रविवार, 2 अप्रैल 2017

सान्निध्य / धर्मेन्द्र

एक महानायक से कुछ देर उनके मन की..........


इस बार कुछ अधिक समय हो गया है, उनसे मिले हुए। दो वर्ष पहले उनके जन्मदिन पर मुम्बई जाना इसलिए नहीं हो पाया था कि अपनी माँ के बिछोह से बेहद व्यथित था। बीते साल धरम जी का जन्मदिन नहीं मना क्योंकि जीवनभर उनके साथ रहने वाले, उनका साथ निभाने वाले उनके अनुज, छोटे भाई अजीत सिंह देओल (अभय के पिता) का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। धरम जी भावुक हैं, एक महानायक के रूप में हिन्दी सिनेमा के परदे पर यह शख्सियत अपने दर्षकों और चाहने वालों का जितना बड़ा भरोसा है, जीवन में उससे अधिक संवेदनषीलता और कोमलता को वे सहेजे-पोसे रखते हैं। जब धरम जी मुम्बई हिन्दी सिनेमा में अपनी किस्मत आजमाने आये थे, तब पीछे से उनके साथ उनके छोटे भाई अजीत भी आ गये थे। जो धरम जी से जुड़ा है वो अजीत भाई साहब का अर्थ भी जानता था जो घर में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति, मुरीद, अतिथि का बड़ा ख्याल रखते थे। सबसे प्रेमपूर्वक मिलना, बैठना, बात करना, समय देना और खासकर वो समय जिसमें अतिथि के साथ प्रतीक्षा या इन्तजार जुड़ा हो, अजीत साहब उसके आतिथ्य का पूरा ध्यान रखते। बहुत ही कम मगर षौकिया तौर पर उन्होंने कुछ फिल्मों में अतिथि भूमिकाएँ भी कीं। जब बाॅबी देओल बरसात से साथ पहली बार फिल्म में आये थे, भतीजे की जिद पर चाचा अजीत ने फिल्म के क्लायमेक्स में ट्रेन ड्रायवर की भूमिका निभायी थी।

दो साल पहले जब अजीत सिंह देओल नहीं रहे तब धरम जी बहुत फूट-फूटकर रोये थे। अपने अनुज का इस तरह जाना उनको बहुत खलता है। वे आज भी अपनी माँ और पिताजी को उतना ही महसूस करते हैं और वह व्यथा उनके मन से मिट नहीं पायी है। भाई का जाना एक और बड़ा दुख है उनके लिए। वे धीमे से कहते हैं, अपने तो अपने होते हैं.......

मैं इस घटनाओं से भरे अन्तराल के बाद उनसे मिलने चला था। धर्मेन्द्र मेरे जीवन के नायक हैं। सभी चाहने वालों के कोई न कोई नायक होते हैं। मन-मस्तिष्क में महानायक की देवता सी उपस्थिति और है क्या! मुझे अचरज होता है कैसे सत्यकाम फिल्म का यह नायक मेरे मन में आकर ऐसा बैठा कि समय के साथ-साथ अनन्य फिल्मों से वह पैठ और भी स्थायी होती चली गयी। इसे अपनी खुषकिस्मती मानता हूँ कि लगभग दो दषकों में मुम्बई उस तरह से बहुत अपना लगने लगा जब से अपने मन की पैठ वाले धरमजी से मिलना शुरू हुआ। पहली मुलाकात जिसमें एक बड़ा और करीब-करीब पूरा सा ही साक्षात्कार हुआ, जिसको रेकाॅर्ड भी नहीं किया लेकिन ऐसा रट गया कि ठहरने वाली जगह आकर रात भर में पूरा का पूरा जस का तस लिख डाला था। लौटते समय लोकल ट्रेन में कब अंगूठी उतर गयी, यह भी पता नहीं लेकिन खुषी इस बात की थी कि स्वप्न पूरा हुआ था, धरम जी से मिलने का।

वह शुक्रवार की शाम थी जब मैं उनके घर जा सका था। वे प्रायः खण्डाला अपने फार्म हाउस में रहा करते हैं। आवष्यकतानुसार मुम्बई आया-जाया करते हैं। सिनेमा के प्रतिष्ठित समारोहों में उपस्थित होते हैं। अपनों से जुड़े लोगों के सान्निध्य का हिस्सा बनते हैं, स्वभाव के मुताबिक दुख-सुख बाँटते हैं, हल्का करते हैं। मुझसे भी पूछा इस बीच कैसा चलता रहा है सब, घर-परिवार के बारे में, कहाँ लिख रहा हूँ उसके बारे में। मैंने उनको अपने मातृषोक की बात कही जिससे वे व्यथित हुए और कहने लगे, माँ की जगह कोई नहीं ले सकता। मैं भी अपनी माँ को ढूंढ़ता हूँ। याद करो तो लगता है कि आसपास ही है वो मेरे। उन्होेेंने बताना चाहा कि बेटे के सदा आसपास ही होती है माँ। उन्होंने अपने बंगले के परिसर में लगे विषाल नीम के वृक्ष की ओर इषारा करके बताया कि ये मेरे पिता ने रोपा था। नन्हा सा पौधा। आज यह इतना बड़ा पेड़ बन गया। ये मुझे पिता की याद दिलाता है, धरम जी कहने लगे। इसकी शाखें, मेरे पिता की बाँहें हैं जिन्होंने मुझे गोद में उठाया है।

