गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

कहानी

प्रतीक्षास्मृति.......



उस रात स्टेशन के प्लेटफॉर्म नम्बर तीन पर पीछे की तरफ एक खाली बैंच पर बैठे रेल का इन्तजार करते हुए मुझे लग रहा था कि जाती हुई सर्दी में यहाँ से वहाँ तक इक्के-दुक्के लोग ही दीख रहे हैं। मेरी रेल को दो घण्टे बाद आना था। अपने लिए मैंने खुली हवा वाली बेंच चुनी थी जो प्लेटफॉर्म की छत से आगे जाकर थी, जहाँ खुला आसमान, सामने और पीछे की पटरियाँ और उनमें आती-जाती रेलें अपनी आवाज और छाती पर उनकी ध्वनियों का प्रभाव शिथिल नहीं होने दे रहा था।

शिथिल होने से मेरा आशय सुस्ताने या सो जाने से है, हालाँकि अपने आपसे तय किए बैठा था कि किसी भी हाल में मुझे सोना नहीं है नहीं तो कब रेल आकर चली जायेगी, सोता रह गया तो पता नहीं चलेगा। अपने खाने को लेकर दस तरह के आग्रह रहते हैं तो घर से हठ किए जाने पर भी खाना लेकर नहीं आया था कि देर से खाया ठीक नहीं रहेगा। रेल चलेगी तो पेट हिलेगा, सोना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन रेल की देरी की वजह से मुझे लगने लगा कि कुछ खाने को पास रहता तो कितना अच्छा होता, फिर वही घर में हुई बहस से ध्यान हटाते हुए मैं अभी-अभी सामने खाली हुई पटरी की ओर देखने लगा।

इधर दूर तक निगाह गयी तो जमीन पर इत्मीनान से ओढ़कर सो रहे यात्रियों को देखा, बड़े आश्वस्त होंगे, गाड़ी छूटने का डर न होगा, गाड़ी भी शायद इनकी सुबह ही आये.......यही सब सोचता हुआ। थोड़ी देर में पटरी चढ़कर आया एक लड़का सीधे मेरे पास आ गया और अपनी अल्यूमीनियम की केतली लहराते हुए मुझसे कहने लगा, बाबूजी चाय पियेंगे, अभी-अभी घर से बनाकर ले आ रहा हूँ, बढ़िया है, अदरक-इलायची पड़ी हुई..............मैंने उसको देखा। वाकई वो प्लेटफॉर्म का चाय वाला नहीं था। मैं उसको देखकर मुस्कुरा दिया, उत्तर में उसने कागज का कप भर दिया और मुझसे पैसे लेने ठहर गया। मैंने उसे दस रुपए दिये, तीन रुपये उसने जेब से खन्न से खूब सारी चिल्लर निकालकर गिने, मुझे दिये और आगे आवाज लगाता चला गया। हाँ, उसकी चाय वाकई अच्छी थी।  

चाय पी चुकने के बाद भी समय खूब बाकी था रेल आने में। मैंने अपना मोबाइल फोन निकाला, सबसे पहले वाट्सअप खोला, सोच रहा था इस समय कौन भला जागता होगा! जरूर वही जो मेरे जैसा घर और मंजिल के बीच अधर में, यहाँ प्लेटफॉर्म पर जाग रहा होगा। खैर सभी स्वाभाविक रूप से ऑफलाइन ही थे। मुझे हँसी आ गयी, चार घण्टे बाद तो सब शुरू होंगे ही सबकी सुबह की खैर मनाते हुए, दुआएँ देते हुए। फेसबुक में भी चहल-पहल नहीं के बराबर, बिल्कुल वैसे ही जैसे बीच रात को शहर और ध्वनियों का संज्ञान हम लेते हैं।

मैं सब जगह होकर आ गया। हाँ फेसबुक में कुछ छबियों को पसन्द करते हुए चिन्हित किया, कुछ के लिखे को भी पसन्द किया, कुछ ऐसे मित्रों के लिखे और दीखे को भी लाइक किया और सराहा जिनसे मुझे आगे कोई काम हो सकता था या जो मुझे काम हो सकने की स्थिति में जाने रहें या उदार रहें। हालाँकि अपने ऐसे सोच पर हँसी भी आ रही थी और कुछ असहजता का बोध भी लेकिन.........

