रविवार, 12 नवंबर 2017

भविष्य का रंगमंच, अभिनेताकेन्द्रित और वैश्विक सरोकारों वाला

रामगोपाल बजाज की दृष्टि में

भारतीय रंगमंच के गहरे अनुभवी, गुणी और सुप्रतिष्ठित कलाकार, निर्देशक रामगोपाल बजाज को हाल ही में उज्जैन में मध्यप्रदेश शासन का रंगमंच के क्षेत्र के प्रतिष्ठित राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से विभूषित किया गया है। उनकी रंगनिष्ठा और सर्जना की सुदूर और नैरन्तर्यभरी यात्रा आधी सदी के विस्तीर्ण फलक पर अनेक श्रेष्ठ प्रतिमानों के कारण उल्लेखनीय रही है।

रामगोपाल बजाज, देश के एकमात्र सबसे बड़े रंग-प्रशिक्षण एवं परिष्कार संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 1965 बैच के स्नातक रहे हैं। आगे चलकर वे इसी संस्थान के छः साल निदेशक भी रहे। निदेशक के पद पर रहते हुए उन्होंने बच्चों के लिए नाट्य उत्सव जश्न ए बचपन और परिपक्व रंगकर्म के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नाट्य समारोह भारत रंग महोत्सव की परिकल्पना की और स्थापित किया। दोनों ही समारोह इस संस्थान की पहचान को बड़ी व्यापकता प्रदान करने में सफल रहे हैं। 

भारतीय रंगजगत मे अपनी पाँच दशक की निरन्तर सक्रियता और उत्कृष्ट प्रतिमानों से महत्वपूर्ण स्थान और आदर प्राप्त करने वाले रंगकर्मी रामगोपाल बजाज का जन्म 5 मार्च 1940 को दरभंगा, बिहार में हुआ था। उन्होंने बिहार विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। रंगमंच के प्रति उनका रुझान छोटी उम्र से ही रहा। युवावस्था में उन्होंने अपने रंगकर्मी मित्रों स्वर्गीय ओम शिवपुरी, स्वर्गीय सुधा शिवपुरी, स्वर्गीय ब.व. कारन्त, स्वर्गीय बृजमोहन शाह एवं मोहन महर्षि के साथ मिलकर दिशान्तर नामक नाट्य संस्था की स्थापना की और अनेक उत्कृष्ट नाट्य कृतियों के मंचन की शुरूआत की। उस समय उन्होंने जो नाटक मंचित किए उनमें सुनो जनमेजय, हयवदन, बेगम का तकिया, घासीराम कोतवाल, अंधा युग, तुगलक एवं किंग लियर आदि शामिल हैं। एक सफल एवं गुणी निर्देशक के रूप में इसी निरन्तरता और सक्रियता के बीच अजातघर, अषाढ़ का एक दिन, सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, कैद ए हयात, स्कन्दगुप्त, मुक्तधारा (पंजाबी भाषा में) सी गल, भूख आग है, तलघर, जल डमरू बाजे आदि नाटकों ने उनकी प्रतिष्ठा को और समृद्ध करने का काम किया। 

आरम्भ में नई दिल्ली आकर रामगोपाल बजाज ने अनेक संस्थानों में नाटक प्रभाग के प्रमुख रहते हुए महती कार्य किया इनमें 1969 से 73 तक माॅडर्न स्कूल दिल्ली में नाट्यकला का अध्यापन, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ में के भारतीय थिएटर विभाग के रीडर पद पर कार्य एवं 1979 से 80 तक पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के नाट्य कला विभाग के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष के रूप में सक्रियता शामिल हैं। इसके अलावा वर्ष 2002 में एक वर्ष डाॅ. राधाकृष्णन पीठ, हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रमुख रूप में भी उन्होंने काम किया। वर्ष 2008 में उन्होंने शब्दाकार थिएटर समूह की स्थापना की और लैला मजनूं नाटक को भव्यतापूर्वक मंचित किया। इस प्रस्तुति को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, सर्वश्रेष्ठ पटकथा व ध्वनि आकल्पन के लिए तीन पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। समकालीन भारतीय रंगचेतना के विशाल परिदृश्य में सघन, कल्पनाशील और पारखी रंग-दृष्टि के पर्याय श्री रामगोपाल बजाज एक निर्देशक के रूप में जितने बारीक, सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाओं और आवेगों के पारखी रहे हैं, एक कलाकार के रूप में उतने ही गहन, भीतरी त्वरा के विलक्षण एवं असाधारण प्रदर्शन में उनको महारथ हासिल है। 

