मों का प्रसारण बाद में करता है लेकिन उसका भी बेहतर प्रचार-प्रसार हो तो निश्चित रूप से दर्शकों तक अच्छे सिनेमा की पहुँच और भी सुदृढ़ हो सकती है। 

रीमा दास हमारे समय की इस मायने में एक उल्लेखनीय फिल्मकार हैं जिन्होंने इस फिल्म को बनाते हुए निर्माण, निर्देशन, कहानी, सम्पादन और सिने-छायांकन का भी दायित्व निर्वहन करते हुए बड़ी ही सादगी के साथ एक विलक्षण फिल्म अच्छे सिनेमा के चाहने वालों को सौंप दी है। विलेज राॅकस्टार को टोरण्टो इण्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म के रूप में चुना जा चुका है वहीं कान फिल्म समारोह में इस फिल्म को खासी चर्चा मिली है, इसके अलावा पिछले साल के अन्त में गोवा में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इस फिल्म को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया और इस टिप्पणीकार को भी उसी समय यह अनूठी तथा मन को छू जाने वाली फिल्म देखने का अवसर प्राप्त हुआ। 

युवा उम्र से सिनेमा का लोकप्रिय चेहरा बनने की ख्वाहिश लिए मुम्बई आयीं रीमा दास ने तब यह नहीं सोचा था कि समय आगे चलकर उनको कैमरे के पीछे ले जायेगा और फिर दृश्य वही बनेंगे जो वे गढ़ेंगी। उनको शुरू से ही मुम्बइया सिनेमा देखने का शौक रहा है। लगभग ग्यारह साल पहले वे मुम्बई आ गयीं। लघु फिल्म के निर्माण से उन्होंने अपनी शुरूआत की लेकिन व्यापकता में सिनेमा को देखने के चाव ने उनको दुनिया की अच्छी फिल्मों के नजदीक लाने का काम किया। 2009 में बनायी उनकी फिल्म प्रथा को बड़ी सराहना मिली। जब 2016 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म अन्तर्दृष्टि बनायी तब उनको अच्छे काम और उसके प्रतिसाद दोनों का अवसर प्राप्त हुआ। यह एक ऐसे पिता की कहानी है जिनको रिटायर होने पर उनका बेटा एक दूरबीन भेंट करता है। दूसरी फिल्म विलेज राॅकस्टार्स पहली से एक कदम आगे इस दृष्टि से निकल गयी कि इसमें सुदूर गाँव, पिछड़े और अशान्त राज्य में कहीं बचपन और किशोर उम्र के बच्चों के स्वप्न को पास जाकर, टटोलकर, उसे संवेदनशीलता के साथ छूकर देखने की कोशिश की गयी है। 


रीमा दास जब विलेज राॅकस्टार पर काम कर रही थीं तब बस्ती और छोटे गाँवों को उसकी समूची शाब्दिकता में समझने का प्रयत्न भी कर रही थीं। उन्होंने अपने काम से पहले अनेक फिल्में देखीं और यह महसूस किया कि वे उस छोटे से संसार की बिल्कुल अलग सी कल्पना कर रही हैं जहाँ संघर्ष का पथ बहुत कोमल, बहुत मुश्किलों भरा, बहुत सात्विक और बहुत ही अधिक सीधी राह पर चलने वाला है। विलेज राॅकस्टार्स के कलाकार स्कूली बच्चे थे जिनके लिए पढ़ाई अपनी प्राथमिकता थी। रीमा ने उसके साथ-साथ बच्चों की घरेलू जवाबदारियों के समय को भी छोड़ दिया। इतनी उदारता के बाद नैसर्गिक प्रकाश अभिव्यंजना में उन्होंने विलेज राॅकस्टार्स की शूटिंग की और अपने सन्तोष की फिल्म बनायी। सर्जनात्मक सन्तुष्टि उनको अपने काम के साथ निरन्तर ही मिलती गयी। 

गुवाहाटी के पास रीमा दास का अपना जिया, देखाभाला स्थान छायागाँव जहाँ यह पूरी फिल्म बनायी गयी है, बड़ी ही विनम्र सी प्रतीत होने वाली सादगी के साथ अपनी बात कहती है। यह एक जुझारू लड़की धुनू की कहानी है जिसे अपने साथियों के बीच एक बैण्ड स्थापित करने की ललक है। वो और उसके साथ राॅकस्टार्स बनना चाहते हैं। टीवी और दूसरे साधनों से दूर देश की खबरें गाँव तक आती हैं और धुनू अपने लक्ष्य को पक्का करती चली जाती है। अपनी ही तरह के गरीब बच्चों की संगत में उसका यह स्वप्न शनैः शनैः आकार ले रहा है लेकिन इसमें भी बड़ी बाधाएँ हैं। धुनू की माँ अनेक कठिनाइयों में अपना, उसका और अपने बेटे का पेट भर पा रही है। जिन्दगी के साथ लड़ रही धुनू की माँ को समय ने बहुत मजबूत बना दिया है। धुनू गिटार बजाना सीख रही है, वह अपनी टीम को भी सिखा रही है। कैसे उसके स्वप्न को परिवेश और लोग बाधित करते हैं, कैसे शिक्षा से वंचित सुदूर अंचल में वातावरण और लोगों के मानसिक अभिप्राय इस स्वप्न को पूरा करने में बाधक होते हैं, यह इस फिल्म में बहुत ही सच्चाई के साथ दिखाया गया है। वा़द्यों का टूटना और मन का टूटना या खण्डित होकर रह जाना दौड़ते उत्साह का भरभराकर गिर जाना है। परदे पर ऐसी विडम्बना देखते हुए मन व्यथित होता है। धुनू की भूमिका निबाह रही भनिता दास के चेहरे पर भावों का संचय, आवेग की अभिव्यक्ति और हतोत्साहित किए जाने के बाद भी भाव भंगिमाओं और चेष्टाओं में संयत बने रहना बल्कि अपने लक्ष्यों के लिए और दृढ़ होने का विद्रोह बखूबी आया है। 

रीमा ने विपरीत और विरोधाभासी परिस्थितियों को दृश्यों में जिस तरह बांधा है, देखकर आँखें नम हो जाती हैं। ऐसे हर दृश्य प्रशंसा के लायक हैं जिनमें चरित्रों को टूटने से बचाते हुए भीतर छिपा मनोबल, जिद और आप हठ दिखायी देता है। धुनू की माँ की भूमिका बसंती दास ने निभायी है जो भाई की भूमिका में मानबेन्द्र दास अपनी उम्र और रौ में दीखता है। मल्लिका दास ने बेस्ट लोकेशन साउण्ड रिकाॅर्डिस्ट के रूप में एक-एक सूक्ष्म ध्वन्यात्मक बारीकियों को जिस तरह फिल्म का हिस्सा बनाया है, अनुभव करने लायक है। बसंती दास, मल्लिका दास के साथ ही निर्देशन के अतिरिक्त सम्पादन में भी फिल्म को अवार्ड हासिल हुआ है जो गौर करने लायक है। उल्लेखनीय तो यह भी है कि लगभग तीन दशक बाद एक बार फिर असमिया फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला है। इसके पहले 1989 मेंजाहनू बरुआ की फिल्म हालोधिया चैराये बाओधान खाई को नेशनल अवार्ड हासिल हुआ था। 
--------------------------
 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें