शनिवार, 11 जून 2016

तीन : स्‍थूल पटकथा, ईमानदार निर्वाह और महानायक के लिए............



एक नाना, अपनी नातिन की आठ साल पहले हुई हत्या के बाद से ही एक-एक दिन हत्यारे के पकड़े जाने, उसका कुछ सुराग मिलने, कुल मिलाकर इन्साफ के लिए हर दिन भटक रहा है। वह रोज पुलिस स्टेशन जाता है, आता है। महिला थानेदार, फिल्म की नायिका विद्या बालन जिनकी छोटी भूमिका है, वो बड़े हल्के ढंग से उससे कहती हैं कि अपनी सुन्दर बीवी को छोड़कर क्यों भटका करते हो या यहाँ आ जाया करते हो, तो वह बताता है कि उसी के लिए यहाँ रोज आता हूँ। रिभु दासगुप्‍ता की नयी फिल्‍म तीन (film review : Te3n by Sunil Mishr) पर चर्चा करते हुए बात इस सन्‍दर्भ से इसलिए शुरू कर रहेे हैंं क्‍योंकि इस फिल्‍म के दफ्तर, सार्वजनिक सुविधा सहूलियतों के स्‍थान, पुलिस स्‍टेशन में एक आदमी रोज अपनी घुटन और बेचैनी में चक्‍कर लगा रहा है, दरअसल वह सोयी और उदासीन मानसिकताओं को जगाने की कोशिश में है...............
अमिताभ बच्चन Amitabh Bachchan फिल्म के केन्द्र में हैं। जब नातिन को दफनाया जा रहा था तब दामाद ने जाॅन पर आरोप लगाया था कि तुम्हारी वजह से वो मारी गयी। जाॅन यही सब क्लेश लिए भटकता है। वह घर में खाना भी पकाता है, व्हील चेयर पर पत्नी है, उसको परोसता भी है। बाजार भी जाता है, मछली खरीदने। महँगे सौदे के खिलाफ बहस भी करता है। पुलिस से पादरी हो गये मार्टिन दास से वह निरन्तर मिलता है और अब भी मदद मांगता है। यह दिलचस्प है कि एक दिन अपने ही जुनून में वह अपराधी तक पहुँच जाता है और वही घटना दोहरायी जाती है। इस बार अपराधी के नाती का अपहरण जाॅन ने किया है, लक्ष्य है अपराधी पकड़ा जाये। अन्ततः अपराधी को ऐसा बेबस कर देता है कि वो पहले के साथ दूसरा अपराध भी अपने सिर ले लेता है।
सिनेमाघर में ऐसी गम्भीर फिल्म के दर्शक बहुत ज्यादा नहीं होते। धोखे से कुछ आ भी गये तो जल्दी चले जाते हैं, कई बार निस्तब्धता में खर्राटों की आवाज भी सुनायी देती है। फिर भी सिनेमा में बुनी गयी कथा, उसके साथ किया गया, कलात्मक और तकनीकी बरताव, गीत-संगीत, यहाँ तक कि पाश्र्व संगीत और कलाकारों का अभिनय आदि इतने सब के साथ जो फिल्म देखना चाहते हैं उनको यह फिल्म एक हद तक बांधती है।
निर्देशक रिभु दासगुप्ता, सुजाॅय घोष के शिष्य हैं। सुजाॅय जिन्होंने कहानी फिल्म बनायी थी, रिभू को एक बड़ा चैलेन्ज देते हैं। रिभु इसके पहले युद्ध धारावाहिक कर चुके हैं।
अमिताभ बच्चन और नवाजउद्दीन के साथ वे सूझबूझ के साथ काम करते हैं। नवाज का किरदार अमिताभ बच्चन के दृश्य और संवादों के बीच बहुत ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं हो पाता लेकिन अलग से उनके दृश्य अच्छे हैं। बेडौल होती विद्या बालन एक अच्छी पुलिस इन्सपेक्टर भी साबित नहीं हो पातीं, यह अनेक बार दिखायी देता है। रिभु ने बंगला सिनेमा के सब्यसाची मुखर्जी और दक्षिण से पद्मावती राव को लिया है। इधर हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के लिए ये चेहरे उतने परिचित न हों पर गुणी कलाकार हैं। अमिताभ बच्चन जिस तरह से इस फिल्म में दिखायी देते हैं, ऐसा लगता है कि पूरी पटकथा को उनको ही केन्द्र में रखकर लिखा गया है। निर्देशक-निर्माता की पहले ही यह स्वीकारोक्ति ईमानदार है कि उन्होंने कोरियन फिल्म मोंताज को इस रूप में बनाया है बजाय इसके कि खोजी समीक्षक यह बात कहीं से ढूँढ़कर लिखा करें।
अमिताभ बच्चन की पूरा व्यक्तित्व कैमरे की खासी पहुँच के कारण उस उम्र को प्रकट करता है, जितने के वे हैं, वे अपनी उम्र के विपरीत हौसले का परिचय देकर बहुत ज्यादा आकृष्ट करते हैं। किरदार पर की जाने वाली मेहनत का कुछ बार प्रत्यक्षदर्शी मैं भी हूँ, लगता है कि कैसे एक वृद्ध आदमी, एक गहरी व्यथा मन में लिए अपने आसपास से जूझ रहा है, आठ साल से पुलिस स्टेशन रोज जा रहा है, सुराग मिलने पर कब्रिस्तान दो महीने से रोज चक्कर लगा रहा है, सरकारी दफ्तरों में जाकर परिणाम प्राप्त करने की कोशिश हैं। इन सबके बीच में बाबू तंत्र, काम टालने की प्रवृत्तियाँ, फरियादी को चक्कर लगवाने का शगल और अन्य सामाजिक-व्यवहारिक व्याधियाँ भी इस फिल्म में देखने को मिलती हैं। फिल्‍म में अमिताभ का सड़क पर स्‍कूटर पर होना, पीछे नवाज के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाने के दृश्‍य उल्‍लेखनीय हैं। उल्‍लेखनीय यह भी है कि नातिन के कातिल को तलाशते हुए वे दुखी, हारे-थके और व्‍यथा से भरे दीखते हैं मगर जब वे कातिल के नाती को अपहरित कर उसके साथ खेल रहे होते हैं तो नवाज से बातचीत करते हुए उनका विजयी सा व्‍यक्तित्‍व अलग ही दिखता है, यहाँ वे उस तरह से शिथिल या दीनहीन नहीं दिखायी देते।
निर्देशक और उसका सिनेछायाकार तुषार कांति रे बखूबी अपनी कथा को स्‍थानों और दृश्‍यों में सार्थक करते हैं। कोलकाता है तो वहाँ का परिवेश है, पुराने से पुराने और अजाने स्थानों का प्रकट और प्रतीक दीखता है, ट्राम हैं तो उनके पुराने डिपो हैं जिनको पुराने वृक्षों की जड़ों ने जकड़ रखा है। पाश्र्व संगीत की अपनी ट्यून है, जितना जरूरी है, उतना ही, मुम्बइया कर्कशाँय नहीं। इन सबके बावजूद पटकथा के स्तर पर काम स्थूल जान पड़ता है। मध्यान्तर के पहले का भाग अधिक लम्बा हो गया है, रहस्य भी देर तक रहस्य नहीं रह पाता इसीलिए सवा दो घण्टे की फिल्म भी बड़ी लगती है। इन सबके बावजूद फिल्म को देखा जाना चाहिए। वो सिनेमा जो मेहनत से किया गया हो, उस तक जाना अच्छे दर्शक का फर्ज भी है, यही...................

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