सोमवार, 20 जून 2016

पचास साल पहले तीसरी कसम



हिन्दी सिनेमा चमत्कार और त्रासदियों के सैकड़ों किस्सों का बिम्बीय साक्ष्य है। ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जिनकी स्मृतियाँ सच्चाइयों से बढ़कर हैं, अनेक सच्चाइयाँ हैं जो कहानियों की तरह हमारे जहन में आज तक बैठी हैं। यह साल हिन्दी सिनेमा के विख्यात लेखक, पटकथाकार, शौकिया अभिनेता और एक पूरी तथा एक अधूरी फिल्म के निर्देशक नवेन्दु घोष की जन्मशताब्दी है। नवेन्दु घोष की बेटी वरिष्ठ पत्रकार और सिनेमा आलोचक रत्नोत्तमा सेनगुप्ता अपने पिता के जन्मशताब्दी वर्ष में अनेक उपक्रम कर रही हैं जिसकी शुरूआत वे आज रविवार को कोलकाता से कर रही हैं। इस अवसर पर उनके पिता का आखिरी उपन्यास कदम कदम का लोकार्पण हो रहा है। इसी अवसर पर एक लघु फिल्म मुकुल भी जो उनके पिता, पिता की लिखी एक महत्वपूर्ण फिल्म तीसरी कसम और गीतकार-निर्माता शैलेन्द्र का स्मरण करती है, दिखायी जा रही है। भावुक स्मृतियों में ये सतत संयोग हैं कि नवेन्दु घोष की जन्मशताब्दी के साल ही तीसरी कसम के पचास साल पूरे हो रहे हैं। 1966 में इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ था और यही त्रासद साल फिल्म के निर्माता शैलेन्द्र के निधन का भी है, इस साल फिल्म के साथ ही शैलेन्द्र के निधन को भी पचास साल हो गये हैं।

तीसरी कसम को लेकर उसके प्रदर्शन के बाद, उसकी विफलता और विफलता से आहत होकर शैलेन्द्र के देहावसान के बाद जिस तरह से चर्चा होनी शुरू होती है, वो अपनी तरह का अचरज है। सिनेमा को बहुत गहराई से जानने वाले, सिनेमा के प्रदर्शन और उसके परिणामों का आकलन करने वाले कई बार श्रेष्ठ और उत्कृष्ट फिल्मों के बुरे परिणामों को लेकर चर्चा करते हैं। हम सभी के सामने किसी भी अच्छी या उत्कृष्ट फिल्म का असफल हो जाना कई तरह से चिन्तित भी करता है। हम उसके कारणों में जाना चाहते हैं। कहानी से लेकर पटकथा तक, कलाकारों के अभिनय से लेकर एक-एक दृश्य के निर्वाह तक, चुस्त और कसे हुए सम्पादन, मन को छू लेने वाली गीत रचना, कर्णप्रिय संगीत और आत्मा तक तरलता से बह जाने वाले स्वरों में पगे होने के बावजूद तीसरी कसम का विफल हो जाना वाकई एक गहरी चोट ही कही जाती है जो फिल्म के गीतकार और निर्माता शैलेन्द्र को लगी थी।

तीसरी कसम के बारे में कहा जाता है कि इस फिल्म में काम करते हुए राजकपूर ने निर्माता से एक भी पैसा नहीं लिया था। बासु भट्टाचार्य जो कि बिमल राॅय स्कूल के प्रशिक्षित निर्देशक थे, तीसरी कसम के एक-एक दृश्य, एक-एक फ्रेम पर घण्टों बहस करने और उसके बाद उसे अनुमोदित करने की जिद के साथ आगे बढ़ने वाले फिल्मकार थे। यह उनकी अपनी संवेदनशील सर्जना थी जिसमें उनके लिए पटकथा लेखन का काम नवेन्दु घोष ने किया था जो बिमल राॅय के लिए परिणीता, बिराज बहू, परख, बन्दिनी, देवदास आदि अनेकों श्रेष्ठ फिल्में लिख चुके थे। उनके लिए फणीश्वरनाथ रेणु की यह कहानी, फिल्मांकन के लिए गढ़ना एक बड़ी चुनौती रही है। तीसरी कसम पर बात करते हुए नवेन्दु घोष की बेटी रत्नोत्तमा सेनगुप्ता बतलाती है कि नवेन्दु दा को बचपन से अभिनय का शौक था। वे एक लेखक, कहानीकार होने के साथ-साथ छोटी भूमिकाओं के लिए लगभग लालायित रहते थे। उनके निर्देशक इस बात को जानते थे। यही कारण रहा कि बिमल राॅय, हृषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य आदि की फिल्मों में वे छोटी मगर किसी न किसी उद्देश्य के लिए गढ़े गये किरदार के रूप में दीखते थे। तीसरी कसम में वे उस शराबी की भूमिका में हैं जो नौटंकी प्रदर्शन के समय हीराबाई के लिए बुरे शब्दों का इस्तेमाल करता है और इसके बदले उसकी हीरामन से हाथापाई हो जाती है। इस छोटी सी भूमिका को करने के लिए नवेन्दु दा ने अपने को खूब तैयार किया था। राजकपूर उनसे हँसते थे, आपके साथ झूमा-झटकी का, मारपीट का दृश्य करना कठिन है, मेरे नायक के स्वभाव में भी लड़ाई-झगड़ा किसी फिल्म में नहीं रहा है लेकिन हीराबाई के मोह में मेरे चरित्र का यह उग्र पक्ष भी आपने ही लिख दिया है। सेनगुप्ता जोड़ती हैं कि दृश्य की गम्भीरता और बासु दा के निर्देशन ने पूरी फिल्म को ही एक यादगार बिम्बीय अनुभूति में बदलकर रख दिया था।