एक गहरे, दृष्टि सम्मत तथा तार्किक गुणों से समृद्ध बज्जू भाई (आत्मीयता और अपनेपन में उनको इसी नाम से सम्बोधित किया जाता है) हमारे समय के एक अत्यन्त विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण कलाकार एवं रंगकर्मी हैं जिनकी प्रतिभा की जरूरत उतनी ही भारतीय सिनेमा को भी है, तभी उनको अनेक फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निरन्तर हासिल हुआ करती हैं। वे इन दिनों सिनेमा और धारावाहिकों में लगातार काम कर रहे हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों में टेली फिल्म जेवर का डिब्बा, तमस, बसन्ती, फीचर फिल्मों में मैं आजाद हूँ, उत्सव, गोधूलि, मासूम, मिर्च मसाला, हिप हिप हुर्रे, चांदनी, परजानिया, द मैथ, मैंगो ड्रीम्स, जाॅली एल.एल.बी. टू शामिल हैं।

बजाज सजग रंगचेता हैं, उनका कहना है कि सिनेमा के व्यापक प्रसार के कारण अब रंगमंच में यथार्थवाद पर फिर से विचार करने की जरूरत है। हमें सोचना होगा कि रंगमंच में विचार के अलावा मौलिक क्या है? अब मंच पर दृश्यबंध की चकाचैंध से हमारा काम नहीं चल सकता क्योंकि यह सब सिनेमा हमसे अधिक कर रहा है। रामगोपाल बजाज भविष्य के रंगकर्म की कल्पना करते हुए कहते हैं कि भावी रंगमंच स्थानीय भाषा में होगा, अभिनेताकेन्द्रित होगा और उसके सरोकार वैश्विक होंगे। यह रंगमंच अनुभूति-विचारप्रधान होगा। रंगमंच की चकाचैंधभरी दृश्यात्मकता को भाषा के स्तर पर तोड़ना होगा। फार्म के स्तर पर उसे काव्यात्मक बनाना होगा। इसके बाद ही रंगमंच अधिक व्यापक और वैश्विक होगा। जिस प्रकार कविता में बहुस्तरीय अभिव्यक्तियाँ सम्भव हैं, एक कला के रूप में हमारा भविष्य का रंगमंच, कविता का रंगमंच होगा। 

बजाज का कहना है कि दुनिया में संचार का स्वरूप बदल जाने से कोई भी कला अब केवल स्थानीय नहीं रही। अब तक हम जिसे और जिन अर्थों में हिन्दी रंगमंच कहते हैं वह दरअसल भारतीय रंगमंच है जिसकी भाषा हिन्दी है। यह भाषा कन्नड़, मलयालम या पंजाबी भी हो सकती है। मेरा मानना है कि आज जो नाटक लिखे जा रहे हैं, वे वैश्विक हैं। 

रामगोपाल बजाज ने नाटकों की समीक्षाएँ और आलोचना भी अपनी दृष्टि और तटस्थ भूमिका के साथ वर्ष 1969 से 72 तक दिनमान पत्रिका में लिखी हैं। उन्होंने बादल सरकार, बर्तोल्त ब्रेख्त और गिरीश कर्नाड आदि के लगभग पन्द्रह नाटकों को हिन्दी में अनूदित भी किया है। समग्रता में चालीस से अधिक नाटकों में अभिनय, इतने ही नाटकों का निर्देशन उनके प्रतिमान हैं। सुदीर्घ एवं निरन्तर सृजनयात्रा में आपको अब तक अनेक मान-सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनमें वर्ष 2003 में पद्मश्री, साहित्य कला परिषद का परिषद सम्मान, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, नांदीकर सम्मान एवं राधारमण सम्मान शामिल हैं। वर्ष 2015 में आपको बिहार राज्य सरकार का बिहार कला पुरस्कार लाइफ टाइम अचीवेंट के लिए प्रदान किया गया है। 


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