शनिवार, 22 अगस्त 2020

फिल्‍म : क्‍लास ऑफ 83


थोपी हुई पराजय का सशक्‍त प्रतिवाद


 

इधर हाल के सप्‍ताहों में घटित हुए कथानकों पर फिल्‍मों का आना सुखद लग रहा है। परीक्षा और गुंजन सक्‍सेना को देखने के बाद अभी क्‍लास ऑफ 83 देखने का अवसर मिला। बॉबी देओल एक बड़े गैप के बाद आये हैं, क्‍लास के बाद उनकी एक सीरीज आश्रम भी है जिसे प्रकाश झा निर्देशित कर रहे हैं। क्‍लास ऑफ 83 देखने के प्रति शुरू से आकर्षण इसलिए था कि इसका नाम जरा भी आकर्षक नहीं है। कलाकारों से लेकर बहुधा टीम अलग सी है मगर प्रतिभाशाली लोग। निर्माता रेड चिली याने शाहरुख खान। फिल्‍म एक आय पी एस अधिकारी के तजुर्बे से जुड़ी, एक उपन्‍यास पर आधारित है जिसमेंं अस्‍सी के दशक की मुम्‍बई में अपराध जगत, उससे जूझने वाली पुलिस के बीच व्‍यवस्‍था और सार्वजनिक जीवन में दोहरे चरित्र के साथ उपस्थिति चेहरों का सच रेखांकित है।


बॉबी देओल ने एक पुलिस अधिकारी की भूमिका निभायी है जो पनिश्‍मेंट पोस्टिंग पर नासिक पुलिस प्रशिक्षण इन्‍स्‍टीट्यूट के डीन के रूप में अपना समय व्‍यतीत कर रहा है। यहॉं नये पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाता है उम्र और उसके अनुरूप परिपक्‍वता लेकर आगे चलकर इतिहास रच देने के भ्रम में हैं। उनके लिए समझना, सीखना और समझाने तथा सिखाने वाले सभी एक ही धरातल पर मापे जाते हैं। वे यह भी कुछ अधिक ही भलीभॉंति जानने लगते हैं कि सामने वाला कुण्ठित और समाप्‍तप्राय: हो चला है। डीन विजय सिंह उनके भ्रम को तोड़ता है। उसके अधूरे स्‍वप्‍न हैं जो मन में कॉंटे की तरह चुभा करते हैं। वह तीन-चार युवा अधिकारियों के माध्‍यम से मुम्‍बई में अधूरे छूट गये काम पूरे करना चाहता है। विजय सिंह का ही एक दोस्‍त राघव देसाई (जॉय सेनगुप्‍ता) मुम्‍बई महाराष्‍ट्र पुलिस में उच्‍च पदस्‍थ अधिकारी भी है जो उससे मिलता रहता है।
 
प्रशिक्षित होकर मुम्‍बई में पदस्‍थ होने वाले पुलिस अधिकारी प्रमोद शुक्‍ला (भूपेन्‍द्र जड़ावत), असलम खान (समीर परांजपे) और विष्‍णु वरदे (हितेश भोजराज) और दो और सुर्वे तथा जाधव आरम्‍भ में कुछ लक्ष्‍य लेकर अपने काम की शुरूआत करते हैं लेकिन जल्‍दी ही प्रमोद और विष्‍णु गैंग के गुटों द्वारा खरीद लिए जाते हैं और दुश्‍मन गुट का एनकाउण्‍टर करके मुफ्त का यश हासिल करते हुए प्रसिद्ध या चर्चित भी हो रहे होते हैं और बदनाम भी। विजय सिंह का स्‍वप्‍न यहॉं धसकने लगता है लेकिन एक घटना सब कुछ बिगड़ने के परिणाम के पहले बदलाव बनकर आती है। इधर विजय सिंह के दोस्‍त पुलिस अधिकारी उसकी पोस्टिंग फिर मुम्‍बई करने में सफल होते हैं। तमाम दबावों के बाद भी मुम्‍बई को आपराधिक बीमारी से बचाना उनका भी ख्‍वाब है। इधर असलम, विजय सिंह का विश्‍वास है क्‍योंकि वह अभी भी खरा है लेकिन एक एनकाउण्‍टर में अपराधियों द्वारा असलम को निशाना बनाये जाने और उसके मारे जाने के बाद हताश होकर अपना जीवन समाप्‍त करने का यत्‍न कर रहे विजय सिंह को प्रमोद शुक्‍ला और विष्‍णु आकर रोकते हैं और प्रायश्चित करते हुए उसका साथ देने का वचन देते हैं। तब लड़ाई बेहद दिलचस्‍प और उस परिणाम तब जाती है जिसके लिए विजय सिंह के अन्‍त:संघर्ष चल रहे थे।
 
