संगियों और पड़ोसियों की यदि सहृदयता न हो तो जीवन कितना कठिन हो जाता है, कितना अकेलापन और शून्यता। सड़क पर अक्सर मैं इसे महसूस करता हूँ। हमारे आसपास घोर अपरिचय का विश्व होता है। कोई किसी को नहीं जानता। हम अपनी गति में होते हैं, सब अपनी गति में होते हैं। हम-सब बड़े-छोटे वैभव और सादगी में भी होते हैं जो पहनावे से लेकर सवारी तक और उस सबसे ऊपर हम सबके चेहरे से प्रकट होता है। कहीं भी पहुँचने के लिए हम इसी विश्व से गुजरते हैं। हमारा सकुशल चलना हमारे हाथ में होता है और सकुशल पहुँचना इसी विश्व के अपरिचित संगियों के के हाथ। देखता हूँ सब जल्दी में होते हैं, बड़ी सुबह से और देर रात तक भी। दुपहरी में भी। दिन चढ़ने पर काम पर जाने और साँझ लौटते हुए भी। पहुँचना मूल में है। पहुँचने की खुशी बड़ी है, हमारी भी और हम से जुड़े-जुड़ों की भी। इस पूरे परिदृश्य में जिस तरह की बदहवासी और बेरुखी गति तथा मिजाज़ देखता हूँ वह अब बहुत डराता है। आप सब की तरह मैं भी इसी भीड़ भरी सड़क में अपरिचय और अकेलेपन का भाग होता हूँ जो कई बार अपने आसपास, दूर से आती हुई या न दिखायी देती हुई एम्बुलेंस की आवाज़ से सहम जाता है पल भर को। क्या सभी को जगह नहीं दी जाती सकती, क्या सभी को रास्ता नहीं दिया जा सकता? प्रत्येक रास्ते को बाधित करते हुए हम निकल जाना चाहते हैं, हम पहले जाना चाहते हैं लेकिन कहाँ? क्या हमें अगले चार कदमों का पता होता है? क्या हम अगले मोड़ पर अपनी कल्पना कर पाते हैं? फुटपाथ से लेकर पैदल पार पथ तक हम सबसे छुड़ा लेना चाहते हैं। हम सबसे सड़क भी छुड़ा लेना चाहते हैं। हम सड़क पर इतना निर्मम क्यों हो गये हैं................?
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