धरम जी के सामने से बाॅबी का छोटा बेटा दौड़कर निकल जाता है, वे और मैं दोनों ही उसको देखकर मुस्कुराते हैं। जिक्र एकदम करण (राजवीर), सनी के बेटे से आकर जुड़ जाता है। धरम जी की आँखों में चमक फैल जाती है जब वे कहते हैं उसको लांच करने जा रहे हैं। वे यह भी बतलाते हैं कि एक पटकथा पर काम चल रहा है जिसमें मैं, सनी और बाॅबी फिर एक साथ आयेंगे। बात इस तरह आगे बढ़ी कि करण को भी वही प्यार मिलेगा जो आपसे सब तक सबको मिलता आया है। इसके उत्तर में धरम जी एक लाइन बोलते हैं, शोहरत की सीढ़ी से मोहब्बत का मकाम बड़ा होता है। अपने दर्षकों के प्रति सदैव एहसानमन्द और शुक्रगुजार इस महानायक ने अपने चाहने वालों को हमेषा सिरमाथे पर बैठाया है। अक्सर ऐसे अवसरों का साक्षी हुआ हूँ जब उनके चाहने वालों की बड़ी संख्या उनके आसपास इकट्ठा हो गयी है और अपनी सुरक्षा करने वालों को सजग होते देख धरम जी ने उनको सहज और संयत रहने को कहा है। सबसे खूब मिलते हैं वे। देखा है कि अनेक बार उनके चाहने वाले ही उनका मजबूत सुरक्षा कवच बन जाते हैं। इतनी सब बातों के बीच फिर उनके चेहरे की ओर एकाग्र होता हूँ। चाय और बिस्कुट उनके साथ खाते हुए मैं कहता हूँ कि एक किताब पर काम करने का कब से मन है पर आपकी ओर से अनुमति चाहा करता हूँ कई बार। वे बात से बात जोड़ते हैं, मन करता है, अपनी फिल्मों को और खासकर उनसे जुड़ी घटनाओं को लिखूँ उस पर कोई किताब आये। मैं मन ही मन कौतुहल में भर गया, कैसा हो आप बोलें और कोई लिखकर आपसे जँचवा ले! ऐसे कुछ तैयार हो जाये। 

मैंने इतना जरूर कहा कि कम से कम एक ऐसी ही किताब मुझे करने दीजिए जिसमें उन दस, बीस या पच्चीस फिल्मों की विस्तार से चर्चा की जाये जो आपको स्वयं बेहद पसन्द रहीं। इस बात पर वे सजग हुए, उनका सजग होना अच्छा लगा। फिर उन्होंने एक-एक करके नाम लेना शुरू किए। उनमें दो-चार फिल्में मैंने वो भी जुड़वा लीं जो मुझे बहुत पसन्द हैं आज तक। यह काम मैं गम्भीरतापूर्वक नोट करके उतना ही सन्तुष्ट हुआ जैसे इस सोचे को कभी साकार कर सकने की स्थिति में सन्तुष्ट होऊँगा। 

मेरे जाने का समय होता आ रहा था। इसी बीच एक जाना-पहचाना चेहरा बेखटके बंगले से परिसर और परिसर से कमरे में दाखिल हुआ जिसने धरम जी के पैर छुए। ये गुरुबचन सिंह हैं, अपने समय के जाने-माने फाइट मास्टर और खलनायक। राज एन सिप्पी की फिल्म इन्कार मुझे आज भी याद है जिसमें अमजद खान के साथ गुरुबचन सिंह की पन्द्रह मिनट की फाइट खूब चर्चित हुई थी। धरम जी की अनेक फिल्मों में भी गुरुबचन ने उनसे अनेक घूँसे खाये हैं। उनको पहले भी इस बंगले में देखा है। अपनेपन में वे धरम जी के पास प्रायः आते हैं, पंजाबी में खूब बातें करते हैं, अच्छा लगता है।

इस बार लम्बे अन्तराल और अनेक भीतरी-बाहरी आवेगों और अनुभूतियों के बीच धरम जी से मिलना फिर लम्बे समय तक खुषी, सन्तुष्टि और ऊर्जा प्रदान किए रहेगा। अब आया हूँ तो बढ़िया काम लेकर आया हूँ, उन सब फिल्मों के नाम साथ में हैं, पास में हैं जो धरम जी को प्रिय हैं। उनको देखना शुरू करने से ही काम भी शुरू होगा। दुआ कीजिए, एक किताब हो जाये....




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