शनिवार, 18 नवंबर 2017

गहरी अन्तर्दृष्टि वाले सिने-आलोचक भी थे कुँवर नारायण


मूर्धन्य विद्वान कुँवर नारायण का निधन सृजन के बहुआयामीय व्यक्तित्व का हमारे बीच से चले जाना है। लगभग नब्बे वर्ष की उम्र में वे कुछ दिनों से निरन्तर गहरे अस्वस्थ थे और अपनी रुग्णता से बेहद व्यथित भी क्योंकि सर्जनात्मक सक्रियता के साथ-साथ लिखना-पढ़ना उनको बहुत ऊर्जा देता था और आँखों से देख न पाना उनको बहुत परेशान करने लगा था। साहित्य के अनेक आयामों में अपनी दक्षता के साथ मौलिक दृष्टि, स्वअनुशासन और गहरे भावबोध के साथ अपनी पहचान को प्रतिष्ठापित करते हुए जिस एक और माध्यम में वे प्रभावित करते थे वह था सिनेमा। कुँवर नारायण गहरी अन्तर्दृष्टि वाले सिनेमा आलोचक थे जिनका लिखा गया पढ़ना और बोला गया सुनना बहुत महत्वपूर्ण होता था। 

वे क्लैसिकी रुझान के कवि थे। उनकी कविता तर्क और भावना के विभेद को समाप्त करने वाले बिन्दु पर प्रस्फुरित होती थी। उन्होंने किसी दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक विचारधारा से प्रतिबद्ध हुए बिना और अतिकारों से बचते हुए तार्किक, संयमित, सुचिन्तित, संयोजित, नैतिक मानवीय सम्वेदन से परिपूर्ण अपनी आत्म-निर्धारित बंदिशों के कठिन चक्रव्यूह में भी अपने समय की ईमानदार कविता लिखी। मूलतः मनुष्य की चिन्ताओं से जुड़ी उनकी कविता समकालीन जीवन के जटिल अन्तर्विरोध, विडम्बनाओं और संत्रास को उसकी समग्रता और पूरी जटिलता में अभिव्यक्त करने वाली थी। प्रत्येक कविता संग्रह में उनका शिल्पगत बरताव, भाषाई लहजा और कलात्मक तेवर बदलते गये हैं। उनकी कविता सभ्यताओं की अमानवीय फिसलनों के विरुद्ध हमेशा एक सार्थक हस्तक्षेप ही मानी गयी। समय की यांत्रिक और उपभोक्ताप्रधान दुनिया में सामान्य व्यक्ति, टकराहट का शहीदी अवसान और विवश समर्पण के क्रमिक आत्मघात से बचकर एक ईमानदार मनुष्य की तरह जी सके, यही चिन्ता उनकी कविता का केन्द्रीय विचार रहा है। 

कुँवर नारायण का सिने-लेखन गहरे शोध, भाषा परिमार्जन और बीसवीं सदी के इस सबसे चमत्कारी चाक्षुष माध्यम को देखने की एक दृष्टि प्रदान करने वाला था। वे महान फिल्मकार सत्यजित रे के बारे में कहते थे कि उनकी फिल्में जीवन की गति को कला की लय में बांधने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। मुख्यतः पेचीदगी और जटिलता के वे कलाकार नहीं हैं। सरलता और क्लैसिकल अनुशासन उनकी कला की बुनियादी भाषा है जिसके द्वारा वे मानव मन की जटिल से जटिल गुत्थियों को चित्रित और उद्घाटित करते हैं। वे कहते थे कि राय की फिल्में इसलिए महान नहीं हैं कि वे साहित्य की स्पर्धा में अपनी एक अलग दुनिया रचती हों, वे विशिष्ट हैं क्योंकि वे उच्च कोटि के साहित्य के स्तर पर हमारे मन और चिन्तन को आन्दोलित करती हैं।

