बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..
बड़े दिनों बाद एक ऐसी फिल्म की बात करने का मन हुआ है जिसकी पटकथा बड़ी मजबूत है। जिसमें रहस्यात्मकता को बरकरार रखा गया है। जिसमें कलाकारों ने अपना अपना काम बहुत अच्छे तरीके से किया है। जिसमें यथार्थ को बुनने में अतिरेक का सहारा नहीं लिया गया है। जिसमें महानगरीय वैभव या भव्यता से अलग एक एक शहर, उसकी प्रकृति, उसकी पहचान और वहॉं की पूरी स्वाभाविकता को फिल्म के पक्ष में ले लिया गया है। यह बात अलग है कि एक भी किरदार कानपुर की बोली नहीं बोलता है लेकिन फिल्म कानपुर के वातावरण में बैठती खूब जगह पर है।
रात अकेली है की बात कर रहा हूँ। हालॉंकि इस फिल्म पर सब जगह लिखा जा चुका है। लेकिन मैंने नहीं पढ़ा इसलिए अपनी धारणाओं में मुक्त भी हूँ और स्वभाव में भी। यह एक रहस्यप्रधान अपराध कथा है जिसमें एक उम्रदराज दूल्हे का कत्ल हुआ है जो भरेपूरे परिवार का मुखिया है। न केवल मुखिया है बल्कि चार नाते-रिश्तेदारों का भी सरपरस्त है। उस रात को बखूबी पेश किया गया है जहॉं कुछ ही घण्टों में शादी-ब्याह का कोलाहल खत्म हो जाता है। तमाम लोग, गाडि़यॉं, खानपान आदि सब आ, जा और खा चुके हैं। बड़े से घर में बत्तियों की झालर शान्त सी किसी अनिष्ट, किसी अप्रिय वातावरण को रात के सन्नाटे में व्यक्त कर रही हैं। घर में चूँकि मुखिया और वह भी दूल्हा सुहागरात के बिस्तर पर मरा पड़ा है और एक पुलिस अधिकारी जो कि इन्स्पेक्टर रैंक का है जॉंच करने आया है, घर के लोग अपनी शक्ति, रसूख और पल भर में मोबाइल को लगभग हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाली हेकड़ी में कमतर नहीं जान पड़ते।
इस कत्ल की तह तक पहुँचना इन्स्पेक्टर के लिए पहले एक ड्यूटी होती है फिर जब वह देखता है और लगभग जल्दी ही देख लेता है कि पूरा माहौल उस नयी लड़की को इस कत्ल के इल्जाम में फँसाने और सजाने दिलाने को व्यग्र है जो उस उम्रदराज दूल्हे की दुल्हन बनने जा रही थी, उसके लिए सच तक पहुँचना एक चुनौती और मिशन दोनों बन जाते हैं। इसमें इन्स्पेक्टर का उस लड़की के प्रति आकृष्ट होना एक भावनात्मक कारण बनता है लेकिन उसकी राह आसान नहीं होती क्योंकि जिसका कत्ल हुआ है उसका पूरा परिवार अपने-अपने स्वार्थों में लिप्त है। सभी को जायदाद का लालच है। यह सिद्ध और साबित है कि कि मारा गया व्यक्ति अय्याश रहा है और सन्देह की सुई उसी से दिशा पकड़ती और भटकती है जो उसके शिकार रहे हैं या जो इससे जुड़े तमाम रहस्यों को जानते गये हैं। यहॉं एक निर्दलीय विधायक से पारिवारिक पहचान और उसकी बेटी का इस परिवार की बहू बनकर आने की आगामी योजना के अलग निहितार्थ हैं जिसमें भावी दामाद को किसी व्यापार में जमा देना भी विधायक का शगल है सो वह भी इस कत्ल के षडयंत्र का हिस्सा धीरे धीरे नजर आता है।
जिद्दी इन्स्पेक्टर राजनैतिक दबावों में नहीं आता। कई बार वह अपने लिए अवसर मांगकर काम को आगे बढ़ाता है लेकिन बड़े पुलिस अधिकारी भी विधायक के साथ हैं और नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं हैं। फोन पर जब वह अपने इन्स्पेक्टर को यह समझाते हैं कि विधायक निर्दलीय हैं मगर उनकी पैठ दोनों जगह है तब दर्शकीय हँसी शायद रुकती न होगी। तफ्तीश करते हुए इन्स्पेक्टर के लिए जैसे जैसे जॉंच आगे बढ़ती जाती है, सच तक पहुँचना बहुत निजी विषय बनता चला जाता है। रसूखदार लोग उसको इस तरह फँसा भी देना चाहते हैं कि वह सब तरफ से समाप्त हो जाये। उस पर होने वाला हमला आदि उदाहरण है लेकिन नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने