मंगलवार, 14 जून 2016

सदियॉं और समय


नहीं पता होता कि कभी-कभी समय सदियों की तरह व्यतीत होता है। ऐसा लगता है कि एक बार हाथ से छूटा फिर हाथ में आकर इकट्ठा हो गया है। उसको देखने की कोशिश करता हूँ। छूने या स्पर्श करने से पहले अजीब सा भय सताता है। समय अपना चेहरा उस ओर मोड़े हुए है, मैं उसको बिना बाधित किए उसकी ही ओर से जाकर उसे देखना चाहता हूँ। मैं समय में प्राणों का स्पन्दन देखता हूँ। मुझे फिर छूने की इच्छा होती है। कुछ भय मेरे साथ चलते हैं और थोड़ी ही देर में उनको मुझमें आकर ही मर जाना होता है। पता नहीं कितने भय, कब-कब आकर मर गये। साँस अपनी तरह की एक अलग ही घड़ी है। उसकी सेकेण्ड की सुई पता नहीं कौन छेड़ दिया करता है। वह हमेशा एक स्पर्श के साथ समरस होती है। अनेक बार ऐसा होता है कि स्पर्श कामनाओं के पक्षी के पंख मारे डर के मजबूती से थामे एक देश से दूसरे देश उड़ा चला जाता है। स्पर्श का छूटना, सपनों का टूटना होता है। सपनों के टूटने पर नींद खुल जाती है। नींद खुलती है तो सच दिखायी देने लगता है। स्वप्न अपने भरम है, जागे यथार्थ मेरा अपना साधारण सा चेहरा.............................प्रयत्नपूर्वक मैं उसी चेहरे के साथ मुस्कुराकर अच्छा लगने की कोशिश करता हूँ......................निष्फल कोशिश...........

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