खैर सच कहूँ तो इस पूरे बड़े बैठे व्यतीत होते अवकाश में मुझे तुम्हारी बहुत याद आयी। मुझे एकबारगी लगा कि तुम्हें जगा लूँ और तुमसे बात करूँ लेकिन फिर यही सोचकर रह गया कि तुम ठीक इस समय गहरी नींद में हो। गहरी नींद की कल्पना बड़ी अनुपम है। किसी को भी गहरी नींद में सोये देखो, कुछ सुन्दर से गाने भी ध्यान आये। गहन निद्रा जब सारे तनावों से मुक्त करके आती है तो वो सबसे पहले चेहरे को सारी व्याधियों से मुक्त कर देती है। वह एक सौम्य, सुदर्शन मुस्कान भी देती है। निद्रा की पूरी की पूरी आवृत्ति में दो या तीन करवटें निहित होती हैं। प्रतीत हो सकता है कि नींद न हो जैसे कोई सुखकारी यात्रा हो। ऐसी यात्रा जिसमें पहाड़ लांघ लिए जाते हैं, जिसमें नदिया उड़कर पार कर ली जाती हैं, जिसमें पैदल चलते हुए जैसे पंख लग जाते हैं। 

सारी बातें स्वाभाविक रूप से तुमको ही ध्यान में रखकर सोच रहा था। मुझे नींद के साथ ही ध्यान आया, अक्सर हम बहुत आनंदप्रदाता नींद को गहरी अथवा मीठी नींद कहकर परिभाषित करते हैं। तुम्हें याद होगा एक बार मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हारे मन की मिठास और गहराई है ही ऐसी कि तुमको नींद जब भी आयेगी, वो तुम्हें आने के बाद मीठी और गहरी अपने आप ही हो जायेगी या यों कह लूँ बिना मीठी और गहरी हुए बच न पायेगी। तुमने उसके उत्तर में मुस्कुराते हुए कुछ अधिक ही सहज होकर अपने दोनों हाथों को आपस में बींध लिया था और मेरे सिर पर मार दिया था, हालाँकि बाद में सॉरी भी कहा था और बड़ी देर तक पूछतीं रहीं थीं कि मुझे सिर में लग तो नहीं गयी.............

प्लेटफॉर्म पर होने वाली उद्घोषणा मुझे अचानक ही सब जगह से हटा लेती है और जैसे मैं पल भर में सारे रूमान से बाहर आ जाता हूँ। नींद के मीठे और गहरे होने का एहसास, उस भरोसा दिलाकर अच्छी चाय पिलाने वाले लड़के का चेहरा, थोड़ी-थोड़ी दूर पर सोये यात्री.............और अब सच में थोड़ी ही देर में प्लेटफॉर्म पर आने वाली अपनी रेल के लिए मैं अपना मफलर अपने गले में फिर से संयोजित करने को होता हूँ। मफलर बाँये कंधे से पीछे मोड़ते हुए मुझे फिर तुम्हारा स्मरण हो आता है, हर बार की तरह तुम्हें याद करके फिर मुस्कुराता हूँ। आज भी तुम्हें अच्छी नींद आयी होगी, इसका विश्वास अपने आपमें पुख्ता करके खड़ा हो जाता हूँ। 

थोड़ी देर टहलूँगा कि रेल आ ही जायेगी। एक बार अपनी जगह पर पहुँचकर सामान रखकर लेट जाऊँगा तो मैं भी सो ही जाऊँगा.....

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