रविवार, 9 अगस्त 2020

नयी फिल्‍म / परीक्षा

तुम्हारी, हमारी, इसकी, उसकी........हम सबकी...

परीक्षा एक मर्मस्पर्शी फिल्म है जो दर्शक की कई प्रकार से परीक्षा लेती है। मन को छू जाने वाली कहानी है जिसमें एक रिक्शा चालक जिसे अपने होनहार बेटे की प्रतिभा देखकर हर समय यह लगता है कि सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए वह बड़े और समृद्ध भव्यता वाले स्कूल के बच्चों की तरह बढ़ नहीं पायेगा, आगे नहीं निकल पायेगा। एक बड़ी महात्वाकांक्षा उसकी जिन्दगी को किस तरह बिगाड़ती चली जाती है, यह फिल्म में हम देखते हैं। महत्वपूर्ण निर्देशक प्रकाश झा ने अरसे बाद एक बार फिर प्रभावी और सम्प्रेषणीय सिनेमा की नब्ज को पकड़ लिया है जो उनसे पिछली कुछ फिल्मों से छूटती चली जा रही थी। मनोहर सिंह, दीप्ति नवल, प्यारे मोहन सहाय, श्रीला मजूमदार के साथ दामुल बनाकर भारतीय सिनेमा में एक सशक्त हस्ताक्षर करने वाले झा परीक्षा में बहुत प्रतिभाशाली कलाकारों और आम दर्शकों के लिए लगभग अपरिचित चेहरों के साथ एक अच्छी फिल्म बना गये हैं।

रॉंची में फिल्म बनी है पूरी। एक बड़ा सा आधुनिक स्कूल और शेष शहर के प्रमुख मार्ग से होती हुई एक बस्ती के सेट पर फिल्म घटित होती है। एक रिक्शा चालक बुच्ची (आदिल हुसैन) भव्य से स्कूल सफायर के सात-आठ बच्चों को रिक्शा में घर से बैठाकर ले जाता है और शाम को घर छोड़ता है। शेष समय बाकी सवारी। उसका बच्चा बुलबुल सरकारी स्कूल में पढ़ता है। वह चाहता है कि बेटा भी इसी स्कूल में पढ़े। उतनी फीस जुटा पाना सम्भव नहीं है। उसकी पत्नी स्टील बरतन बनाने की फैक्ट्री में मजदूरी करती है। एक रात एक सवारी का पर्स रिक्शे में गिरकर सीट में फँस जाता है। उसमें रखे अस्सी हजार रुपयों से उसका ईमान डगमगाना शुरू होता है। वह स्कूल की प्रिंसीपल के सामने भावुक होकर अपने इरादों में कामयाब हो जाता है लेकिन आगे समय समय पर फीस जमा करना, कोचिंग के पैसे जुटाने की जद्दोजहद उसे एक बुरा अपराधी चोर बना देती है। चोरी करते हुए उसका पकड़ा जाना उसके पूरे स्वप्न के धँसकने का संकेत है। वह डर जाता है। बहुत मार खाता है पर अपना नाम नहीं बताता।

इधर बेटे (शुभम झा) के संघर्ष हैं जिसे अपने पिता के पहले रिक्
शेवाले होने के कारण दुराव और अपमान का जगह जगह सामना करना पड़ता है, बाद में चोर होने की घटना के बाद और अधिक मुश्किलें बढ़ जाती हैं जिसका सामना वह और उसकी मॉं (प्रियंका बोस) करते हैं। कहानी में एक आय पी एस अधिकारी पुलिस अधीक्षक (संजय सूरी) का बुच्ची से बात करना, सच जानना और बुच्ची से कारावास में रहते हुए बुलबुल और बस्ती के अन्य बच्चों को रोज रात को पढ़ाना और परीक्षा में अव्वल आने में कोचिंग की निर्भरता को समाप्त करना भी कहानी को विस्तार देता है वहीं स्थानीय विधायक की ओछी राजनीति और रसूखदारों का कोचिंग माफिया और उसके दबाव, स्कूल प्रबन्धन का शुरू से बुलबुल के खिलाफ होना लेकिन प्रिंसीपल (सीमा सिंह) का संवेदनशील होना फिल्म के पक्ष हैं।

