।। श्रीकृष्ण जन्म के अभिप्रायों से ।।
अनुभूतियों का संसार अत्यन्त विराट है। यह मन के भीतर खुलता है। मन जो देह के भीतर होता है। हमें नहीं पता, मन या आत्मा की ठीक ठीक जगह देह में कहॉं होती है। इस पर भार देने पर लगता है कि मन अथवा आत्मा का स्थान रोम-रोम में है। पता नहीं वह सूक्ष्मता में कणों की तरह है या स्थूल भाव में किसी अत्यन्त सुरक्षित स्थान पर। पता नहीं, किन्तु अनुभूतियों के खिड़की-किवाड़ मनात्मा से ही खुलते और बहुत कुछ सहेजकर, समेटकर बन्द भी हो जाया करते हैं।
इनके खुलने या बन्द होने में कोई उद्विग्नता नहीं होती बल्कि वहॉं तक
आने वाला मार्ग सात्विकता से सिंचित होता है।
श्रीकृष्ण का जन्म, जन्माष्टमी का पर्व हमें बहुत सारे मार्गों को दिखाते किसी-किसी मार्ग से उस अनुभूति के द्वार के बाहर मनोहारी दृश्य दिखाता है जो हमारी कामनाओं और कल्पनाओं में अवस्थित होता है। हमारी दृष्टि, हमारी चेतना मुग्ध भाव से उसे ग्रहण कर रही होती है। हम उस क्षण की अलौकिकी से तादात्मित हो जाना चाहते हैं जो सदियों पहले इस क्षण का एक भावनात्मक छोर है। यह छोर हमारे हाथ में है। हमने पकड़ा हुआ है। हमारी कामना है कि यह छोर हमसे न छूटे। इसमें जो कम्पन है वह सजीव अनुभूति की ऊष्मा से भरा है, उसका ताप हमारी हथेली, हमारी अँगुलियॉं महसूस कर रही हैं।
श्रीकृष्ण जन्म के बाद से कितनी सारी उपकथाऍं उनकी महिमा के साथ मनुष्य चेतना का हिस्सा बन जाती हैं। विशेष रूप से उनके किशोरवय तक कितना कुछ पुरुषार्थ उनके माध्यम से घटित होता है। हम उनके गहरे अभिप्रायों को समझने का प्रयत्न करें तो बहुत सारे छोर हमें छूते हुए निकल जाते हैं या उनका स्पर्श हमारे हाथों आभासित होता है। उनका कारागार में जन्म होना, उसके गहरे भाष्य विद्वानों ने किए हैं। उनका जन्म दरअसल उस सारी परतंत्रता को समाप्त कर देने के आरम्भ के साथ होता है जो उस धरा की नियति बना हुआ था। यह जन्म स्वतंत्रता के सूक्ष्म सुख का ऐसा संवेदनाभरा संकेत होता है जो धीरे-धीरे इस भूमि पर स्वतंत्रता के ही अस्तित्व को स्थापित करता है।
श्रीकृष्ण जन्म के बाद से कितनी सारी उपकथाऍं उनकी महिमा के साथ मनुष्य चेतना का हिस्सा बन जाती हैं। विशेष रूप से उनके किशोरवय तक कितना कुछ पुरुषार्थ उनके माध्यम से घटित होता है। हम उनके गहरे अभिप्रायों को समझने का प्रयत्न करें तो बहुत सारे छोर हमें छूते हुए निकल जाते हैं या उनका स्पर्श हमारे हाथों आभासित होता है। उनका कारागार में जन्म होना, उसके गहरे भाष्य विद्वानों ने किए हैं। उनका जन्म दरअसल उस सारी परतंत्रता को समाप्त कर देने के आरम्भ के साथ होता है जो उस धरा की नियति बना हुआ था। यह जन्म स्वतंत्रता के सूक्ष्म सुख का ऐसा संवेदनाभरा संकेत होता है जो धीरे-धीरे इस भूमि पर स्वतंत्रता के ही अस्तित्व को स्थापित करता है।
इसकी कल्पना करके भी सिहरन होती है कि कैसे एक आसुरी वृत्ति नम्र और विनयशील देवकी और वसुदेव को कठोर कारागार में अनेक वर्षों से रखे हुए है। किस तरह यह कारागार शिशुओं के जन्म और उनके निर्मम वध का साक्षी बना हुआ है। किस तरह एक देव अवतार इस परतंत्रता की भूमि पर जन्मते ही दुष्टों को सुप्त कर देता है, लोह कपाटों का सूखे पत्ते की तरह खुल जाना, बेड़ियों का टूटकर बिखर जाना और फिर पिता की वह यात्रा जो यमुना पार अपने मंतव्य को प्राप्त कर फिर लौट आती है, यह सब काल सापेक्ष वह उपक्रम थे जो देवलीला के साथ सत्यता में घटित हो रहे थे। यह जन्म और श्रीकृष्ण के पुरुषार्थी जीवन का दूसरा सिरा जो वास्तव में मानवीय सभ्यता और उसकी कालजयी अस्मिता के लिए कभी न विस्मृत होने वाली सीख के रूप में आज तक विवेचनीय है, हमारे संज्ञान में, हमारी आने वाली पीढ़ी और पीढ़ियों के संज्ञान का यह सदैव विषय रहेगा।
