शुक्रवार, 10 जून 2016

अपने हिस्से का सच

अपने हिस्से का सच बताना मुश्किल होता है। कहना मुश्किल है कि कई बार या हमेशा ही पर मुश्किल तो होता है। अपने हिस्से का स्वार्थ छुपाया नहीं जाता, अपने हिस्से की नफरत छुपायी नहीं जाती, अपने हिस्से का प्रेम छुपाया नहीं जाता, अपने हिस्से की ईष्र्या छुपायी नहीं जाती, बहुत कुछ ऐसा जो अपने हिस्से का प्रकट हो ही जाया करता है। पता नहीं क्यों बिना कहे अपने हिस्से का झूठ जाना जाता है, सच जाने, जाने से रह जाता है। स्वप्न अक्सर आधे रास्ते में छोड़ दिया करते हैं। नींद कई बार नहीं आती। नींद का आधा होना कौन जानता होगा? नींद का टूटना और फिर न आना सब जानते हैं। अधूरी इच्छाएँ और कामनाएँ लिए हम नींद की खोह में चले जाते हैं। नींद में हमारे लिए वही स्वप्न रचे रखे रहते हैं जो साकार के प्रतिपक्षी हैं फिर भी हमें स्वप्न चाहिए। बिना स्वप्न के नींद व्यर्थ है। स्वप्न जीवन को सिलसिला देते हैं और जीवन स्वप्न को बार-बार नींद में आने का अवसर। जागते हुए दिन में हम मन के सन्दूक से बहुत सा मस्तिष्क के सन्दूक में और मस्तिष्क के सन्दूक से बहुत सा मन के सन्दूक में उठाया-धरा किया करते हैं। हमारी चेष्टाएँ नींद के साथ ही मूच्र्छित हो जाया करती हैं। उसके बाद हम स्वप्नकथाओं में अपने आपको ही घटित होते देखा करते हैं। देखे हुए स्वप्न अधूरे सिनेमा की तरह होते हैं और बहुत दिनों तक उत्तरार्ध की बाट जोहते हुए हम नींद की खोह में जाया करते हैं पर हमारे हाथ एक और अधूरा सिनेमा लगता है। कई बार समझ में आता है कि नींद से जागना और उठना दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं। हम जागे होते हैं मगर उठे नहीं होते, प्रायः हम उठ गये होते हैं पर कितने जागे हैं, यह पता नहीं चल पाता। सच इन सारी चेष्टाओं के बीच एक अन्तहीन धागा है जिसे हम विश्वास रूपी एक विराट बरगद के तने पर जीवनभर लपेटकर परिक्रमा सी किया करते हैं अपने को साबित या प्रमाणित किया करने की। न तो धागा खत्म होता है और न ही परिक्रमा। अपने हिस्से का सच अनन्तकाल तक अव्यक्त ही बना रहता है....................... 

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