रॉंची शहर की बसाहट, शहर और बस्ती के मन्दिरों के कीर्तन, महिलाओं की भीड़, ज्ञानी पुजारियों का भक्तों को भगवान की ओर से लगभग गारण्टी देते हुए आश्वस्त करना, सरकारी स्कूल की कक्षाऍं, पढ़ाने वाले अध्यापक, भव्य स्कूल का प्रांगण, इंटीरियर, क्लास और सूटेट-बूटेट गजदेह स्थूल से सर आदि आपको सभी हमारी आज के कृत्रिम मानवीय स्थापत्य का हिस्सा नजर आयेंगे वहीं सकारात्मक किरदारों में पुलिस अधीक्षक, पढ़े लिखे ग्रेजुएट होने के बाद भी पुरानी किताबों को बेचकर गुजारा करने वाले उस्मान चाचा, बस्ती मोहल्ले का आपसी सौहार्द्र महत्वपूर्ण हैं।
फिल्म के प्रथम भाग को बहुत अच्छे से गढ़ा गया है जिसमें हमारी शिक्षा पद्धति, व्यवस्था, स्कूलों के ग्लैमर और सरकारी स्कूलों के यथार्थ को देखा जा सकता है। पारिवारिक जीवन में घर के कामकाज, जवाबदारियों के साथ मजदूर करती खटती स्त्री का बुखार और सिरदर्द में रहकर भी काम पर जाना, डर कि पैसा कट जायेगा, पति का कभी कभार शराब पीकर लौटना और कई बार सट्टे के नम्बर लगाना, हारना और जीतने का आत्मविश्वास रखना, फिर ये सब न करने की कसम खाना। सोते हुए बेटे के पार्श्व में पति-पत्नी के संवाद मन को छू जाने वाले स्वप्न का साक्ष्य कराते हैं।

मध्यान्तर के बाद घटनाक्रम एक अलग मोड़ लेते हैं। राजनैतिक विरोध बड़ा नाटकीय लगता है। हालॉंकि कतिपय श्रेयभोगी जनप्रतिनिधियों की मानसिकता को भी उजागर करता है भले उसमें उनका कोई योगदान हो न हो। कलाकारों ने काम अच्छा किया है। आदिल आश्वस्त कलाकार हैं। खूब रिक्शा चलाया है। महात्कांक्षा से लेकर मन के चोर तक को वे बखूबी व्यक्त कर सके हैं। शुरू में बस वह अंग्रेजी बोलने की विफल कोशिश और रिक्शा चलाते हुए गाना गाने तक यह अन्दाज फिर आगे छूट ही गया। वे शुरू से ही इस कृत्रिमता से बचे रह सकते थे पर स्क्रिप्ट ही ऐसी होगी। प्रियंका बोस परिस्थितियों से जूझती स्त्री के रूप में प्रभावित करती हैं। एक तरह का डर, विवशता और सिर पर आयी मुसीबतों में एक स्त्री की मनोदशा को बखूबी प्रस्तुत करती हैं। उसी तरह शुभम जिसने बुलबुल का किरदार किया है वह अपने साथी विद्यार्थियों का उसके प्रति व्यवहार, अध्यापकों का व्यवहार, परिवार पर आयी विपदा सबको अपने चेहरे पर लेता है और उस तनाव को दर्शा पाता है जो स्वाभाविक रूप से एक बच्चे के ऊपर आता है। संजय सूरी सहृदय पुलिस अधीक्षक के रूप में अपनी भूमिका को सराहनीय बनाते हैं।

अजय मलकानी उस्
मान चाचा के रूप में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक चरित्र निबाहते हैं जिनका जिक्र जरूरी है, वैसे ही स्टेशन के पास रिक्शा स्टैण्ड चलाने वाला किरदार जो आपराधिक गतिविधियों का भी छोटा मोटा नियंता है, अपनी तरह से दिलचस्प और आकर्षित करने वाला है। स्टैण्ड पर ही बुच्ची की बगल में बैठा दूसरा रिक्शावाला नत्थू (पंकज सिन्हा) जिसको स्टैण्ड ठेकेदार कर्ज न चुकाने के कारण लताड़ा करता है, वह भी अपने दृश्यों में उपस्थिति छोड़ने में सफल होता है। परीक्षा, एक वैचारिक हस्तक्षेप है, हमारे समय में। प्रकाश झा ने इस फिल्म को पूरी तरह सृजित किया है, लिखने से लेकर परदे पर लाने तक। वे सहायक चरित्रों के विस्तार में जिस तरह जाते हैं वह किसी भी कहानी के वातावरण को उसके प्रभाव के साथ दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने में प्रभावी है। उनकी हर फिल्म में एक विषय तो होता ही है। इस परीक्षा फिल्म में वे कई सूक्ष्म प्रयोगों के साथ चौंकाते भी हैं। यह फिल्म उस नजरिए से भी हमारे सामने घटित होती है जिसमें मुखिया के अपराधी या चोर साबित हो जाने के बाद पत्नी और बेटे के अन्तर्द्वन्द्व क्या हैं और उनका मुखिया से क्या व्यवहार होना चाहिए?

बड़ी बात यह है कि दोनों ही उसे माफ करते हैं और उसकी वजह से आयी मुश्किलों के जवाब समाज के सामने बहुत ही विनम्रता के साथ देते हैं, बुलबुल का प्रिंसीपल सहित कमेटी के सामने कहा गया आत्मकथ्य अन्तिम बारह मिनट में फिल्म को बहुत अहम बनाता है। 
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