गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

धर्मेन्द्र : शिकार, प्यार ही प्यार और रखवाला

शिकार करने को आये, शिकार हो के चले..........


इधर साठ के दशक के अन्तिम वर्षों में धर्मेन्द्र की कुछ फिल्में देखने का अवसर मिला, खासकर शिकार, प्यार ही प्यार और रखवाला। 68 से 71 के बीच ये फिल्में आयीं थीं तब वे साल में कम से कम सात-आठ फिल्में कर रहे होते थे। 66 में फूल और पत्थर से यह सितारा सिनेमा के आकाश में एक नक्षत्र की तरह जगमगा रहा था। शख्सियत के अनुरूप किरदार लिखे जा रहे थे जिनमें ज्यादातर पुलिस अधिकारी, सी आई डी अधिकारी, फॉरेस्ट ऑफीसर, जासूस टाइप के रोल हुआ करते थे। 68 के साल में ही रामानंद सागर ने आँखें बनाकर उनको गोल्डन जुबली सितारा बना दिया था। इस समय धर्मेन्द्र अपने प्रशंसकों को खूब मिल रहे थे। वे सामने से आते हुए अपने मुरीद की आँखों में अपने लिए जो प्यार देखते थे, वह उन जैसे मध्यमवर्गीय परिवेश से आये कलाकार के लिए अतुलनीय था।
एक मुलाकात में उन्होंने बताया था कि जब थोड़ा यहाँ जम गया और अपने पक्ष का समय हो गया तब माँ को बुला लिया था। वह पहली बार मुम्बई आयी तो शहर में प्रवेश करती रेल से उनको बाहर सिनेमा के बहुत से होर्डिंग और पोस्टर दिखायी दिये जिसमें अनेक धर्मेन्द्र के थे। उन पोस्टरों और होर्डिंग्स को देखकर माँ इतनी भावविभोर हो गयी कि उनको चक्कर आ गये और बेहोश हो गयीं। धर्मेन्द्र जब माँ को अपने बड़े से घर में लाये तो उनके अचम्भे का ठिकाना न था। माँ फिर जीवनपर्यन्त उनके साथ ही रहीं और उनका यश-वैभव देखकर आनंदित बनी रहीं।
शिकार, प्यार ही प्यार और रखवाला की बात करते हैं। इन फिल्मों के नायक धर्मेन्द्र निर्देशक के अभिनेता दिखायी देते हैं। उनका अपना आत्मविश्वास उनके किरदार को और स्मार्ट बनाता है। रोमांटिक दृश्य करना उनके लिए सदैव प्रीतिकर रहा। यह संयोग ही है कि उनकी नायिकाएँ ज्यादातर उनसे सीनियर होती थीं, सीनियर अर्थात फिल्मों में उनसे पहले से सक्रिय सो प्रायः फिल्मों में नायिका का नाम पहले आता था फिर धर्मेन्द्र का। धर्मेन्द्र में नायक होने या अच्छे मार्केट का दम्भ नहीं था इसीलिए वे दुराग्रहों में नहीं पड़ते थे। वे मुसीबत में फँसी नायिका को खलनायक के चंगुल से बखूबी बचाते थे।
संवेदनशील दृश्यों में उनका माँ, बहन या भाई के साथ होना, संवाद कहना अनूठा है। फिल्म में गाने, खासकर जो मोहम्मद रफी ने उनके लिए गाये, कमाल हैं। गानों का फिल्मांकन, नायिका के साथ उनका होना उस समय आपको एकाग्र करता है जब नाचती, खिली-खुली-डूबी नायिका के साथ उनको नाचने में बहुत सहज न हो पाने के बाद भी यथाकोशिश बेहतर दृश्य कर जाने की क्षमता पर सराहे बिना नहीं रहेंगे।
मुझे, रहने दो गिले-शिकवे..........रखवाला के गाने के उत्तरार्ध में लीना चन्द्रावरकर के साथ उनका नाचना बहुत पसन्द है.................प्रायः फिल्म के अन्त में जब वे सरप्राइजली पुलिस अधिकारी घोषित होते हैं तब दर्शक खूब ताली पीटता है.............

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