तीसरी कसम की सीधी-सच्ची कहानी है जिसका नायक हनुमान चालीसा पढ़ता है, गरीब गाड़ीवान है, बुद्धू सा जिसे जमाने की अकल नहीं है। कैसे वह एक के बाद एक मुसीबत में पड़ता है और चोरी की ढुलाई में पुलिस से पकड़ा जाना, बाँस ढोने से होने वाली दुर्घटना और पिटने पर कसमे खाता है। ये दो कसमें फिल्म के शुरू होने के बीस मिनट के अन्दर हीरामन खाता है। वह दृश्य भुलाये नहीं भूलता जब अपनी भाभी दुलारी से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगता है कि अब ऐसी गलती कभी नहीं करेगा, भाभी का उसके प्रति स्नेहिल होना, हिन्दी सिनेमा का मन को छू जाने वाला मार्मिक दृश्य है। उसकी तीसरी कसम के साथ ही फिल्म का अन्त होता है। एक कथा सी चलती है, उसे एक सवारी मिलती है जिसे उसको चालीस मील दूर के एक गाँव तक छोड़कर आना है। एक अच्छी सी बैलगाड़ी है, स्वस्थ सलोने से बैल हैं, घुंघरू बंधे हैं और हीरामन चला जा रहा है। हीरामन पहले नहीं जानता है कि बैलगाड़ी के भीतर जो भी है वो कौन है? एक स्त्री है, वह कौन है, कैसी है! कल्पनाओं के साथ वह स्मृतिलोक में है। सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, सजनवा बैरी हो गये हमार, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी.......सारे गाने शैलेन्द्र के लिखे हुए, शंकर-जयकिशन संगीत रचनाकार, मुकेश गायक.............गानों का एक-एक शब्द गहरे अर्थों से भरा हुआ, सारा का सारा जीवन दर्शन, जीवन की क्षणभंगुरता का सन्देश, नैतिकता और चरित्र के विरोधाभासों पर बात। 

तीसरी कसम के बारे में इतने वर्षों में कितनी ही बार सोचने का अवसर आया है। अनेक बार इस फिल्म को देखना हुआ है, जितनी परिपक्वता में यह फिल्म देखी है, उतना ही ज्यादा विचलन बढ़ता गया है। इस फिल्म को बनाते हुए शैलेन्द्र इसकी सफलता की कामना के विपरीत परिणामों से छार-छार होकर चले गये लेकिन बाद में जैसे हर कोई इस फिल्म की संवेदना और मर्म की पड़ताल करने लगा। शैलेन्द्र के जीवन के बाद तीसरी कसम जैसे आत्मोत्सर्ग से परिणाम प्राप्त करने वाली उत्कृष्ट फिल्म के रूप में स्थापित हो गयी। राजकपूर और वहीदा रहमान का श्रेष्ठ अभिनय इस फिल्म को दर्शन और अनुभवों में कहाँ से कहाँ ले जाता है। श्वेत-श्याम फिल्म और खूबसूरत छायांकन कमाल है, विशेष रूप से सुब्रत मित्रा के सिने-छायांकन की यह अद्भुत फिल्म है, विशेष रूप से जिस प्रकार हीरामन और हीराबाई की चालीस किलोमीटर की यात्रा को यह फिल्म परदे पर सजीव करती है, ऐसा लगता है कि दर्शक आप इस यात्रा का हिस्सा है, वह अपने आपको डूबा हुआ महसूस करता है जब हीरामन गाते हुए कहता है, चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय....................

और भीगी आँखों और हृदय में भरे गुस्से से हीरामन जब बैल को चाबुक मारकर स्टेशन से चल पड़ता है, तीसरी कसम खाते हुए कि अब किसी नाचने-गाने वाली बाई को बैलगाड़ी में नहीं बिठायेगा तो उसके साथ हमारी आँखें भी नम हो जाती हैं......................क्योंकि हीरामन का गुस्सा उन बैलों पर उतरा है जिनको वह बहुत प्यार करता था।

Keywords - Teesri Kasam, Raj Kapoor, Waheeda Rehman, Shailendra, Snunil Mishr, Ratnottama Senguta, तीसरी कसम, राजकपूर, वहीदा रहमान, शैलेन्‍द्र गीतकार, सुनील मिश्र, रत्‍नोत्‍तमा सेनगुप्‍ता

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