शनिवार, 21 मई 2016

काला पत्थर (1979)


मुझे विजयपाल सिंह का स्मरण अक्सर हो आता है। जीवन की एक विफलता और उसके प्रायश्चित को जीता हुआ कोयले की खदान का एक मजदूर। एक आदमी अपनी चुप्पी में क्या कुछ बोलता है, उसको उसकी दिनचर्या से जानने की कोशिश होती है। खदान के मजदूरों के काम पर आने का समय बतलाने वाला सायरन उसे जगाता है। जागने से पहले उसका सोये होना, जागने पर अपने फावड़े के साथ घर से निकल पड़ना, खदान में उतरना, पूरा समय काम करना, खाने का समय, आसपास दुर्घटनाएँ, नियति और अनेक नियोजित, अनियोजित दुश्वारियाँ उसके बीच लम्बे सन्नाटे से भरे समय में पूर्वदीप्ति जिसमें कोर्टमार्शल और अपने आसपास के अपमानित करते लोगों के बीच पदच्युत होना, उस पूरे समय और समाज से बहिष्कृत कर दिया जाना जिसका हिस्सा बगैर जी पाना असम्भव होता है। अनन्त लम्हा अपनी पहचानहीनता के साथ व्यतीत करना एक बड़ी चुनौती। विफलताएँ मानस पटल से मिटती नहीं, पराजय अनन्त काल तक पीछा छोड़ती नहीं और हतप्रभता के साथ साँसों के चलने की आवाज भी सुनायी नहीं देती।
काला पत्थर (1979) फिल्म kala patthar (1979) जैसे मेरे मन में रखी रहती है। विफलताएँ नियति के साथ लेकर चलती हैं। प्रायः शब्द धुंधले नजर आते हैं जब आँखों में आँसू भरे होते हैं। इस फिल्म में कम से कम तीन नायक याद आते हैं। इनमें से एक नायक अपने पछतावे को, बड़े ही कठिन समय में लिए अपने निर्णय को गलत सिद्ध होते देखता है। सलीम-जावेद ने इस फिल्म को लिखते हुए नायक के पलायन और उसके सुदूर कठोर और लगभग आत्महीन संसार में होने को रेखांकित किया है। विजय की सारी चेष्टाओं को देखते हुए लगता है कि कैसे मानस में मनुष्य अपनी थकन से बाहर आना नहीं चाहता, अपनी उदासी को दूर करना नहीं चाहता, अपने हाल से बाहर आना नहीं चाहता। अनेक प्रश्न और भी लेकिन वे तभी जब काला पत्थर को एक बार फिर से देखा जाये।
काला पत्थर का संगीत, गीत मुझे एक अलग अनुराग से जोड़ता है, उसके साथ एक बड़ा प्रीतिकर निजी एहसास जुड़ा हुआ है जो मेरा अपना है। जिससे जुड़ा है उसको कभी पहली बार बतलाया था। काला पत्थर में एक अहम नैरार्श्य के बावजूद जीवन के रंग हैं। प्रेम है, अल्हड़ता है, अक्खड़ता है और भी बहुत कुछ। काला पत्थर के नायक से जीवन के सबक सीखने को मिलते हैं। आपका निर्णय, आपकी प्रत्युत्पन्नमति और बहुत ही अच्छी या उत्तरदायी कामनाओं के बावजूद कैसै विफलता में तब्दील हो जाते है, यह इस फिल्म का मर्म है। विफलताएँ किसी भी मनुष्य के पुरुषार्थ पर सन्देह करने की स्वतंत्रता नहीं देतीं।विफलताएँ दरअसल अनेक बार मनुष्य की नियति यदि न भी कहा जाये तो उसको सम्हलने के अवसर जरूर देती हैं, पुनर्विचार के अवसर जरूर देती हैं। कई बार किसी भी मनुष्य को उसका बहुत सारा आसपास भी विफल बनाता है..........................

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