पूर्वदीप्ति के साथ उस दृश्‍य का स्‍मरण विजय सिंह को हाे आता है जब वह अपनी पत्‍नी को गम्‍भीर बीमार अवस्‍था में छोड़कर अपने साथियों के साथ कालसेकर को पकड़ने जाता है जिसमें उसके कई पुलिस अधिकारी मारे जाते हैं क्‍योंकि वह सूचना अपराधी तक पहुँच चुकी थी जिसे विजय सिंह ने केवल मंत्री से ही साझा की थी। विजय सिंह जब हारकर लौटता है तो उसकी पत्‍नी की मृत्‍यु हो चुकी होती है। अपनी पत्‍नी का अस्थि विसर्जन वह तब करता है जब वह अपने अधिकारियों के साथ बाद के एनकाउण्‍टर में कालसेकर को मार गिराता है। 
 
 
यह फिल्‍म समग्रता में प्रभावित करती है इसलिए लिखना पड़ता है कि किरदार और उसकी जगह के मुताबिक कलाकारों ने अच्‍छा काम किया है। यह बॉबी देओल को एक परिपक्‍व अधिकारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है जो दक्षता, निष्‍ठा और कर्तव्‍यपरायणता के बावजूद मुख्‍य दायित्‍वों से अलग हटाकर पुलिस ट्रेनिंग इन्‍स्‍टीट्यूट में डीन बनाकर भेज दिया जाता है। फिल्‍म यह भी बतलाती है कि अपनी मजबूती और दृढ़ता का कोई भी पूर्वाग्रहग्रसित मानसिकता कुछ भी नुकसान नहीं कर पाती। यह अजीब सा ही है कि सच्‍चे, समर्थ और सार्थक लोगों के रास्‍ते में पत्‍थर और कॉंटे भी अधिकता में होते हैं। विश्‍वजीत प्रधान को एक अच्‍छी, बड़ी और सकारात्‍मक भूमिका मिली है। पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर बने कलाकार महात्‍वाकांक्षी और दिशा भटक जाने की मन:स्थिति को बखूबी व्‍यक्‍त कर पाते हैं। गीतिका त्‍यागी ने नायक विजय सिंह की गम्‍भीर बीमारी से ग्रसित पत्‍नी की भूमिका में संवेदना भरी है।
 
यह फिल्‍म कला निर्देशन, पार्श्‍व संगीत संयोजन और दृश्‍यों के बखूबी फिल्‍मांकन के लिए भी प्रभावित करती है। एनकाउण्‍टर के दृश्‍य बहुत कुशलता से फिल्‍माये गये हैं। निर्देशक ने अस्‍सी के दशक की मुम्‍बई, इलाके, लोग, वातावरण को उसी परिकल्‍पना के साथ प्रस्‍तुत किया है जो उसकी वास्‍तविकता रही थी। क्‍लास ऑफ 83 भारतीय पुलिस और चालीस साल पहले के समय से उन महत्‍वपूर्ण घटनाक्रमों की ओर हमको ला खड़ा करती है जो एक महानगर और उसके बाहृरूपक की भीतर सतह के जोखिमों की ओर इशारा भी कहा जा सकता है। हमारी पुलिस को जरूर यह फिल्‍म देखनी चाहिए क्‍योंकि दस-बीस सालों में एकाध ऐसी सार्थक फिल्‍म बनती है जो विषय के साथ न्‍याय करती है। 

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