सिनेमा को देखने और सिनेमा पर बात करने के लिए कुँवर नारायण ने बौद्धिक धरातल पर बड़ी सम्भावनाओं को प्रकाशित करने का काम किया था। वे भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों के श्रेष्ठ सिनेमा को देखने, उस पर बात करने और विशेष रूप से हिन्दी में विश्व सिनेमा के गुणग्राहकों और जिज्ञासुओं के लिए एक जीनियस सेतु की तरह थे। मृणाल सेन, मीरा नायर, सत्यजित रे, आन्द्रेई तारकोवस्की, पोवाक्कात्सी आदि शीर्षस्थ फिल्मकारों के सिनेमा को उन्होंने अपनी भाषा और दृष्टि के साथ रेखांकित करने का जो काम किया, वह उनकी मूलभूत सर्जनात्मक साधना से इतर एक श्रेष्ठ आयामीय विलक्षणता की तरह है। उन्हें यदि मृणाल सेन की बहुचर्चित फिल्म खण्डहर ने आकृष्ट नहीं किया तो उसके लिए भी उन्होंने लिखा कि यह फिल्म जिन ऊँचाइयों की ओर संकेत करती है, उन ऊँचाइयों तक पहुँच नहीं पाती। बीच से ही लौट आती है क्योंकि मृणाल सेन की बुनियादी संवेदनाएँ जितनी भाव प्रबल हैं उतनी तर्क प्रबल नहीं, इस फर्क को उनकी ऐसी फिल्मों में भी देखा जा सकता है जिनका मूल विषय भावनात्मक न होकर वैचारिक है। कुँवर जी ने एक जगह पर लिखा था कि खण्डहर विफल फिल्म नहीं है लेकिन मेरी दृष्टि में इतनी सफल भी नहीं है कि मैं उसे निधड़क मृणाल सेन की उत्कृष्ट फिल्मों में रख सकूँ। 

वे एक ऐसे सिने आलोचक थे जो श्रेष्ठ फिल्मकारों से उनके स्तर की अपेक्षाओं को रेखांकित करते थे। महान फिल्मकारों की किसी-किसी फिल्म का कमतर प्रदर्शन उनको निराश करता था तो वे उस बात को बड़े साहस के साथ, अपनी क्षमताभर तार्किकता के साथ व्यक्त किया करते थे। उनका इतन स्पष्ट और भाषा तथा लेखनी में साफ-गो होना बहुत महत्व का माना जाता था। यदि उनको मीरा नायर की फिल्म सलाम बाॅम्बे बहुत ज्यादा प्रभावित करती थी तो वे उस पर लिखते हुए उस पर अपना शीर्षक लिखते थे - एक सार्थक कोशिश से कुछ ज्यादा। वे इस फिल्म को सराहते हुए कहते थे कि सलाम बाॅम्बे देखना एक फर्क तरह के अनुभव से गुजरने की तरह है। पाश्चात्य प्रभाव यदि इस फिल्म में दिखता भी है तो वह उत्कृष्ट तकनीक के रूप में रचनात्क ढंग से आया है। भारतीय समस्याओं को भारतीय दृष्टि से देखने की यह ईमानदार कोशिश है। उन्होंने लिखा था कि घोर यथार्थवादी फिल्म होते हुए भी सलाम बाॅम्बे हमारे मन को एक कविता की तरह छूती है क्योंकि एक कटु यथार्थ की तीव्रता को बरकरार रखते हुए भी वह व्यक्ति की कोमल और उदात्त दोनों भावनाओं को सुरक्षित रखती है। सिनेमा पर विश्लेषणात्मक और निबन्धात्मक लेखन से बहुत गहरे अपनी जगह बनाने वाले कुँवर जी बाद में अनेक सिने विश्लेषकों, आलोचकों के मार्गदर्शक हुए। 

एक पूरी पीढ़ी विष्णु खरे, विनोद भारद्वाज, प्रयाग शुक्ल ने जनमानस में सिनेमा जैसे साधारण मनोरंजन को गम्भीर परिभाषाओं और व्याकरणों से बांधा, सिनेमा बनाने वालों की जिम्मेदारी, इस माध्यम के प्रति प्रतिबद्धता और एक सुथरी परिमार्जनपूर्ण भाषा को व्यवहार में लाने का काम किया। ऐसे में कुँवर नारायण के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनका निधन सिनेमा-संज्ञान के बौद्धिक और भाषायी कैनवास में एक तकलीफदेह रिक्तता है।



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