खूब दम से अपनी भूमिका को अंजाम दिया है। इस फिल्म में हम गैंग ऑफ वासेपुर के दो सशक्त कलाकारों नवाज और तिग्मांशु धूलिया को देखते हैं। तिग्मांशु पुलिस अधिकारी बने हैं जो विधायक से बंधे हुए हैं। राधिका आप्टे फिल्म की नायिका है, अपनी तरह से मासूम लगती हैं मगर शोषण का शिकार और उसी में विद्रोही हो गयी चम्बल की लड़की के रूप में उनके काम को भी भुलाया नहीं जा सकता। अच्छे कलाकारों की बड़ी संख्या है। विभिन्न किरदारों में, यहॉं तक कि स्वानंद किरकिरे भी अण्डरप्ले अपना रोल खूब अदा करते हैं।
रात अकेली है, जिस समझबूझ के साथ बनी है उसकी पूरी प्रक्रिया को देखते हुए यह बतला देना उचित नहीं लगता कि आखिरकार अपराधी होता कौन है और इस कत्ल की वजह क्या होती है क्योंकि देखते हुए दर्शक जब स्वयं अन्त तक जायेगा तब ही उसको यह समाधान ऐसा लगेगा जैसे वह स्वयं ही इस छानबीन में निर्देशक (हनी त्रेहन), लेखक और पटकथाकार (स्मिता सिंह) के साथ कलाकारों के आसपास या बीच से होते हुए गुजर रहा है। इस फिल्म को देखना अपने आपमें दिलचस्प अनुभव है। यह संयोग है कि हाल ही में क्लास ऑफ 83 देखी थी जो पुलिस विषय से जुड़ी थी, इधर यह फिल्म भी एक जुनूनी और खोजी पुलिस अधिकारी के लक्ष्य का हिस्सा बनकर सामने आती है। इस फिल्म के चुस्त सम्पादन के लिए ए श्रीकर प्रसाद को श्रेय दिया जाना चाहिए जो बहुत तरीके से घटनाओं को जोड़ते हैं। सिनेमेटोग्राफर पंकज कुमार ने हाइवे के दृश्य, एनकाउण्टर, अपराध की भयावहता और वीभत्सता को बहुत सजीव ढंग से फिल्माया है। यह फिल्म जिस वास्तविक प्रभाव के साथ घटित होती है, वह ऐसा लगता है जैसे किसी सच्ची घटना का सच्चा किस्सा हमारे सामने पुनर्रचित हो रहा हो। इसके लिए निर्देशक की प्रतिभा की सराहना की जानी चाहिए। स्मिता सिंह ने भी पूरी कहानी को पटकथा में जिस तरह बांधा है, वह बहुत महत्वपर्ण है।
रात अकेली है में एक दिलचस्प बात का जिक्र न करूँ तो बात अधूरी रह जायेगी। इस फिल्म में इन्स्पेक्टर और उसकी मॉं के आत्मीय सरोकार बड़े रोचक हैं। तनाव से भरी फिल्म में जब जब दोनों के प्रसंग आते हैं, मॉं चाहती है लड़का शादी कर ले और लड़का शादी को लेकर अनेक किन्तु-परन्तु के साथ मॉं को उत्तर देता है। मॉं अपढ़ है लेकिन हवा का रुख जानती है। वह जिस तरह से पति के साथ अपने अनुभवों की बात करती है, जिस तरह से बेटे से उसकी चाल और बदलते हाल पर कुछ कुछ कहती है, वह इस बात को रोचक ढंग से साबित करता है कि मॉं से कुछ छुपा नहीं रहता। आखिरी में जब वह षडयंत्र में फँसने से बच गयी नायिका को स्टेशन छोड़ने जाता है तब भी मॉं का कथन बहुत खास है। यह भूमिका इला अरुण ने खूब निभायी है। फिल्म के आखिरी दृश्य में नवाज का अभिनय बहुत ऊँचाई पर दीखता है जब वह नायिका राधिका आप्टे से कहते हैं कि बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा, इसके बाद दोनों एक-दूसरे की बॉंहों में होते हैं, यह वाक्य बहुत खूबसूरत है जो लेखिका निर्देशक ने उस जुझारू और बहादुर इन्स्पेक्टर से कहलवाया है जो तमाम जोखिम लेकर असल अपराधी को ढूँढ़ निकालता है, बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..
फिल्म के गाने स्वानंद किरकिरे ने लिखे हैं जिनका संगीत स्नेहा खानविलकर ने दिया है। इतनी तनावभरी फिल्म में दोनों की ही यह मेहनत एक तरह से व्यर्थ ही है क्योंकि प्रेम और विरह, मिलना और बिछुड़ना और प्रेम जैसी विलक्षण अनुभूति की कोमलता का यहॉं ऐसे कठिन विषय में होना निरर्थक ही है।
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