शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

दो

18 अक्टूबर जनसत्ता के रविवारी में एक सामयिक आवरण कथा प्रकाशित है - सेल्फी की सनक। आजकल हर अखबार चूँकि ई-पेपर के रूप में हमसे जुड़े हैं इसलिए यदि आधे घण्टे का धीरजपरक समय हो तो इसे पढ़ना चाहिए जिसमें विशेष रूप से इसके रोमांचकारी ढंग या अवस्था में बरतने के जोखिमों की ओर भी इशारा किया गया है। मुझे इस विषय के साथ एक अलग बात लिखने का मन हुआ जो देख-देख कर कौंधती कई दिनों से रही है। अपने दायित्वों में मेरी नियमित आवाजाही एक सांस्कृतिक और जीवनिक विरासत को दर्शाने वाले केन्द्र पर हुआ करती है। बहुत महत्व का है। हमारी चेतना और विशेषकर जनजातीय अस्मिता, संस्कृति और जीवनशैली को वहाँ, अगर हम ज़रा भी अपनी जड़-चेतन के स्पर्शी होते हों, तो बहुत महत्व के साथ स्थापित और यथारूप देख सकते हैं। लोग बहुत वहाँ आते भी हैं। वहाँ मैं प्राय: अनेक उदाहरण अनायास देखा करता हूँ जिसमें किशोर और युवा प्रेमी जिनमें से उदात्त भी और लुके-छुपे भी, आया करते हैं। वे प्राय: या तो कोई आड़ या ओट में बैठ जाया करते हैं, बड़े धीमे बात कर रहे होते हैं या कई बार झगड़ भी रहे होते हैं, उलाहने देते उनके शब्द कभी वेग में सुनायी दे जाते हैं। कुछ खानपान रेस्त्राँ में मनपसन्द का पूछ-बताकर खाया खिलाया करते हैं। इसी में फिर सेल्फी अपनी याददाश्तों या यादगारों के लिए। दीर्घाओं से लेकर मुक्ताकाश और ढूँढ-ढूँढ़कर मनोरम स्थानों पर। इस बात का हम मित्रों, जिनमें सहकर्मी साथी, साहब और सहयोगी में अक्सर विषय छिड़ता है कि सांस्कृतिक जिज्ञासाओं, सृजनात्मक संसार और आदि-अस्मिता के प्रति इनकी चेतना कितनी सीमित है! यहाँ अपनी ओर से कोई रुचि, लगन या यहाँ तक चढ़ाई-पहाड़ी चढ़कर आने के पीछे लक्ष्य भी कितना क्षणभंगुर और परिवेश तथा पूरे वातावरण के प्रति उपस्थित रहते हुए भी कितनी उपेक्षा से भरा है.................

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