श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन व्याख्याकारों के बीच अनेक प्रकार से विस्तार का विषय बनता है। उसमें उनके सारे नटखटपन, मित्रों के साथ खेल और उस खेल में अकस्मात घटित होने वाली घटनाऍं, भाई बलदाऊ और मित्र सुदामा के साथ उनके सरोकारों और फिर सबके अविभावकों में प्रिय होना, सब बालकों का नेतृत्व और समय आने पर चमत्कृत कर देना, अपने होने के संकेत देना बहुत सारी कथाओं में बहुत खूबसूरती से निबद्ध हैं। इस बात पर हमने विचार किया है कभी कि इस अनूठे, इस अलौकिक छुटपन में किए गये बहुत सारे काम, उपायों और संहारों के पीछे क्या बोध-तत्व है! इस काल में असुर वे हैं जो धरा को, नदी हो, पर्यावरण को, पशु पक्षियों के जीवन को क्षति पहुँचा रहे हैं। श्रीकृष्ण के छुटपन की अवस्था में जन से लेकर पशु पक्षियों और निरीहों-निर्दोर्षों को जीवन मिलता है। जो यमुना नदी, धरा के जीवन का प्रमुख सारतत्व है वह एक विषैले सर्प से सहमी हुई है। मनुष्य से लेकर मवेशी, पशु-पक्षी सबको उस नदी का पवित्र जल चाहिए जीवन के लिए। श्रीकृष्ण उसको धरा से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। वह प्राण रक्षा की याचना करते हुए नदी छोड़कर चला जाता है। वे पहला उदाहरण नहीं थे क्या नदी की शुद्धि का दायित्व उठाने वाले और उसमें सफल होने वाले।
श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन व्याख्याकारों के बीच अनेक प्रकार से विस्तार का विषय बनता है। उसमें उनके सारे नटखटपन, मित्रों के साथ खेल और उस खेल में अकस्मात घटित होने वाली घटनाऍं, भाई बलदाऊ और मित्र सुदामा के साथ उनके सरोकारों और फिर सबके अविभावकों में प्रिय होना, सब बालकों का नेतृत्व और समय आने पर चमत्कृत कर देना, अपने होने के संकेत देना बहुत सारी कथाओं में बहुत खूबसूरती से निबद्ध हैं। इस बात पर हमने विचार किया है कभी कि इस अनूठे, इस अलौकिक छुटपन में किए गये बहुत सारे काम, उपायों और संहारों के पीछे क्या बोध-तत्व है! इस काल में असुर वे हैं जो धरा को, नदी हो, पर्यावरण को, पशु पक्षियों के जीवन को क्षति पहुँचा रहे हैं। श्रीकृष्ण के छुटपन की अवस्था में जन से लेकर पशु पक्षियों और निरीहों-निर्दोर्षों को जीवन मिलता है। जो यमुना नदी, धरा के जीवन का प्रमुख सारतत्व है वह एक विषैले सर्प से सहमी हुई है। मनुष्य से लेकर मवेशी, पशु-पक्षी सबको उस नदी का पवित्र जल चाहिए जीवन के लिए। श्रीकृष्ण उसको धरा से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। वह प्राण रक्षा की याचना करते हुए नदी छोड़कर चला जाता है। वे पहला उदाहरण नहीं थे क्या नदी की शुद्धि का दायित्व उठाने वाले और उसमें सफल होने वाले।
वे उस आंचलिकता और ग्रामीण जनजीवन के बीच सारी दुनिया के लिए परिश्रम करने वाले कृषकों और कृषि के माध्यम से अन्न की अपरिहार्यता की पूर्ति करने वालों के लिए अनुकूलन स्थापित करते हैं। इसमें बलदाऊ का हलधर होना क्या है! क्यों श्रीकृष्ण गायों के साथ हैं! गोवर्धन पूजा, गोवर्धन पर्वत को उठा लेना, अन्नकूट और ऐसे त्यौहार जिसमें मवेशियों का श्रृंगार और पूजा देवी-देवता की तरह होती है, इन सबके पीछे सूक्ष्म बात वही है कि एक जीवित और जागती हुई सृष्टि की कल्पना इन सबके बगैर असम्भव है। श्रीकृष्ण वस्तुत: छुटपन की अवस्था में उस तरह के असुरों का संहार करते हैं जो तरह-तरह के प्राणघातक रोगों और विषैले कीटों की तरह अपनी हद से बाहर हुए जा रहे हैं। बाल श्रीकृष्ण धरा को अपने काल में इस तरह से स्वच्छ और जन को आश्वस्त करके भाई और सखा के साथ शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं.......
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Kitni saral aur sahaj vyakhya...bodhgamy..!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार जी।
हटाएंहर उस दर्शन और दृष्टि को नमन जो जीवनधन गोविंद के प्रति हमारे चित्त को आकर्षित करती है- अजन्मा के जन्म अशेष शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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